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Updated on: 29 August, 2022 6:33 PM IST
How to do Integrated Pest Management in Cotton Cultivation

भारत में कपास की खेती भिन्न-भिन्न मृदाओं जलवायु और कृषि क्रियाओं के द्वारा की जाती है. भारत में, यह महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर उगाई जाती है. कपास की खेती सिंचित एवं बारानी परिस्थितियों के अंतर्गत की जाती है. भारत के कुल कपास की लगभग 65 प्रतिशत पैदावार बारानी तथा 35 प्रतिशत सिंचित परिस्थितियों के अंतर्गत की जाती है.

कपास के उत्पादन में नाशीकीट तथा रोग मुख्य समस्याएं हैं. बीटी कपास आने से एक तरफ कपास के चार महत्वपूर्ण कीटों जैसे अमेरिकन सुंडी, चितकबरी सुंडी एवं तम्बाकू सुंडी जहाँ कम हुई हैं, वहीं दूसरी तरफ कपास की फसल में बहुत सारे लघु (माईनर) कहलाए जाने वाले चूसक कीट मुख्य श्रेणी में आ खड़े हुए हैं . भारत के कई क्षेत्रों में कपास पर गुलाबी सुंडी  एक महत्वपूर्ण कीट के रूप में पुनः उभर कर आ रही है. यह कपास के  बीजों को खाकर आर्थिक हानि पहुंचाती है इस कीट का संक्रमण फसल के मध्य तथा देर की अवस्था में होता है. पिछले 6-7 वर्षों से मध्य तथा दक्षिण भारत के साथ साथ यह  उत्तर भारत में भी  में बुवाई के लगभग 45 -60 दिनों के बाद गुलाबी सुंडी बीटी कपास पर संक्रमण करती हुई दिखाई दे  रही है. पर्यावरण की सुरक्षा के साथ अच्छे  फसल उत्पादन के लिए सभी किसानो को समेकित नाशीजीव प्रबंधन (आईपीएम) अपनाने की आवश्यकता है.

कपास की खेती करते हुए किसान

प्रमुख नाशीजीव

कपास  हरातेल्ला(जैसिड) : अमरास्का बिगुटूला बिगुटूला (सिकेडीलीडी- हेक्टेयर मिप्टेरा)

इसके वयस्क काफी सक्रिय होते हैं और आड़ी-तिरछी दिशा में फुदक सकते हैं.  इनकी वजह से पत्तियों में शिकन आ जाती है व पत्तियां सिकुड़ने लगती हैं. ग्रसित पत्तियां नीचे की ओर मुड़ जाती हैं, सूखने एवं झड़ने से पहले पीली तथा उसके बाद भूरी हो जाती हैं. कीट ग्रसित पौधों को साधारण रूप से ‘होपर बर्न‘के नाम से जाना जाता है. इस कीट  का आर्थिक क्षति स्तर - 2 वयस्क या निम्फ/ पत्ती है .

सफ़ेद मक्खी (वाइट फ्लाई): बेमेसिया तेबेसाई (अलुएरोडीडी : हेक्टेयर मिप्टेरा)

वयस्क मक्खियाँ लगभग एक मि.मी. लम्बी होती हैं इनका रंग सफ़ेद एवं हल्का पीला होता है और इनके दोनों पंख सफ़ेद मोम जैसे  पावडर से ढके होते हैं . इस कीट के शिशु व वयस्क दोनों ही पौधों से रस चूसकर फसल को हानि पहुंचाते हैं. कीटों के मधु स्राव करने पर काली फफूंदी आने से पत्तों की भोजन बनाने की क्षमता प्रभावित होती है. सफ़ेद मक्खी का प्रकोप होने पर पत्तियां सूख कर काली होने लगती हैं. इस कीट का आर्थिक क्षति स्तर  6-8 वयस्क/पत्ती है. ये कपास में पत्ती कुंचन विषाणु रोग के वाहक का काम भी करती हैं.

थ्रिप्स (काष्ठकीट) : थ्रिप टेबेसाइ [थ्रीपीडी - थाईसेनोप्टेरा]

वयस्क थ्रिप्स छोटे एवं छरहरे और पीले-भूरे  रंग के होते हैं, जिनके पंख धारीदार होते हैं. नर थ्रिप्स के पंख नहीं होते हैं. ये नाशीकीट पत्ती के टिशुओं में अंडे देती हैं.  नवजात थ्रिप्स भूरे रंग के होते हैं और वयस्क थ्रिप्स टिशुओं को फाड़ कर पत्ती के भीतरी भाग की कोशिकाओं से रस चूस लेते हैं . इसके प्रमुख लक्षण पत्तियों का बहुत कम मुड़ना तथा मुरझाना है, जो बाद में सिल्वर रंग के हो जाते हैं, इसलिए इन्हें ‘सिल्वर लीफ’ के नाम से जाना जाता हैं. पती का ऊपरी भाग भूरा हो जाता है. पत्तियों के कोने मुड़ जाते हैं, उनमे सिलवटें आने लगती हैं और तत्पश्चात वह सूख जाती हैं.

गुलाबी सुंडी: पेकटिनोफोरा गोस्सीपिएल्ला (गेलिकाईडी : लेपिडोप्टेरा)

इसके व्यस्क सुबह व सायंकाल में निकलते हैं परन्तु वह दिन के समय पौधों के कचरे या दरार में छुपे रहते हैं, पुष्प गुलाब के आकार में परिवर्तित हो जाता है, जिसमें लार्वा होता है और जो बाद में टिंडे में प्रवेश करता है तथा उसके बाद प्रवेश मार्ग बंद हो जाता है. विकासशील हरे बीजकोषों के अन्दर गुलाबी सुंडी मौजूद रहती  है लार्वे अंदर कोष्टकों के बीच आवगमन करता है खिले टिंडे में लार्वे द्वारा पहुँचाया गया नुकसान दिखाई देता है . इस कीट  का आर्थिक क्षति स्तर  8 वयस्क/ ट्रेप लगातार तीन दिन तक या 10 फीसदी प्रभावित पुष्प, कलिकाएँ एवं टिन्डे जीवित इल्ली के साथ होता है.

कपास पत्ती कुंचन रोग/ मरोडिया रोग

यह रोग मुख्य रूप से उत्तर भारत में पाया जाता है जो कपास पत्ती कुंचन जीमिनी विषाणु द्वारा सफ़ेद मक्खी के माध्यम से संचारित होता है. शुरू में पौधों की पत्तियों के ऊपरी भाग में स्मॉल वेन थिकनिंग लक्षण दिखाई पड़ते है. तत्पश्चात, शिरा भाग में पत्तियां ऊपर की ओर मुड़ जाती हैं. आरंभिक एवं अगेती चरण पर पादप ग्रसित होने से अंतर निस्पंद लम्बाई में कमी आने लगती है. जिसके फलस्वरूप पादप का विकास अवरुद्ध होता है, पादप पर कम फूल एवं फल लगते हैं और पैदावार काफी कम हो जाती है.

टिंडा सडन  (बोल रॉट ) रोग

अधिकतर लम्बे समय तक लगातार (5-7 दिन ) बारिश होने से तथा आपेक्षिक आद्रता 75 % से अधिक रहने के साथ अधिक तापमान तथा प्रकाश सघनता कम होने पर इस रोग का आक्रमण अधिक होता है.

आंतरिक टिंडा सड़न (बीजाणु जनित): हरे रंग के स्टिंक बग /भूरे रंग बग /लाल कपास बग  के आक्रमण के उपरांत,  टिडों में बीजाणु प्रवेश करते हैं . उसके बाद टिडों पर जलसिक्त धब्बे बनते हैं तथा बाहर से टिंडा हरा दिखाई देता है अन्दर से देखने पर पीलापन तथा लालिमायुक्त, भूरे एवं सड़ते हुए  दिखाई देते हैं.

बाहरी टिंडा सड़न (फफूंद जनित ): जलसिक्त धब्बे के ऊपर कई फाइटोपैथोजेनि एबं सप्रोफ्य्टिक फफूंदियां (आल्टरनेरिया, कोलेटोत्रिकुम, फ्युसेरियम आदि )  उगते हैं एवं टिडों पूरी तरह से नष्ट कर देते हैं .

समेकित नाशीजीव प्रबंधन

  • खेत की तैयारी: रबी की फसल की कटाई के पश्चात मिट्टी पलटने वाले हल से खेत की गहरी जुताई करें. जिससे जमीन के अन्दर सुशुप्तावथाओं में मौजूद कीट की अवस्थाएं नष्ट हो जाएँ
  • साफ सफाई: खेत के आस पास से सभी खरपतवारों व पिछले वर्ष के फसल अवशेषों को नष्ट करें क्योंकि सफ़ेद मक्खी इन खरपतवारों पर अपना जीवन चक्र पूरा कर अपनी जनसंख्या वृद्धि करती हैं.
  • बीज का चयन: क्षेत्र विशेष के लिए सिफारिश की गयी कीट रोग प्रतिरोधक/ सहनशील प्रजाति/शंकर बीज का चयन करें क्योंकि संवेदनशील प्रजातियों पर कीट का प्रकोप व उससे होने वाली छति अधिक होती हैं.
  • संतुलित पोषक तत्वों का प्रयोग: मृदा जाँच के परिणाम के आधार पर आवश्यकतानुसार मुख्य व सूक्ष्म पोषक तत्वों का खेत की तैयारी के समय प्रयोग करें क्योंकि केवल नइट्रोजन के अधिक प्रयोग से फसल पर चूसक कीटों व रोगों का प्रकोप बढ़ जाता है.

  • समय से बुवाई: पंजाब, हरियाणा व राजस्थान में 15 मई तक कपास की बुवाई सुनिश्चित करें क्योंकि देर से बोई गयी फसल पर सफ़ेद मक्खी का आक्रमण अधिक होता है तथा क्षति ज्यादा होती है.

  • सीमा पर रुकावट फसल की पंक्तियाँ: कपास के खेत के चारों तरफ ज्वार/ बाजरा / मक्का की दो पंक्तियों में बुवाई करें. क्योंकि ये फसलें सफ़ेद मक्खी को एक खेत से दुसरे खेत में फैलने से रोकती हैं तथा ये फसलें मित्र कीटों के लिए भोजन व आश्रय भी प्रदान करती हैं.

  • आवश्यकतानुसार समय-समय पर सिंचाई : क्योंकि नमी की कमी होने पर पौधे की पत्तियों में मौजूद प्रोटीन टूटकर एमिनो अम्ल में परिवर्तित हो जाती है जोकि चूसने वाले कीटों को अच्छा पोषण प्रदान कर उनकी संख्या में वृद्धि करती है तथा फसल में ज्यादा क्षति होती है.

  • निगरानी:

  • साप्ताहिक अंतराल पर कीटों की संख्या और रोग व्यापकता की निगरानी

  • चूसक कीटों ( सफेद मक्खी, हरा तेला और थ्रिप्स) की आबादी की निगरानी 10 रैंडम पौधों                       (3 पत्ते/पौधे) पर प्रति खेत पांच स्थानों पर करें.

  • फेरोमोन ट्रैप (2 -3 ट्रैप/एकड़) और 20 फूल या टिंडे /एकड़ के माध्यम से साप्ताहिक आधार पर गुलाबी सुंडी की निगरानी करें . खेत से बेतरतीब ढंग से 20 टिंडे एकत्र करें और जीवित लार्वा की उपस्थिति की जांच करें .

  • रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग तभी करना चाहिए जब कीट आर्थिक हानि स्तर (ईटीएल) को पार कर जाएं और एक ही कीटनाशक को लगातार दोहराने से बचें.

  • फेरोमोन ट्रैप: गुलाबी सुंडी (2 ट्रैप / एकड़) एवं तम्बाकू सुंडी, अमेरिकन सुंडी, चितकबरी सुंडी के फेरोमोन ट्रैप (१ ट्रैप / एकड़)  को खेत में अगस्त माह में स्थापित करें तथा 20-25 दिन पर ल्युर बदलते रहें, जिससे  इनके वयस्क पतंगों की निगरानी हो सके और समय रहते हुए इनके प्रबंधन हेक्टेयर तु उचित निर्णय लिया जा सके.

  • पीला चिपचिपा प्रपंच (ट्रैप) : फसल की प्रारंभिक वानस्पतिक वृद्धि की अवस्था में बुवाई के 45 दिन के आस पास खेत में सफ़ेद मक्खी की निगरानी व बड़े पैमाने पर फंसाने के लिए पीला चिपचिपा प्रपंच (ट्रैप) 100/हेक्टेयर का प्रयोग करें.

  • मित्र कीटों की पहचान एवं उनका संरक्षण:

  • परभक्षी मित्र कीटों जैसे लेडी बीटल, मकड़ी ,क्राइसोपरला आदि को पहचानें व उनका संरक्षण करें एवं उनकी उपस्थिति में कीटनाशियों का प्रयोग न करें

  • सितम्बर-अक्तूबर में मिली बग के परजीवी (अनासिअस) के प्युपे दिखाई देने पर मिली बग के लिए किसी भी रसायन का प्रयोग ना करें

  • कीटभक्षी पक्षियों के आगमन को बढ़ावा देने के लिए खेत में ऊँची लकड़ियाँ गाड़कर पक्षियों के लिए आसरा लगायें.

आवश्यकतानुसार निम्नलिखित रासायन तथा जैव कीट नाशकों का प्रयोग:

चूसक कीट (सफेद मक्खी / हरातेला / थ्रिप्स) एवं मरोडिया रोग (सीएलसीयूडी)

  • प्रारंभिक अवस्था में 20 जून से 15 जुलाई तक सफ़ेद मक्खी दिखाई देने पर खेत में आवश्यकतानुसार नीम ( racht.n 1500 ppm) @2.5 लीटर/हेक्टेयर क्टेयर +डिटर्जेंट एक ग्राम या एमएल प्रति लीटर पानी के साथ मिलाकर प्रयोग करें

  • सफ़ेद मक्खी, हरातेल्ला, थ्रिप्स आदि की संख्या बढने पर (जुलाई के अंत से सितम्बर प्रारंभ तक) आर्थिक क्षति स्तर पर सुरक्षित कीटनाशी (इन्सेक्ट ग्रोथ रेगुलेटर) स्पयरोमेसिफिन 9 SC 600 मिली/हेक्टेयर , ब्यूप्रोफेज़िन 50 SC 1000 मिली/हेक्टेयर डायाअफ़ेन्थिउरोन 50 WP 500 ग्र/हेक्टेयर , पयरीप्रोक्सीफेन 10 EC 1000 मिली/हेक्टेयर , फ्लोनिकामिड 50 WG 150 ग्रा/हेक्टेयर  का प्रयोग करें

  • पुष्पन की अवस्था होने पर पोटैशियम नाइट्रेट (NPK 13:0:45) के साप्ताहिक अन्तराल पर 4 छिडकाव करें जिससे फसल में कीटों के नुकसान के प्रर्ति सहनशीलता आती है एवं उपज में वृद्धि होती है.

  • मरोडिया रोग के प्रबंधन के लिए सफेद मक्खी के लिए अनुशंसित कीटनाशकों का उपयोग करें

गुलाबी सुंडी  के प्रबंधन

  • बीटी कपास के साथ गैर बी टी कपास को अवश्य साथ में लगाएं .

  • पिछली कपास के अवशेष को खेतों से हटा दें

  • गोदामों में  कीट ग्रस्त कपास को जमा करके न रखें .

  • गुलाबी इल्ली की गतिविधि की निगरानी के लिए बुवाई के 45 दिनों के बाद फेरोमोन ट्रैप की स्थापना  

  • संक्रमण के प्रारंभिक चरण में गिरे हुए कलियों / फूलों / टिंडो का  संग्रह और विनाश

  • गुलाबी सुंडी की संख्या बहुत अधिक होने पर बड़े पैमाने पर फंसाने के लिए फेरोमोन ट्रैप40 ट्रैप /  हक्टेयर की स्थापना करें

  • उपलब्धता के अनुसार परजीवी ट्राइकोग्रामा बेक्ट्री@ 1.50 लाख प्रति हेक्टेयर क्टेयर की दर से फसल में एक सप्ताह के अंतराल में तीन बार छोड़े

  • आवश्यकता-आधारित कीटनाशक का अनुप्रयोग - स्पाइनटोरम 11.7 एससी @ 0.8 मिलीलीटर / लीटर या प्रोफेनोफॉस 50 ईसी @ 3 मिलीलीटर / लीटर या एमामेक्टिन बेंजोएट 5 SG@ 0.50 ग्राम / लीटर

  • दिसंबर के अंत तक फसल की समाप्ति और फसल अवशेषों को नष्ट करना

क्या करें

·      लम्बी अवधि की देर से पकने वाली शंकर व देशी किस्मों का चयन न करें

·      उत्तरी क्षेत्र में देर से बुवाई (15 मई के पश्चात्) न करें एवं मध्य भारत में 31 मई से पहले बुवाई न करें

·      किन्नो बागानों के नजदीक कपास की बुवाई न करें, आवश्यकता पड़ने पर केवल देशी किस्मों का ही चयन करें

·      यूरिया उर्वरक का अंधाधुंध प्रयोग न करें

·      सिंथेटिक पय्रिथ्रोइद कीटनाशियों का प्रयोग न करें

·      खेत के पास कपास के अवशेषों के ढेर इकट्ठा न करें

·      खेत में जलभराव न होने दें

 

कपास में समेकित नाशीजीव प्रबंधन मानव स्वास्थ्य,पर्यावरण की सुरक्षा के साथ नाशीजीवों द्वारा होने वाले नुकसान को काफी हद तक कम करता है.

लेखक

अजंता बिराह, अनूप कुमार,  मुकेश कुमार खोखर, लिकन  कुमार आचार्य, एस पी सिंह एवं सुभाष चंदर

भा.कृ.अ.प.- राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन अनुसन्धान केन्द्र

पूसा परिसर, नई दिल्ली – 110012

English Summary: How to do Integrated Pest Management in Cotton Cultivation
Published on: 29 August 2022, 06:50 PM IST

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