देश में बड़े-बड़े उद्योग लग रहें हैं, सड़कों पर काम किया जा रहा है, शहरों में गगनचुम्बी इमारतें विकास की गवाही दे रही हैं. मॉल, कंप्यूटर, टीवी और 4जी फोन लिए युवा चीख-चीख कर मानों कह रहे हो कि देश मॉडर्न और ग्लोबल हो गया है. लेकिन अपना खून-पसीना बहाकर देश की अर्थव्यवस्था को सदैव गति देने वाले हमारे किसान भाई आज़ादी के 70 सालों बाद भी दयनीय हालातों में जीवन व्यतीत कर रहे हैं. उसके बच्चें भूखे पेट सो रहे हैं, उसकी जमीनें और मेवेशी गिरवी हैं और वह कर्ज की बोझ से जवानी में ही बूढ़ा होता जा रहा है.
यह बात जग जाहीर है कि देश की अर्थव्यव्सथा में 18 प्रतिशत तक जीडीपी का योगदान करने वाला क्षेत्र कृषि सदैव उपेक्षित ही रहा. हां यह जरूर है कि एक के बाद एक सरकारों ने किसानों को लेकर तरह-तरह के बातें किए, नारे दिए, चुनाव लड़े और जीते तथा कागजी घोड़ें दौड़ाने के बाद अपनी उपलब्धियों के पुल बांध लिए. लेकिन धरातल की सच्चाई सहर्ष यह बात स्वीकार करती है कि किसानों को कतरा-कतरा खेती पर निछावर करने के बदले में कुछ नहीं मिला.
भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा सब्जी एवं फल उत्पादन करने वाला देश है, लेकिन क्या यह बात कुछ अजीब नहीं कि 50 प्रतिशत से अधिक की आबादी जो खेती कर रही है वो कभी पंखे से लटककर आत्महत्या कर रही है, तो कभी पेस्टीसिड्स पीकर अपने जीवन का अंत कर ले रही है.
आंकड़ों की माने तो भारत में लगभग हर साल एक लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या करते हैं. दो मिनट के लिए अगर हम यह बात मान भी लेते हैं कि राजनैतिक हितों को साधने के लिए आंकड़ों में परिर्वतन किए गए हैं, लेकिन इस सच्चाई को कैसे नकारेंगें कि नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो ऑफ़ इंडिया खुद यह बात मानती है कि 1995 से लेकर अब तक लगभग तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं. किसान प्रधान देश होने के नाते 'जय जवान, जय किसान' का नारा हम खुशी के साथ बोलकर खुद को देश भक्त बता सकते हैं, लेकिन क्या हमने कभी ध्यान दिया है कि हमारे किसान भाई किन परिस्थितियों में खेती कर रहे है.
सरकार लाख चाहे डंके की चोट पर यह बात कह ले कि हमने खेती को खुशहाल बना दिया लेकिन सच यह है कि छोटे किसानों के पास आज भी अच्छे बीज नहीं पहुंचें हैं और इरीगेशन के लिए मुख्य तौर पर वह आज भी वर्षा के जल पर ही निर्भर है. इतना ही नहीं सदियों से हो रही खेती के कारण भारत की मिटटी अपनी उर्वरता खो चुकी है और पहले के मुकाबले सर्जन के लायक नहीं रही है. ऐसे में किसान को खाद या फर्टिलाइजर की जरूरत पड़ती है और वह बाजार की तरफ भागता है. अब बाज़ार में बड़ी-बड़ी कंपनियां जो उसे मोटे दामों पर फर्टिलाइजर या खाद देती है, वह आगे चलकर जहां फसलों को विषाक्त बनाने का काम करती है, वहीं मिट्टी की उर्वरकता समाप्त कर देती है.
किसान आज दो धारी तलवार की मार झेल रहा है. एक तरफ वो मृदा अपरदन, मशीनों के अभाव, पूंजी की कमी, खराब मौसम का मारा है, वहीं दूसरी तरफ सामाजिक कारक भी हैं. जैसे- पुरानी बीमारी, बेटियों की शादी, दहेज, संपत्ति विवाद आदि. केंद्र एवं राज्य सरकारों के कृषि मंत्रालय में हजारों पद रिक्त पड़े हुए हैं, जो थोड़ा बहुत काम हो भी रहा है, तो उसमे बिचौलियों की चांदी है. ऐसे में सवाल यह है कि क्या दुबारी बहुमत से चुनी हुई मोदी सरकार किसानों का कुछ भला कर सकती है. यह सवाल गंभीर है. क्योंकि, केंद्र के साथ-साथ अधिकतर राज्यों में भी बीजेपी सत्ता में है और अगर किसान अभी भी पहले की तरह आत्महत्या करते रहे तो इस देश के भविष्य का फिर भगवान ही मालिक है.