मध्य प्रदेश के जिले में एक प्रगतिशील किसान ने जैविक खेती का प्रयोग करके अपनी फसल की ग्रोथ को दुगना करने की पूरी कोशिश की है. वह सीजन की फसलों के अलावा कई तरह की फसलों की अच्छी पैदावार कर रहे है. उनके खेत में जो लौकी लगी है उसको देखकर सभी लोग काफी हैरान हो जाते है. दरअसल इस प्रगतिशील किसान का नाम है चितरंजन चौरसिया, जिन्हें मुख्यमंत्री के हाथों पुरस्कार मिल चुका है. इन दिनों राज्य में किसानों के सामने सबसे बड़ी समस्या है कि वह यूरिया व खाद के लिए परेशान घूमते दिख रहे है लेकिन चितरंजन ने एक नया प्रयोग करते हुए अपने खेत में जैविक खाद को डाल कर पूरी फसल को आसानी से तैयार कर लिया है. उनका कहना है कि किसानों को केवल जैविक खाद पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिए.
किसानों को हो रही किल्लत
बता दें कि राज्य में कांग्रेस की की सरकार आ गई है लेकिन उसके बाद भी रबी फसलों के सीजन में बोवनी के बाद भी यूरिया की एक-एक बोरी के लिए हाहाकार मचा हुआ है. सभी किसान काम धंधे को छोड़कर खाद की तलाश में लगे हुए है. नतीजा यह है कि दिनभर घूमने के बाद भी एक बोरी खाद का मिलना मुश्किल हो रहा है. काफी मेहनत के बाद भी किसानों को एक-दो बोरी खाद व यूरिया मिल पाता है जिसके बाद भी आपूर्ति नहीं हो पाती है. चौरसिया सभी किसानों को जैविक खाद के लिए भी काफी समय से जागरूक करने में लगे हुए है.
किसानों को जैविक खेती से मुनाफा
उन्होंने बताया कि अधिकतर किसान अपनी फसलों की बोवानी के समय डीएपी एवं पानी देने के साथ ही यूरिया का आवश्यक मात्रा में छिड़काव कर देते हैं जिससे फसलों को काफी हद तक फायदा होता है. साथ ही फसलों को इससे आवश्यक मात्रा में फास्फेरस और नाइट्रोजन मिल जाता है. पौधों को कुल 16 प्रकार के पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है. यदि किसान स्वंय के निर्मित जैविक खाद का प्रयोग करते है तो न केवल खेती कम होगी बल्कि पोषक तत्व भी कम हो जाएंगें. इसको डालने से मिट्टी की उर्वरा शाक्ति में भी बढ़ोतरी होगी. क्योंकि कई बार रासायनिक खादों का प्रयोग करने से भी मिट्टी की उर्वरा शाक्ति कम हो जाती है. उनका मत है कि फसलों में इस तरह से करने से कम मात्रा में पानी देंगे तो किसानों को काफी फायदा होने की उम्मीद है.
किसान का कहना है कि रासायनों का बेधड़क प्रयोग होने से ज्यादा नुकसान होता है लेकिन इसके सहारे उत्पादन भी कम हो पा रहा है इसीलिए खेती को सुधारने के लिए जैविक खेती की ओर लौटना बेहद जरूरी है.
किशन अग्रवाल, कृषि जागरण