खरीफ फसलों में धान, मक्का, मूंगफली, अरहर, मूंग और गन्ना प्रमुख फसल है. इस समय लगातार हो रही बारिश और तापमान में हो रहे बदलाव के कारण फसलों का विकास सही तरीके से नहीं हो पा रहा है. ऐसे में पौधों में कीट, रोग और खरपतवार लगने की समस्याएं बढ़ने लगती हैं. ऐसे में इस बढ़ते प्रकोप से फसलों का बचाव और प्रबन्धन जरुरी होता है.
पत्ती झुलसा रोग
खरीफ की फसलों में छोटी अवस्था से लेकर परिपक्व होने तक यह रोग लगन की संभावना रहती है. इस रोग में पत्तियों में किनारे उपरी भाग से मध्य तक रोग लगने लगता है और धीर-धीरे पौधे का पूरा भाग सूखने लगता है. सूखे पत्तों पर काले रंग के चकत्ते दिखाई पड़ने लगते हैं. इस रोग से धान की बालियां दानारहित रह जाती है. इस पत्ती झुलसा रोग से नियंत्रण के लिए 74 ग्राम एग्रीमाइसीन को100 से 500 ग्राम काँपर आँक्सीक्लोराइड और लगभग 500 लीटर पानी में घोल कर खेत में छिड़काव करना चाहिए. इसका छिड़काव आप प्रति हैक्टेयर की दर से 3 से 4 बार कर सकते हैं.
ब्लास्ट रोग
यह एक फफूंद रोग है. इसे आम भाषा मे झोंका के नाम से जाना जाता है. यह रोग पौधे के किसी भी भाग में लग सकता है. इस रोग में पत्ती पर भूरे धब्बे औ कत्थई रंग का दाग लग जाता है, जिस कारण पौधे की बालियों का आधार ऊपर से मुड़ जाता है और इसमें दाने भी लगने लगते हैं.
झोंका या ब्लास्ट रोग के नियत्रण के लिए फसलों की रोपाई देर से न करें. इसके बीज को कार्बेन्डाजिम से बीजोपचार करना चाहिए. इस रोग के नियंत्रण के लिए कार्बेन्डाजिम फफूंदीनाशी को 500 ग्राम और ट्राइसायक्लेजोल या एडीफेनफाँस को 500 मि.ली. और हेक्साकोनाजोल के एक लीटर घोल को तैयार कर खेतों में छिड़काव करना चाहिए.
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जीवाणु पर्ण अंगमारी रोग
यह रोग फसलों में जीवाणुओ द्वारा होता है. यह रोग पौधों की छोटी अवस्था से लेकर परिपक्व अवस्था तक किसी भी समय हो सकता है. यह रोग पौधों की पत्तियों को पीला कर देता है. पत्तों इन जीवाणुओं के कारण उस पर छोटी–छोटी बूंदे नजर आती है और यह सूखकर शिथिल हो जाती है. खेतों में रोग को फैलने से बचाने के लिए खेत से अच्छी जल निकासी की व्यवस्था होनी चाहिए. इसके नियंत्रण के लिए पौधे पर 74 ग्राम एग्रीमाइसीन और 100 ग्राम काँपर आँक्सीक्लोराइड को 500 लीटर पानी में घोलकर फिर प्रति हैक्टेयर की दर से फसल पर तीन–चार बार छिडकाव करे. इस छिड़काव को 10 से 15 दिन के अंतराल पर करते रहना चाहिेए.
गुतान झुलसा
यह एक फफूंद रोग है. यह भी पौधें की पत्तियों को ही खराब करता है. पत्तियों पर 2 से 3 से.मी. के लंबे और भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं, जो बाद में चलकर भूरे रंग के हो जाते हैंं. इस रोग को नियंत्रण करने के लिए ट्राईकोडर्मा विरिडी को 5 से 10 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए. इसके अलावा कार्बेन्डाजिम (500 ग्राम) और थायोफिनेट मिथाइल, मैंकोजेब प्रोपिकोनाजोल को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से फसलों पर छिड़काव करना चाहिए.
बकानी रोग
इस बकानी रोग में पत्तियों बहुत कमजोर हो जाती हैं और पौधे का तना असामान्य रूप से बढ़ने लगता है. जब फसल परिपक्व होने वाली होती है तो इस कवक का अटैक पौधों पर होता है. इन संक्रमित पौधे में टिलर्स की संख्या कम होती है और कुछ सप्ताह के बाद यह पौधे के तने से ऊपर की ओर एक के बाद दूसरी सभी पत्तियां में लगने लगते हैं,जिससे पत्तियां सूख जाती हैं. इस रोग के नियंत्रण के लिए कार्बेन्डाजिम को घोल कर बीजों को 24 घंटे के लिए भिगो दिया जाता है. इन अंकुरित बीजों को नर्सरी में बीजाई की जा सकती है.
खैरा रोग
यह रोग मिट्टीमें जिंक की कमी से होता है. खैरा रोग के कारण पौधों पक छोटे–छोटे पैच दिखाई देते हैं और इनकी पत्तियों पर हल्के पीले रंगे के धब्बे बन जाते हैं. जिस कारण पत्तियां मुरझा जाती हैं और पौधों की लंबाई रुक जाती है. प्रभावित पौधों की जड़ें भी कत्थई हो जाती हैं. इस रोग से बचाव के लिए जिंक सल्फेट का छिड़काव खेतों में करना चाहिए.
दीमक
यह कीट पौधों की जड़ो में लगता है और धीरे-धीरे पूरे पेड़ को अंदर से खोखला कर देता है. इससे पौधे की जड़े कमजोर हो जाती हैं. इससे बचाव के लिए मिट्टी की अच्छे से जुताई करनी चाहिए और नीम युक्त जैविक खाद का छिड़काव करना चाहिए.