बिहार की मधुबनी पेंटिंग की चमक आज पूरे विश्व में प्रकाशित हो रही है. बिहार के दरभंगा, पूर्णिया, सहरसा, मुजफ्फरपुर में इस पेंटिंग का अपना विशेष महत्व है. हर घरों की दिवारों पर, कपड़ों पर मधुबनी पेंटिंग को देखा जा सकता है. दरअसल मधुबनी पेंटिंग की शुरुआत रंगोली से ही हुई है फिर धीरे-धीरे ये दिवारों पर की जानी लगी; और आज के दौर में ये पेंटिंग इतनी मशहूर हो चुकी है कि ये सिर्फ कुछ जिलों तक ही सिमट कर नहीं है, बल्कि आज इस पेंटिंग की पहचान वैश्विक स्तर पर है. अब तो इस पेंटिंग को GI TAG भी मिल चुका है.जिससे यहां के कलाकरों को भी एक नई पहचान मिली है.
मधुबनी पेंटिंग को लेकर ये मान्यता है कि इसकी शुरुआत राम जी के विवाह के समय से हुई. कहा जाता है कि मिथिला के राजा जनक ने अपनी बेटी सीता के विवाह के अवसर पर मिथिला पेंटिंग से अपने पूरे नगर को सजवाया था. इसलिए आज भी इस पेंटिंग की ये खासियत है कि इसका थीम सीता-विवाह का ही होता है. ऐसे में आइए जानते हैं मधुबनी पेंटिंग के बारे में कुछ रोचक बातें-
मधुबनी पेंटिंग की शुरुआत
प्राचीन समय में ये क्षेत्र मिथिलांचल के नाम से जाना जाता था, इस क्षेत्र के नरेश राजा जनक हुआ करते थे. उनकी बेटी सीता थी जिनका विवाह श्रीरामचंद्र जी से हुआ. ऐसी मान्यता है कि अपनी बेटी की शादी की खुशी में मिथिला नरेश ने अपने नगर को रंगोली से सजवाया था. उस वक्त से ही इस पेंटिग की शुरुआत हुई. मिथिला क्षेत्र में होने वाली इस पेंटिंग को मिथिला पेंटिंग भी कहते है. इस पेंटिंग में सीता-राम विवाह, देवी-देवताओँ या पौराणिक कथाओँ की ही झांकियां देखने को आज भी मिलती है.
आपको बता दें कि मिथिला पेंटिंग को 1934 से पहले तक महज एक क्षेत्र का लोककला ही माना जाता था. लेकिन 1934 के आस-पास मिथिलांचल मे जोरदार भूकंप आया था. उसके बाद इस पेंटिंग की पहचान मिथिला से निकल कर वैश्विक स्तर तक फैल गई. कहा जाता है कि उस आए भूकंप में हुई क्षति का मुआयना करने ब्रिटिश ऑफिसर विलियम आर्चर आए थे. तब उन्होंने वहां मिथिला पेंटिंग को देखा और उसकी खूब प्रशंसा की. साथ ही पेंटिंग्स की फोटाग्राफ्स भी ली. इतना ही नहीं ब्रिटिश ऑफिसर ने अपने एक लेख “मार्ग” में मधुबनी पेंटिंग की खासियत को लिखा. जिसकी वजह से मधुबनी पेंटिग को उसी समय से वैश्विक पहचान मिलनी शुरु हो गई.
मधुबनी पेंटिंग की खासियत
बिहार की वैश्विक पेंटिंग मधुबनी पेंटिंग अन्य चित्रकारियों से काफी अलग है. पारंपरिक तरिके से ये पेटिंग आज भी होती है. इसमें जो रंगों का प्रयोग किया जाता है वो पूरी तरह से स्वनिर्मित होता है. यहां की महिलाएं पेंटिंग करने के लिए खुद रंगों को बनाती हैं. जैसे- पीले रंग के लिए हल्दी, हरे रंग के लिए केले के पत्ते, लाल रंग के पीले पीपल के छाल, सफेद रंग के लिए चुने का प्रयोग किया जाता है. साथ ही साथ हम आपको बता दें कि इस पेंटिंग की एक और महत्वपूर्ण बात है कि इस पेंटिंग को बनाने के लिए आज भी माचिस की तिली या बांस की कलम का उपयोग किया जाता है, रंगों की पकड़ बनाए रखने के लिए बबूल के गोंद का उपयोग किया जाता है.
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मधुबनी पेंटिग की महान विभूतियां
मघुबनी पेंटिग को एक विशेष पहचान दिलाने में वैसे तो कई कलाकार हैं जिनकी रचनात्मकता को भूलाया नहीं जा सकता. लेकिन मधुबनी पेंटिंग को अधिकारिक तौर पर पहचान तब मिली जब 1969 में बिहार सरकार द्वारा सीता देवी को मधुबनी पेंटिंग के लिए सम्मानित किया गया. साथ ही साथ सीता देवी को मधुबनी पेंटिंग के लिए बिहार रत्न सम्मान व शिल्प गुरु सम्मान देकर नवाजा गया. उसके बाद 1975 में जगदंबा देवी को मधुबनी पेंटिंग के लिए पदम श्री सम्मान से सम्मानित किया गया. मिथिलांचल की बउआ देवी कोसाल को 1984 में नेशनल अवार्ड एवं 2017 में इन्हें पदम श्री सम्मान से सम्मानिक किया गया. वैसे और कई नाम हैं जिनाका योगदान काफी ही सराहनीय रहा है. जिसकी वजह से आज मधुबनी पेंटिंग को एक अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिली है.