भारत एक कृषि प्रधान विकासशील देश है जिसमें महिलाओं का योगदान बहुमूल्य है। महिला कृषक भारतीय पारिवारिक पद्धति एवं भारतीय कृषि विशेषकर पर्वतीय कृषि की रीढ़रज्जु है। कृषि में महिलाओं के योगदान व इसकी सीमा विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न है। लेकिन इन असमानताओं के बावजूद, कृषि में जुताई कार्य को छोड़कर कोई ऐसा कार्य नहीं है जिसमें महिलाएं सक्रिय रूप से शामिल ना हों। कृषि संबंधित कुछ कार्य जैसे प्रसंस्करण व भंडारण में महिलाएं प्रमुख रूप से कार्यरत हैं। लगभग 60 प्रतिशत कृषि कार्य जैसे बीज की बुवाई, पौधों की रोपाई, विनोइंग अनाज भंडारण आदि मुख्यतः महिलाओं द्वारा ही किये जाते है। कृषि कार्य व पशुपालन एक दूसरे के पूरक हैं और ज्यादातर ये साथ-साथ किये जाते हैं। पशुपालन से संबंधित सभी कार्य जैसे पशुओं के लिए चारा काटना व खिलाना, दूध दोहना, पशुओं व पशुशाला की सफाई आदि महिलाओं द्वारा किये जाते हैं। इसी तरह से जमीन/मिट्टी तैयार करना, फसलों की पक्षियों व जानवरों से सुरक्षा, फसल कटाई आदि भी मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा स्वंय किये जाते हैं। कृषि में महिलाओं द्वारा किये गये योगदान को देखते हुए पिछले शोध कार्यों पर एक अध्ययन किया गया जिसका सारांश नीचे दिया गया है।
कृषि कार्य में महिलाओं की भूमिका- अधिकांश महिलाएं फसल व बीज की किस्म का चुनाव करने के निर्णय में शामिल नहीं होती हैं क्योंकि निर्णय लेना पुरूष प्रधान कार्य माना जाता है। (मंजरी 2014, सिरोही 1996)। बीज बोने से पहले खेत तैयार करने का कार्य सामान्यतः महिलाओं द्वारा नहीं किया जाता है। इसमें ज्यादा शारीरिक शक्ति की आवश्यकता होती है इसलिए ऐसा माना जाता है कि इसे महिलांए नहीं कर सकती हैं। इसके अलावा भारतीय समाज में महिलाओं द्वारा जुताई प्रचलित नहीं हैं। (मंजरी 2014)। इसके विपरीत महिलाएं भूमि तैयार करने से संबंधित कार्य में 57.56 मानव दिन/वर्ष व्यतीत करती हैं जबकि पुरूष इन कार्यो में केवल 33.99 मानव दिन/वर्ष लगाते हैं (कुमार एवं अन्य 2011)। जबकि पौधारोपण/बुवाई के लिए महिलाओं व पुरूषों द्वारा क्रमशः 12.75 व 9.11 मानव दिन/वर्ष समय दिया जाता है। इन्टरकल्चरल कार्यों व फसल कटाई के लिए क्रमशः 15.03 मानव दिन/वर्ष व 2.23 मानव दिन/वर्ष पुरूषों द्वारा किये जाते हैं। दूसरी ओर इन कार्यों के लिए महिलाएं क्रमशः 23.67 व 13.61 मानव दिन/वर्ष व्यतीत करती हैं। फसल कटाई उपरान्त कार्यों में महिलाओं व पुरूषों द्वारा क्रमशः 4.18 व 2.45 मानव दिन/वर्ष लगाये गये। कृषि सिंचाई, फसल सुरक्षा एवं विपणन के संदर्भ में पुरूषों ने अकेले क्रमशः 11.98, 12.14 व 21.35 मानव दिन/वर्ष लगाये जबकि महिलाओं का इन कार्यों में कोई योगदान नहीं पाया गया।
प्रतिशत महिलाओं ने खेत स्वयं तैयार किया जबकि 23 प्रतिशत महिलाओं ने इस कार्य को परिवार के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर किया मंजरी (2014)। खेतों में खाद छिड़काव के कार्य को 40 प्रतिशत से ज्यादा महिलाओं ने पुरूषों के साथ मिलकर किया जबकि एक चौथाई महिलाओं ने इसे स्वयं किया। मंजरी 2014। बुवाई व पौधारोपण 86 व 68 प्रतिशत महिलाओं द्वारा स्वयं किया गया क्योंकि ये कार्य महिलाप्रधान माने गये हैं। (मंजरी 2014, सिरोही 1996)। कुछ कृषि कार्य जैसे खरपतवार निकालना, 70 प्रतिशत महिलाओं द्वारा स्वयं किये जाते हैं। केवल 13 प्रतिशत मामलों में ये कार्य परिवार के पुरूष सदस्यों द्वारा किये जाते हैं। (मंजरी 2014)। जहाँ तक इन्टरकल्चरल कार्यों की बात है, महिलांए इन्हें स्वयं करती हैं। (मंजरी 2014)। अग्रवाल (1993) के अनुसार, खरपतवार निकालने में 70 प्रतिशत से ज्यादा महिलांए शामिल थीं। उन्होंने बताया कि खरपतवार निकालने हेतु इस्तेमाल किये जाना वाला उपकरण/कृषि यंत्र का उपयोग करने से कंधे, हाथों में दर्द व कमर दर्द में काफी कमी महसूस की गयी। उन्नत यंत्र/उपकरण से खड़े रहकर भी काम किया जा सकता है। ट्विन व्हीलों से काम करने से शरीर गतिमान रहता है। इसका उपयोग करने से माडरेट थकावट पायी गयी। (शर्मा व अन्य 2011)
खेतों में सिंचाई के समय केवल 15 प्रतिशत महिलाओं ने पुरूषों के साथ काम किया। लगभग 85 प्रतिशत मामलों में पुरूषों ने यह कार्य स्वयं किया। पौधों की सुरक्षा के संबंध में यह पाया गया कि स्प्रे के लिए दवा तैयार करने में जो कि कुछ तकनीकी कार्य हैं, महिलाओं की भागीदारी नगण्य थी। हांलाकि 42 प्रतिशत मामलों में उन्होंने पुरूषों के साथ मिलकर यह कार्य किया मंजरी (2014)। इसी प्रकार रासायनिक खादों का छिड़काव भी ज्यादातर पुरूषों द्वारा ही किया जाता है। पौधों की सुरक्षा में महिलाओं की कम भूमिका का एक कारण सामाजिक सोच है जिसमें यह माना गया है कि महिलाओं में तकनीकी ज्ञान की कमी होती है। इसके अतिरिक्त, महिलाओं द्वारा खादों व कीटनाशकों का उपयोग खतरनाक हो सकता है। मंजरी 2014। पक्षियों व जानवरों से फसलों की सुरक्षा 53 प्रतिशत महिलाएं स्वयं कर रही हैं जबकि 32 प्रतिशत मामलों में यह कार्य पुरूषों द्वारा किया जाता है। मंजरी (2014)। फसल कटाई में 80 प्रतिशत महिलाएं अकेले या संगठित रूप से शामिल हैं। माथुर (1990) ने यह निष्कर्ष निकाला कि फसल कटाई मुख्य रूप से महिलाओं का कार्य है एवं इसे परिवार के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर किया जाता है। मंजरी (2014) कृषि उत्पादों के विपणन संबंधित कार्य में महिलाओं की प्रत्यक्ष रूप से कोई भूमिका नहीं पायी गयी।
कृषि में ड्रजरी- कृषि कार्य महिलाओं के लिए जोखिम भरे हैं। महिलाओं द्वारा किये गये विभिन्न कार्य जोखिम भरे हैं। महिलाओं द्वारा किये गये विभिन्न कार्यों के ड्रजरी सूचकांक के आधार पर, ड्रजरी वाले कार्यों को पहचाना गया है। भूमिहीन किसानों के संदर्भ में ’अनाज को धूप में सुखाना’ सबसे ज्यादा ड्रजरीयुक्त कार्य पाया गया। इसका ड्रजरी सूचकांक भूमिहीन किसानों के लिए 40.5 है व सीमान्त किसानों के लिए 40.2 है। पौधारोपण से पहले पौध उखाड़ना भी दूसरा ड्रजरीयुक्त कार्य देखा गया जिसका सूचकांक भूमिहीन (39.5) व सीमान्त किसानों के लिए 39.3 है। पौधारोपण ड्रजरी के संदर्भ में तीसरे स्थान पर है। औसत भूमि क्षेत्रफल वाले किसानों में भंडारण (ड्रजरी सूचकांक 42.93) व विनोइंग (ड्रजरी सूचकांक 40.90) का ड्रजरी सूचकांक क्रमशः प्रथम व द्वितीय स्तर पर पाये गये जबकि ज्यादा क्षेत्रफल वाले किसानों में विनोइंग (सूचकांक 49.8) सबसे ज्यादा ड्रजरीयुक्त कार्य पाया गया। इसके बाद भंडारण (49.5) व छानना (45.2) भी ड्रजरी वाले कार्य थे। इसके विपरीत सिंह व वर्मा (1988) ने यह दर्शाया है कि ग्रामीण हरियाणा में कीटनाशकों का छिड़काव सबसे ज्यादा ड्रजरी युक्त कार्य है। उसके बाद फसल कटाई व सिर पर बोझ ढोना भी ड्रजरी से भरा कार्य है। वीडिंग (घास निकालना), सिंचाई कार्य का ड्रजरी सूचकांक काफी ज्यादा पाया गया। इसके बाद फसल कटाई ड्रजरी युक्त कार्य के रूप में देखे गये। अन्य कृषि संबंधित कार्य जैसे जुताई, खाद डालना, पौधा रोपण व फसल सुरक्षा भी ड्रजरी की दृष्टि से महत्वपूर्ण पाये गये लेकिन कम समय लागत व कार्य की कम पुनरावृत्ति के कारण औसत ड्रजरी सूचकांक कम पाया गया। कार्यों में समय ज्यादा लगने के कारण श्रम की आवश्यकता ज्यादा होती है।
बहुत से शोधों के परिणामों से यह प्रदर्शित हुआ है कि कई कृषि व संबंधित कार्यों में ज्यादा समय एवं ज्यादा श्रम की जरूरत पड़ती है। मृणालिनी व अन्य (1990)। अन्य शोधों के परिणाम भी यह दर्शाते हैं कि पौधारोपण, घास निकालना, कटाई व कटाई उपरान्त कार्य काफी ड्रजरी से जुड़े हैं। राजाजी 1988, रत्ना कुमारी व अन्य 1998। ’सिंगल व्हील हो’ के उपयोग से औसत कार्यिक हृदय दर में सबसे अधिक कमी (13.7 प्रतिशत) देखी गयी। इसके बाद ग्रबर वीडर और ’टिवन व्हील हो वीडर’ से भी हृदय दर में कमी (10 प्रतिशत) देखी गयी। इसी तरह से औसत ऊर्जा लागत में भी कमी देखी गयी। पारंपरिक पद्धति से घास निकालने की तुलना में ’सिंगल व्हील हो’ से उत्पादकता में बढ़ोतरी पायी गयी क्योंकि यह घास निकालने में 50 प्रतिशत ज्यादा कुशल था। इसके बाद ग्रबर वीडर (30 प्रतिशत) व ’ट्विन व्हील हो वीडर’ (8 प्रतिशत) भी ज्यादा घास निकाल सकते हैं। सिंह व अन्य (2007), नाग व ओट (1979)। कुदाल व खुरपी के प्रयोग से वीडिंग ज्यादा थकवाट वाला कार्य महसूस किया गया। इन तीन प्रकार के वीडर का प्रयोग करके वीडिंग कार्य को हल्का, भारी व ज्यादा भारी कार्य में वर्गीकृत किया गया है। अधिकांश महिलाओं ने कई कृषि कार्य जैसे खेत तैयार करना (55 प्रतिशत), खाद ढ़ोना (58.83 प्रतिशत), बीज उपचार करना (55 प्रतिशत), एवं अनुचित आकार वाले उपकरण का प्रयोग (63.33 प्रतिशत) में ड्रजरी महसूस की, जबकि खाद ढोना (53.33 प्रतिशत) रसायन छिड़काव (51.67 प्रतिशत), अनुचित आकार के उपकरणों का प्रयोग (50 प्रतिशत) आदि वो कार्य हैं जिनमें ज्यादातर पुरूषों ने ड्रजरी महसूस की।
भारत ग्रामीण महिला कृषक की ड्रजरी की सीमा, कार्य के स्वभाव, कार्य का प्रकार, महिला का सामाजिक एवं आर्थिक स्तर, उनके क्षेत्रीय रीति रिवाज, परिवार का आकार व अन्य बहुत से कारकों पर निर्भर करती हैं। ड्रजरी को कम करने से थकान में कमी, अच्छी उत्पादकता, कार्य गुणवत्ता व अंततः महिलाओं की स्थिति में सुधार आता है। पारंपरिक विधि से थ्रैसिंग की तुलना में विवेक मंडुआा थै्रसर इर्गोनोमिक रूप से ठीक पाया गया। शारीरिक इर्गोनोमिक पैरामीटर जैसे हृदय दर, ऊर्जा लागत दर, रक्तचाप, पल्स दवाब, कार्डिक आउटपुट लागत, शारीरिक लागत व ब्लड लैक्टेट सांद्रता कम करने में यह उपयोगी पाया गया। इस प्रकार से बाजरे को भी प्रसंस्कृत किया गया। बाजरे को हाथों से प्रसंस्कृत करने से हृदय दर 8.78 पायी गयी जो कि थ्रैसर के साथ 3.64 तक कम हो गयी। मिलेट थ्रैसर की सहायता से कार्य करने पर कुल कार्डिक लागत व कार्य लागत 2017.5 से 1517.1 और 134.5 व 101.14 पायी गयी। मिलेट थ्रेसर से अन्य शारीरिक मापदंड में प्रतिशत बदलाव जैसे ऊर्जा लागत दर 31.43 से 14.39, रक्तचाप 14.23 से 8.70 और पल्स दर 40.86 से घटाकर 16.78 मापी गयी, कार्य पूर्ण होने के बाद ब्लड लैक्टेट सांद्रता 14.7 मिली मोल/लीटर से घटकर 7.94 मिलीमोल/लीटर हो गयी ।इन मशीनों से छोटे अनाजों की कटाई उपरान्त प्रसंस्करण कार्य में लगने वाले समय में काफी कमी आयी। (जोशी व अन्य, 2015)। पुरूषों ने रैंक आर्डर की प्राथमिकता के आधार पर मार्केर्टिंग, जुताई, खाद डालना को सबसे ज्यादा ड्रजरी युक्त बताया (मृणालिनी, स्नेहलता, 2010)। दूसरी ओर, महिलाओं ने फसल कटाई, घास निकालना, थ्रैसिग आदि को ड्रजरी युक्त कार्य बताया।
स्वास्थ्य संबंधित हैजार्ड- कृषि कार्यें में महिलाओं को कई स्वास्थ्य संबंधित समस्याओं का सामना करना पड़ता है। एक ही तरह की शारीरिक स्थिति में लकड़ी कारना, भारी बोझा उठाना आदि कार्यों में लगाातार झुकने की वजह से शारीरिक हैजार्ड जैसे कमर दर्द, सार्वाइकल दर्द, कलाई व उँगली में दर्द, कंधे व घुटनों में दर्द आदि की समस्या हो जाती है (बोराह, 2015)। अधिकांश महिला श्रमिक जो कि दोहराब प्रकृति के कार्यों में शामिल थे, उन्हें कंधे व कलाई में दर्द होता है जिससे (मेटगड व अन्य, 2008), पुनेट (1985)। लगाातार व लंबे समय की थकावट से मांसपेशियों में दर्द, खिंचवा होता है जिससे मांसपेशियों में कमजोरी होती है। लंबे समय तक कार्य करना, लगातार एक ही तरह का कार्य करना, एक की शारीरिक अवस्था में कार्य करना, खराब पोश्चर (शारीरिक मुद्रा), खराब पोषण और स्वास्थ्य इस बात को सुचित करते हैं कि महिला कृषक गंभीर शारीरिक तनाव में हैं। कुछ अन्य कारक जैसे आयु, शारीरिक शक्ति व फिटनेस आदि भी हैं जो व्यक्ति की कार्य क्षमता को प्रभावित करते हैं (सूथर व कोशिक, 2011), ग्रामीण महिलाओं के अनुसार साँप का काटना भी एक, आम समस्या हो गयी है। कृषि कार्यों में महिला कृषकों को सूखी पत्तियों, छाल, परागकण से होने वाली एलर्जी का भी सामना करना पड़ता है। (बोराह 2015)।
पशुपालन संबंधित कार्यों में महिलाओं को ड्रजरी- ग्रामीण महिलाओं द्वारा चारा काटने व लाने के वर्तमान तरीके से कमर व पैरों की मांसपेशियों पर तनाव, अनुचित पोश्चर (शारीरिक स्थिति), कार्यभार को कम करने के लिए उपकरण/ तकनीक की कमी और उनसे जुड़ी हुई ड्रजरी का अनुभव होता है। (किस्तवाड़िया एवं राना, 2007)। अतः लम्बे हैंडल वाला खड़े होकर चारा एकत्र करने वाला उपकरण बनाया गया जिससे चारे को काटने व इकट्ठा करने में लगातार झुकने से बचा जा सके। इसके परिणामों से यह पता चला कि औसत व उच्च हृदय दर शारीरिक तनाव आदि में कमी पायी गयी। इससे कम समय में ज्यादा कार्य व प्रति इकाई उत्पादन में बढ़ोत्तरी देखी गयी। फाॅडर कलेक्टर (चारा एकत्र करने का हस्तयंत्र) के उपयोग से शरीर के झुकाव का कोण कम हुआ जिससे बाॅडी पाॅश्चर में सुधार हुआ और शरीर के दर्द में कमी आयी। प्रचलित तरीकों से चारा एकत्र करने की तुलना में नयी तकनीकियों का उपयोग करके कार्य के इर्गोनोमिक मूल्यांकन से औसत हृदय दर (- 3.29’’), उच्च हृदय दर (- 2.42’’), कार्य की कुल कार्डियक काॅस्ट (खर्चा) (5.30’’) व महिलाओं के शारीरिक तनाव में मुख्य रूप से कमी पायी गयी। इस फाॅडर कलेक्टर के उपयोग से समय की भी काफी बचत हुई 7.169’’)। पशुपालन में दूसरा मुख्य उपकरण/मशीन है - चाॅफ कटर (चारा काटने की मशीन)। प्रचलित चाॅफ कटर की तुलना में नये/उन्नत चाफ कटर को प्रयोग में लाने से कार्य के दौरान औसत हृदय दर में कमी पायी गयी।
तिवारी व उपाध्याय (2012) व पवार (2004) ने रिपोर्ट में बताया कि उत्तर प्रदेश में कम लोगों (5.83 प्रतिशत) को ही चाफ कटर के बारे में जानकारी थी। बहुत कम लोग (0.83 से 12.5 प्रतिशत) पशुपालन की अन्य तकनीकियों जैसे रैक, फावड़ा, व्हील बैरो के बारे में जागरूक थे। किसी भी व्यक्ति को इनकी कीमत की जानकारी नहीं थी। केवल 12 प्रतिशत लोगों को यह जानकारी थी कि रैक को चारा एकत्र करने के लिए प्रयोग किया जाता है जबकि 8-10 प्रतिशत लोगों द्वारा इसके अन्य उपयोग जैसे गोबर को इकट्ठा करना व पशुशाला को साफ करना आदि भी बताये गये। फावडे के उपयोग की जानकारी से यह प्रदर्शित हुआ कि 6 प्रतिशत लोगों को इसके उपयोग जैसे ’चारा व गोबर इकट्ठा करना’ पता था। व्हील बैरो के संदर्भ में, 1.67 प्रतिशत लोगों को इसका उपयोग जैसे चारा इकट्ठा करना पता था। इसी प्रकार 25 प्रतिशत लोगों को चाॅफ कटर के उपयोग की जानकारी थी। अधिकांश लोग (97.92) प्रतिशत मैंजर के उद्देश्य जैसे ’चारा लाना व पशुशाला को साफ करना’ जानते थे। यह देखा गया है कि प्रायः जानकारी के अभाव में, महिलांए अभी भी कृषि व पशुपालन में पुराने तरीकों का इस्तेमाल करती हैं जिससे उनके स्वासथ्य पर तो प्रभाव पड़ता ही है वहीं कृषि उत्पादन पर भी बुरा असर पड़ता है। अतः कृषि व अन्य संबंधित क्षेत्रों में उत्पादन बढ़ाने हेतु महिलाओं की भूमिका की सीमा जानना और इनमें उनकी भागीदारी बढ़ाने हेतु तकनीकी सहायता प्रदान करना भी अत्यंत आवश्यक है।
डॉ. इन्दु रावत
वैज्ञानिक
मानव संसाधन विकास एवं सामाजिक विज्ञान विभाग
भा0कृ0अनु0प0- भारतीय मृदा एवं जल संरक्षण संस्थान, 218, कौलागढ़ रोड, देहरादून