पथरचूर एक ऐसी जड़ीबूटी होती है जो हर मौसम में पाई जाती है. यह एक औषधीय पादप है. भारत में यह समस्त उष्ण कंटिबंधीय क्षेत्रों के साथ ही श्रीलंका, पूर्वी अफ्रीका, ब्राजील और मिस्त्र आदि देशों में पाया जाता है. देश के अंदर तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान में इसकी खेती प्रांरभ हो चुकी है. यह काफी सफल भी रही है, इसके पौधे की ऊंचाई 70 सेंटीमीटर तक पाई जाती है. केंद्र सरकार की तरफ से इसकी खेती करने पर 30 प्रतिशत सब्सिडी भी प्रदान की जा रही है.
जलवायु और मृदा
यह ऐसी भूमि में ज्यादा उगती है जो कि भुरभुरी हो और उसको मेढ़ो व नलियों में बनाया गया हो क्योंकि इससे पौधों के नीचे पानी नहीं ठहरता है और फसल खराब नहीं होती. इसके लिए यह जरूरी नहीं कि जमीन अधिक उपजाऊ हो बल्कि यह कम उपजाऊ भूमि में और भी कम लागत पर भी उगाई जाती है. यह उष्ण कटिबंध क्षेत्रों में उगाई जाती है.
नर्सरी तकनीक
वाणिज्यिक खेती के लिए पसल की उगाई के लिए बीज के रूप में जड़ को टुकड़ों में काटकर बोया जाता है. यहां पर टुकड़ों की लंबाई लगभग 10 से 12 सेंटीमीटर तक होती है जिनमें तीन से चार पत्तों के जोड़े होते है. इन सभी टुकड़ों को ठीक प्रकार से तैयार नर्सरी क्यारियों या पॉली बैगों में रोपा जाता है जो धूप में न होकर छाया में ही रहें. एक हेक्टेयर भूमि में फसल की उगाई के लिए लगभग 8000 जड़युक्त टुकड़ों की जरूरत होती है.
खेत में रोपण
पथरचूर की खेती के लिए पहले खेत को दो बार जोता जाता है ताकि मिट्टी भुरभुरी और खरपतवार रहित हो जाए बाद में उसको समतल किया जाता है. अब इसमें खाद की मात्रा भी बिखेरी जाती है जो कि प्रति हेक्टेयर 15 टन उरव्रक या केंचुआ कंपोस्ट खाद होनी है. पौधे के रोपण के 15 दिन पहले खेत में डाला जाता है. बाद में बराबर से नाइट्रोजन, फॉस्फेरस और पोटाश की 30 किलो की मात्रा में उर्वरक का प्रयोग किया जाता है तो फसल की बेहतर पैदावार होती है. इसके बाद यदि भूमि में पर्याप्त नमी न हो कम से कम दो बार सिंचाई की जानी चाहिए.
अंतर फसल प्रणाली
इस फसल को सदाबहार प्रजातियों के पेड़ों के बीच ही उगाया जाता है क्योंकि उनकी आंशिक छाया इसकी वृदधि के लिए अधिक उपयोगी रहती है.
संवर्धन विधियां
शुरूआत में पौधों को फॉस्फेट, पोटाश, उर्वरकों की एक मात्रा दी जाती है. यहां पर नाइट्रोजन उर्वरक की मात्रा दो हिस्सों में आधी-आधी दी जाती है. वही नलियों को पौधों की जड़ों में चढ़ाने से जड़ों की बेहतर और अच्छी पैदावार होती है. पौधों को लगाने के बाद दो बार खरपतवार निकालना आवश्यक है जो कि पहले 30 दिन बाद और फिर 60 दिन बाद निकाली जानी चाहिए. इसमें फफूंद की रोकथाम के लिए पौधों के इर्द-गिर्द पानी बिल्कुल भी जमा नहीं होने देना चाहिए. यहां पर रोपण से पूर्व बीज के टुकड़ों को कारबेनडेजिम के घोल में डुबोना. ट्रिकोडर्मा विरिडे की 5 किलो की मात्रा में 250 ग्राम कंपोस्ट मिलाकर 20-20 दिनों के अंतराल में जड़ों के तरफ डाला जाना चाहिए.
|
अनुमानित लागत |
देय सहायता |
पौधशाला |
|
|
पौध रोपण सामग्री का उत्पादन |
|
|
क) सार्वजनिक क्षेत्र |
|
|
1) आदर्श पौधशाला (4 हेक्टेयर ) |
25 लाख रूपए |
अधिकतम 25 लाख रूपए |
2) लघु पौधशाला (1 हेक्टेयर ) |
6.25 लाख रूपए |
अधिकतम 6.25 लाख रूपए |
ख) निजी क्षेत्र (प्रारम्भ में प्रयोगिक आधार पर ) |
|
|
1) आदर्श पौधशाला (4 हेक्टेयर) |
25 लाख रूपए |
लागत का 50 प्रतिशत परंतु 12.50 लाख रूपए तक सीमित |
2) लघु पौधशाला (1 हेक्टेयर ) |
6.25 लाख रूपए |
लागत का 50 प्रतिशत परंतु 3.125 लाख रूपए तक सीमित |