बेलवाली सब्जियां जैसे लौकी, तोरई, करेला आदि में लौकी का प्रमुख स्थान है इसकी खेती मैदानी भागों में फरवरी-मार्च व जून-जुलाई में की जा सकती हैं. लौकी की अगेती खेती जो अधिक आमदनी देती है, उसे करने के लिए पॉली हाउस तकनीक में सर्दियों के मौसम में भी नर्सरी तैयार करके की जा सकती है. पहले इसकी पौध तैयार की जाती है और फिर मुख्य खेत में जड़ों को बिना क्षति पहुंचाए रोपण किया जाता है. इसके हरे फलों से सब्जी के अलावा मिठाइया, रायता, कोफते, खीर आदि बनायें जाते हैं.
जलवायु
लौकी की खेती के लिए गर्म एवं आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है. इसकी खेती करने के लिए गर्मी और बरसात दोनों का मौसम उत्तम रहता है. बिज अंकुरण के लिय 30-35 डिग्री सेल्सियस तापमान और पौधों की बढ़वार के लिए 28-32 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त रहता है.
भूमि एवं भूमि की तैयारी
इसकी खेती के लिए अच्छी जल धारण क्षमता वाली जीवांश्म युक्त हल्की दोमट भुमि सर्वोत्तम रहती है एवं जिनका पीएच मान 6-7 हो तो उत्तम रहती हैं. खेत की तैयारी हेतु सर्वप्रथम पलेवा देकर , एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करके तथा 2-4 बार हैरो या देशी हल से खेत की गहरी जुताई कर मिट्टी को बारीक वं भुरभुरी कर लेना चाहिए, साथ-साथ पाटा लगाकर मिट्टी को समतल व बारीक करना चाहिए, जिससे नमी का उचित संरक्षण भी होता हैं.
किस्में
काशी बहार, अर्का बहार, पूसा समर प्रोलिफिक राउन्ड, पुसा समर प्रोलेफिक लाग, कोयम्बटूर1, नरेंद्र रश्मि, पूसा संदेश, पूसा नवीन एवं पंजाब कोमल
खाद एवं उर्वरक
फसल की बुवाई के एक माह पूर्व गोबर की खाद 200-250 क्विंटल को समान रूप से टैक्टर या बखर या मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई कर देनी चाहिए. नाइट्रोजन की आधी मात्राए फॉस्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा का मि़श्रण बनाकर अंतिम जुताई के समय भूमि में डालना चाहिए. नत्रजन की शेष मात्रा को दो बराबर भागों में बांटकर दो बार में 4-5 पत्तिया निकल आने पर और फुल निकलते समय उपरिवेशन (टॅाप ड्रेसिंग) द्वारा पौधो की चारों देनी चाहिए. इसके लिय नत्रजन, सल्फर वं पोटाश की क्रमशः 80 कि.ग्रा. 40 कि.ग्रा.वं 40 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर की दर से मिट्टी में देना चाहिए.
बीजों की बुवाई
सीधे खेत में बोन के लिए बीजों को बुवाई से पूर्व 24 घंटे पानी में भिगोने के बाद टाट में बांध कर 24 घंटे रखते है. उपयुक्त तापक्रम पर रखने से बीजों की अंकुरण प्रक्रिया गतिशील हो जाती है इसके बाद बीजों को खेत में बोया जा सकता है. इससे अंकुरण प्रतिशत बढ़ जाता है. लौकी के बीजों के लिए, 2-5 से 3-5 मीटर की दूरी पर 50 सेंटीमीटर चैड़ी व 20 से 25 सेंटीमीटर गहरी नालियां बनानी चाहिए. इन नालियों के दोनों किनारे पर गर्मी में 60 से 75 सेंटीमीटर के फासले पर बीजों की बुवाई करनी चाहिए. एक जगह पर 2 से 3 बीज 4 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए.
बीज की मात्रा
4-5 की.ग्रा. प्रति हेक्टेयर
सिंचाई
ग्रीष्मकालीन फसल के लिए 4-5 दिन के अंतर सिंचाई की आवश्यकता होती है जबकि वर्षाकालीन फसल के लिए सिंचाई की आवश्यकता वर्षा न होने पर पडती है. जाड़े मे 10 से 15 दिन के अंतर पर सिंचाई करना चाहिए.
निराई गुड़ाई
लौकी की फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते है. अत इनकी रोकथाम के लिए जनवरी से मार्च वाली फसल में 2 से 3 बार और जून से जुलाई वाली फसल में 3 - 4 बार निराई गुड़ाई करें.
तुडाई
फलों की तुड़ाई मुलायम अगस्त में करते है. फलों को पूर्ण विकसित होने पर कोमल अवस्था में किसी तेज चाकू से पौधे से अलग करना चाहिए.
उपज
प्रति हेक्टेयर जून‐जुलाई और जनवरी ‐ मार्च वाली फसलों में क्रमश 200-250 क्विंटल और 100 से 150 क्विंटल उपज मिल जाती है.
मुख्य किट एवं रोग
लाल भृंग
यह किट लाल रंग का होता हैं तथा अंकुरित एवं नई पतियों को खाकर छलनी कर देता हैं. इसके प्रकोप से कई बार लौकी की पूरी फसल नष्ट हो जाती हैं.
रोग नियंत्रण
नियंत्रण हेतु कार्बोरील 5 प्रतिशत चूर्ण का 20 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करे या एसीफेट 75 एस. पी. आधा ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़के एवं 15 दिन के अंतर पर दोहरावे.
एन्थ्रेक्नोज
यह रोग कोलेटोट्राईकम स्पीसीज के कारण होता है इस रोग के कारण पत्तियों और फलो पर लाल काले धब्बे बन जाते है ये धब्बे बाद में आपस में मिल जाते है यह रोग बीज द्वारा फैलता है.
रोकथाम
बीज क बोने से पूर्व गौमूत्र या कैरोसिन या नीम का तेल के साथ उपचारित करना चाहिए.