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Updated on: 28 September, 2018 12:00 AM IST
Crop

आज पूरी दुनियां पर बदलती जलवायु का प्रभाव पड़ रहा है. जलवायु में होने वाले यह परिवर्तन ग्लेशियर व आर्कटिक क्षेत्रों से लेकर उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों तक को प्रभावित कर रहे हैं. यह प्रभाव अलग-अलग रूप में कहीं ज्यादा तो कहीं कम महसूस किए जा रहे हैं. हमारे देश का संपूर्ण क्षेत्रफल करीब 32.44 करोड़ हेक्टेयर है. इसमें से 14.26 करोड़ हेक्टेयर में खेती की जाती है. अर्थात देश के संपूर्ण क्षेत्र के 47 प्रतिशत हिस्से में खेती होती है. 1991 की जनगणना के अनुसार 65 प्रतिशत लोग रोजगार के लिए खेती पर निर्भर हैं. ऐसी स्थिति में कृषि एक महत्वपूर्ण घटक है, जिसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन या गिरावट देश की 80 प्रतिशत जनसंख्या को प्रभावित कर सकता है. जलवायु परिवर्तन एक ऐसा ही कारक है जिससे प्रभावित होकर कृषि अपना स्वरूप बदल सकती है तथा इस पर निर्भर लोगों की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है.

कृषि क्षेत्र में बदलती जलवायु के जो संभावित प्रभाव दिखने वाले हैं वह मुख्य रूप से दो प्रकार के दिखाई दे सकते हैं. एक तो क्षेत्र आधारित, दूसरे फसल आधारित अर्थात विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न फसलों पर अथवा एक ही क्षेत्र की प्रत्येक फसल पर अलग-अलग प्रभाव पड़ सकता है.

वर्ष    मौसम       तापमान वृद्धि(से.ग्रे.)         वर्षा में परिवर्तन (प्रतिशत)

                  न्यूनतम     अधिकतम          न्यूनतम  अधिकतम

2020   रबी        1.08     1.54               1.95     4.36

       खरीफ       0.87     1.12                1.81     5.10

2050   रबी        2.54     3.18                3.82      9.22

       खरीफ       1.81     2.37                7.18      10.52

गेहूं और धान हमारे देश की प्रमुख खाद्य फसलें हैं. इनके उत्पादन पर बदलती जलवायु का प्रभाव पड़ता है.

गेहूं के उत्पादन पर प्रभाव

प्रत्येक 1 से.ग्रे. तापमान बढ़ने पर गेहूं का उत्पादन 4-5 करोड़ टन कम होता जाएगा. अगर किसान इसके बुआई का समय सही कर ले तो उत्पादन की गिरावट 1-2 टन कम हो सकती है. अध्ययनों में पाया गया है कि यदि तापमान 2 से.ग्रे. के करीब बढ़ता है तो अधिकांश स्थानों पर गेहूं की उत्पादकता में कमी आएगी. जहां उत्पादकता ज्यादा है (उत्तरी भारत में) वहां कम प्रभाव दिखेगा, जहां कम उत्पादकता है वहां ज्यादा प्रभाव दिखेगा.

भारत में गेहूं को कृषि जलवायु के आधार पर निम्न क्षेत्रों में बांटा गया है

उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्रः यह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है और में पंजाब, हरियाणा, जम्मू, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मैदान शामिल हैं. यहां पर अक्तूबर नवम्बर के अंत में गेहूं रोपा जाता है और सामान्यतया अप्रैल के मध्य तक कटाई आरंभ हो जाती है.

उत्तर-पूर्वी मैदानी क्षेत्रः इस क्षेत्र में पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम, उड़ीसा, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड, मिजोरम, अरूणाचल प्रदेश और सिक्किम आते हैं. चूंकि इस क्षेत्र में में गेहूं के बाद धान की पैदावार होती है, इसलिए गेहूं केवल नवंबर के अंत तक या दिसंबर के आरंभ में बोया जा सकता है. मार्च-अप्रैल तक कटाई हो जाती है.

मध्य क्षेत्रः इस क्षेत्र में मध्य प्रदेश, गुजरात, दक्षिणपूर्वी राजस्थान और उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड क्षेत्र आते हैं. यहां पर होने वाली गेहूं की पैदावार का लगभग 75 प्रतिशत सिंचाई हेतु वर्षा पर निर्भर करती है. उत्तम गुणवत्ता वाला दुरूम गेहूं का उतपादन इसी क्षेत्र में होता है.

प्रायद्वीपीय क्षेत्रः प्रायद्वीपीय क्षेत्र में महाराष्ट्र आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु के दक्षिण राज्य शामिल है. सामान्यतया नवम्बर के आरंभ तक बुवाई हो जाती है और फरवरी के दूसरे भाग में कटाई आरंभ होती है. इस क्षेत्र में गेहूं की पैदावार सबसे पहले होती है.

उत्तरी-पहाड़ी क्षेत्रः इस क्षेत्र में कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम और सिक्किम के पहाड़ी क्षेत्र शामिल हैं. अक्तूबर में गेहूं बोया जाता है और मई जून में काटा जाता है. नवम्बर से मार्च तक के ठंडे महीनों में फसल सुपुप्त रहती है और अप्रैल में तापमान के बढने के साथ बढ़ना शुरू कर देती है.

धान के उत्पादन पर प्रभाव

हमारे देश में कुल फसल उत्पादन में 42.5 प्रतिशत हिस्सा धान की खेती का है.

तापमान वृद्धि के साथ-साथ धान के उत्पादन में गिरावट आने लगेगी.

अनुमान है कि 2 से.ग्रे. तापमान वृद्धि से धान का उत्पादन 0.75 टन प्रति हेक्टेयर कम हो जाएगा.

देश का पूर्वी हिस्सा धान उत्पादन से ज्यादा प्रभावित होगा. अनाज की मात्रा में कमी आ जाएगी.

धान वर्षा आधारित फसल है इसलिए जलवायु परिवर्तन के साथ बाढ़ और सूखे की स्थितियां बढ़ने पर इस फसल का उत्पादन गेहूं की अपेक्षा ज्यादा प्रभावित होगा.

धान एक सर्वव्यापी फसल है और अंटार्कटिका को छोड़कर सभी महाद्वीपों में इसकी खेती की जाती है. 3.83 टन हेक्टेयर के औसत उत्पादन की दर से 150 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में 573 मिलियन टन धान का उत्पादन होता है. एशिया की खाद्य रक्षा के लिए इसका उत्पादन अत्यंत महत्वपूर्ण है, जहां विश्व भर का 90 प्रतिशत धान का उत्पादन होता है और उपभोग किया जाता है. भारत में धान मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और तमिलनाडु आदि में उगाया जाता है. भारत में झारखण्ड राज्य की बहुसंख्यक आबादी का प्रमुख आहार चावल है. इस क्षेत्र में धान 71 प्रतिशत भूमि में उगाया जाता है, परन्तु इसकी उत्पादकता अन्य विकसित राज्यों की तुलना में बहुत कम है. अतः यह आवश्यक है कि उत्पादकता बढ़ाने के लिये धान की उन्नत कृषि तकनीक का ज्ञान किसानों को कराया जाये. धान कि उत्पादकता को प्रभावित करने के विभिन्न कारणों में भूमि के अनुसार किस्मों का चुनाव प्रमुख है. साधारणतया ऊँची जमीन में 80-100 दिनों तक की अवघि वाली किस्म, मध्यम भूमि में 100 दिनों से अधिक एवं 135 दिनों तक की अवघि वाली किस्मों एवं नीची जमीन में 135 दिनों तक की अवघि वाली किस्मों की अनुशंसा की जाती है.

बदलती जलवायु का फसलों पर प्रभाव को कम करने के उपाय

भारतीय कृषि पर बदलती जलवायु से होने वाले प्रभावों को कम करने के लिए अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाने होंगे, जैसे-

फसल उत्पादन हेतु नई तकनीकों का उद्दभव

फसलों के सुरक्षित व समुचित उत्पादन हेतु ऐसी किस्मों की खेती को बढ़ावा देना होगा जो नई फसल प्रणाली व नए मौसम के अनुकूल हो. इसके लिए ऐसी किस्मों को विकसित करना होगा जो अधिक तापमान, सूखा और पानी में डुबाव होने पर भी सफलतापूर्वक उत्पादन कर सकें. आने वाले समय में ऐसी किस्मों की जरूरत होगी जो उर्वरक और सूर्य-विकिरण उपयोग के मामले में अधिक कुशल हों.

लवणीयता और क्षारीयता को सहन करने वाली किस्मों को भी ईजाद करना होगा. अनेक पारम्परिक व प्राचीन प्रजातियां ऐसी मौजूद हैं, उन्हें ढूंढना होगा व उनका संरक्षण करना होगा.

सस्य विधियों में परिवर्तन

नई फसल और नए मौसम के अनुसार हमें बुआई के समय में भी बदलाव लाने होंगे ताकि तापमान का प्रभाव कम हो. फसलों के कैलेंडर में कुछ बदलाव लाकर गर्म मौसम के प्रकोप से बचना व नम मौसम का अधिक उपयोग करना होगा. मिश्रित खेती व एंटरक्रापिंग करके जलवायु परिवर्तन से निपटा जा सकता है. कृषि वानिकी अपनाना जलवायु परिवर्तन की अच्छी काट साबित होगा. यह केवल वातावरण में मौजूद कार्बन को सोखने का काम ही नहीं करेगी वरना इससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ेगी व आर्थिक-सामाजिक लाभ भी प्राप्त होगा.

जल का संरक्षण

तापमान वृद्धि के साथ-साथ धरती पर मौजूद नमी समाप्त होती जाएगी. ऐसे में खेती में नमी का संरक्षण करना और वर्षा जल को एकत्र कर सिंचाई हेतु उपयोग में लाना आवश्यक होगा. जीरो टिलेज या शून्य जुताई जैसी तकनीकों का इस्तेमाल कर पानी के अभाव से निपटा जा सकता है. शून्य जुताई के कारण धान और गेहूं की खेती में पानी की मांग की कमी देखी गई है जबकि उपज में बढ़ोतरी हुई है और उत्पादन लागत 10 प्रतिशत तक कम हो गया है. इससे मिट्टी में जैविक पदार्थों की बढ़ोतरी भी होती है.

इसी प्रकार ऊंची उठी क्यारियों में रोपाई करना भी एक बेहतरीन तकनीक है, जिसमें पानी के उपयोग की क्षमता बढ़ जाती है. जलभराव कम होता है, खरपतवार कम आते हैं, लागत कम लगती है व लाभ ज्यादा होता है.

समग्रित खेती

आज खेती की सबसे बड़ी मांग यही है. बदलती जलवायु के दृष्टिकोण से खेतों में विविधता तथा फसलों के साथ वृक्षों व जानवरों का संयोजन बहुत मायने रखता है. अब तक अनुभवों तथा अध्ययनों में भी यह पाया गया कि जहां समग्रता थी वहां नुकसान का प्रतिशत कम रहा जबकि जहां एकल फसलें अथवा केवल पशुओं पर निर्भरता थी, वहां नुकसान ज्यादा हुआ. खेती में समग्रता किसान को आत्मनिर्भर बनाती है, बाजार पर उसकी निर्भरता कम होती है तथा कठिन समय में भी उसकी खाद्य सुरक्षा बनी रहती है क्योंकि एक अथवा दो गतिविधियों के नुकसान से पूरी प्रक्रिया नष्ट नहीं होती. खेती में समग्रता अर्थात घर-पशुशाला-खेत के बीच उचित सामंजस्य व इनकी एक-दूसरे पर निर्भरता. आज जलवायु परिवर्तन से होने वाले कृषि के नुकसान को कम करने के साथ ही कृषि द्वारा किए जाने वाले गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने में भी समग्र खेती मददगार साबित हो रही है. इस प्रकार जैविक अथवा स्थायी कृषि को अपनाकर कृषि द्वारा होने वाले ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम किया जा सकता है.

बदलती जलवायु से केवल फसलों का उत्पादन ही नहीं प्रभावित होगा वरना उनकी गुणवत्ता पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. अनाज में पोषक तत्वों और प्रोटीन की कमी पाई जाएगी जिसके कारण संतुलित भोजन लेने पर भी मनुष्यों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा और ऐसी कमी की अन्य कृत्रिम विकल्पों से भरपाई करनी पड़ेगी. गंगा तटीय क्षेत्रों में तापमान वृद्धि के कारण अधिकांश फसलों का उत्पादन घटेगा.

लेखक:

राजन चौधरी1, डा० सीता राम मिश्र1’, डा० नितीश कुमार1’

शोध छात्र1, सहायक अध्यापक

मो0 नं0- 07376930497, 09984702084

कृषि मौसम विज्ञान विभाग1

न. दे. कृषि एवं प्रौ. विश्वविद्यालय कुमारगंज, फैजाबाद (उ. प्र.) 224229

English Summary: Farmers who cultivate this crop in the future may be affected, the impact on the impact of the changing climate.
Published on: 28 September 2018, 04:49 AM IST

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