बाकला प्राचीन काल से उगाई जाने वाली एक प्रमुख्य आर्थिक महत्व की सूक्ष्म दलहनी सब्जी है. बाकला को फावा बीन, हॉर्स बीन, आदि नामो से भी जाना जाता है. बाकला का बीज प्रोटीन (24 %–32%) का प्रमुख्य स्त्रोत है. जिसके के कारण इसका खाद्य के रूप में बड़ा महत्व है. बाकला की हरी फलियों को उपयोग सब्जी व कच्ची खाने में किया जाता है. इसके सूखे बीजो को दाल बनाने में उपयोग में लिया जाता है. बाकला को प्रमुख्य रूप से भारत में उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में उगया जाता है. एफ.ए.ओ 2019 के अनुसार भारत में बाकला का 94430 फेडन क्षेत्र है तथा 98132 टन उत्पादन है.
जलवायु (Climate):
बाकला एक शरद ऋतु में उगाई जाने वाली फलीदार सब्जी है. जिसके लिए शरद ऋतु में ट्रॉपिकल जलवायु की आवश्यकता होती है जबकि गर्मियों में टेम्पेरेट जलवायु की आवश्यकता होती है तथा 20 ℃ तापमान वृद्धि एवं विकास के लिए बहुत उपयुक्त रहता है. बाकला पाला के प्रति अन्य दलहनी फसलों की अपेक्षा सहनशील होती है.
मृदा (Soil):
बाकला का अच्छा उत्पादन के लिए मृदा अच्छी जलनिकास वाली होना बहुत आवश्यक होता है. लोम (Loam) मृदा जिसका PH मान 6.5 – 7.5 के बीच हो बाकला की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है.
किस्में:
1. BR–1 : इस किस्म के बीज काले रंग के होते है.
2. BR –2 : इस किस्म के बीज पीले रंग के होते है.
3. पूसा सुमित
4. पूसा उदित
5. जवाहार विसिया 73 – 81
बुवाई का समय, बीज दर एवं बुवाई की विधि :
बाकला एक शरद ऋतु की फसल है जिसके बीज की बुवाई 25 ऑक्टोबर से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक की जा सकती है. बाकला का उत्पादन एक हैक्टयर में लेने के लिए 70 – 100 कि. ग्रा. बीज की आवश्यकता होती है.
इस फसल के बीजो की बुवाई समतल या उथली हुई क्यारियो में की जा सकती है. उथली हुई क्यारियो में बीज की बुवाई करने के लिए बीज को 45 X 15 से.मी. या 75 X 25 से.मी. पर बोया जाता है.
खाद एवं उर्वरक:
बाकला के बम्पर उत्पादन के लिए मृदा की तैयारी के समय 10 –15 टन अच्छी सड़ी गली खाद का प्रयोग करना चाहिए. उर्वरक का प्रयोग भी बुवाई के पहले 20 kg N, 50 kg P2O5, एवं 40 kg K2O अनुशंसित मात्रा का प्रयोग करना चाहिए.
सिंचाई:
बाकला की वृद्धि एवं विकास के लिए जल की बहुत ज्यादा आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि यह शरद ऋतु में प्रमुख्य रूप से उगाई जाती है. फिर भी बुवाई के समय मृदा में नमी नही होने पर बुवाई के तुरंत बाद सिंचाई करना बहुत ही आवश्यक होता है. सामान्यतयः बाकला में 10 – 15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करना उचित रहता है.
सहारा (Staking) प्रदान करना:
बाकला लम्बी बढ़ने वाली व सीधी तने वाली फसल है जिस कारण से फसल के गिरने की संभावना रहती है. इसी समश्या को देखते हुए सहारा प्रदान करना आवश्यक होता है.
खरपतवार नियंत्रण :
फसल की वृद्धि एवं विकास सही से हो जिसके लिए आवश्यक है कि पौधों को पोषक तत्व उचित एवं सही से प्राप्त हो के लिए खरपतवार नियंत्रण बहुत जरुरी है. बाकला में रबी ऋतु के खरपतबर निरंतर अंतराल पर निकाल ना बहुत ही आवश्यक है.
कीट एवं रोग:
कीट:
1.एफिस फैबाई:
यह एक प्रमुख्य कीट है जो पत्तियों, तनो एवं फलियों का रस चूशता है जिसे पौधा कमजोर होने लगता है और उत्पादन भी कम होने लगता है. इस कीट के नियंत्रण के लिए सिस्टमिक इंसेक्टिसाइड जैसे मेटासिस्टोक 0.3% का छिड़काव करना चाहिए.
रोग:
बोट्रिटिस फैबाई
यह एक प्रमुख रोग है बाकला का जो फंगस के द्वारा होता है. इस रोग में पत्तियों का हास्य होने लगता है, जिससे फोटोसिंथेसिस क्रिया सुचारू रूप से नही हो पाती जिसके कारण पौधो भी भोजन बनाने में असमर्थ रहते हैं और उत्पादन भी कम होने लगता है. इस रोग को नियंत्रण के लिए बाकला की अगेती बुवाई करें, क्योंकि ऐसा करने से रोग का प्रकोप कम हो जाता है. तथा फंगीसाइड का फोलियार स्प्रे करना बहुत प्रभाबी रहता है.
रस्ट
यह रोग का प्रकोप maturity के समय होता है इस रोग में पत्तियों पर छोटे छोटे ऑरेंज रंग कद धब्बे दिखाई देते है.
पैरासाइट्स
ओरोबांची क्रीनाटा (ब्रूमराप) पैरासाइट यूरोप एवं नार्थ अफ्रीका में बाकला की फसल को बहुत नुकसान पहुंचाता है जिससे उपज भी कम हो जाती है
कटाई:
बाकला की हरी फलियां बुवाई के 3–4 माह बाद कटाई के लिए प्राप्त होने लगती है. बाकला की फलियों की कटाई कम अंतराल पर निरंतर की जानी चाहिए.
उपज
बाकला की हरी फलियों की औसत उपज 7 – 10 टन प्रति हैक्टयर प्राप्त हो सकती है.
लेखक: राजवीर सिंह कटोरिया1 – पीएचडी रिसर्च स्कालर (सब्ज़ी विज्ञान) कृषि महाविद्यालय, ग्वालियर (म.प्र.)
डॉ. राजेश लेखी2 - प्रोफ़ेसर (हॉर्टिकल्चर) कृषि महाविद्यालय, ग्वालियर (म.प्र.)
डॉ. करणवीर सिंह3 - सीनियर साइंटिस्ट (हॉर्टिकल्चर) KVK लहार, भिण्ड (म.प्र.)
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