वोट की मजबूरी नेताओं से जो कुछ न करवाए वही कम है. अब तो पूरे देश में ही सत्ताधारियों और राजनेताओं को किसान और किसान दल नजर आने लगा है. पिछले कईं सालों की पीड़ा सहने के बाद इस साल किसान समुदाय का आंदोलन और हाल में हुए विधान सभा चुनाव के नतीजे देखने के बाद कोई भी पार्टी या सत्ताधारी पार्टी इन्हें नजरअंदाज करने का नुकसान नहीं उठाना चाहती.
अब सभी दल किसानों के रहनुमा बनने की कोशिश में लगे है. राजस्थान, मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ की नई सरकारों ने कर्जमाफी के ताबड-तोड़ फैसले लेकर सत्ताधारी पार्टी (बीजेपी) पर दवाब बना लिया है. यही कारण है कि सत्ता में मोदी सरकार किसानों को कोई बड़ा पैकेज देकर किसानों को लुभाने की संभावनाएं तलाश रही है. अब तो खबरे आने लगी है की बीजेपी किसानो के खाते में नगद सब्सिडी भेजने का विकल्प तलाश रही है. लेकिन अब तो सरकारों के सभी उपाय बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे एक्सीडेंट के बाद मुवाबजा बांटा जाता है. मुख्य मुद्दा अब मुँह चौड़ा किये हुए खड़ा है कि क्या हमारे देश के गावों की अर्थव्यवस्था ज्यों की त्यों बनी रहेगी ? सवाल यह भी बना हुआ है कि किसानों को खेती में लाभ कैसे मिले ? अभी तक इसका दीर्घकालीन रास्ता किसी भी पार्टी या किसी भी चैरिटेबल संस्थान की तरफ से नहीं दिखा है.
यही कारण है की खेती किसानों के लिए एक बीमारी बनती जा रही है. सरकार झोलाछाप डॉक्टर की तरह कर्जमाफी के रूप में एक छोटी खुराक पकड़ा देता है. इस कर्जमाफी के बाद किसान को लगने लगता है की अबकी बार सीजन खुशहाल होगा. लेकिन किसान को यह बात समझ नहीं आती है कि कोई भी सरकार किसानों को खुश देखने के लिए कोई साहसिक कदम नहीं उठाती और इसके आलावा अब अन्नदाता की बिपदा कम होने का नाम नहीं ले रही है बल्कि और बढ़ती जा रही है. अगर कुछ सालों के दृश्य को ध्यान में रखकर बात करें तो लागत से भी कई गुना कम भाव की वजह से किसान आलू, टमाटर, प्याज या लहसुन की फसल सड़कों पर फेंककर खून के आंसू रो रहा था. अब आप ही सोचे की कर्जमाफी, नकद अनुदान, कृषि बीमा जैसी योजनाएं किसानो को कैसे लाभ पहुंचायेगी. किसानों के फसल के लिए बीज, खाद की उपलब्धता, सिंचाई, भंडारण और उपज के वाजिब मूल्य की व्यवस्था ही नहीं की जाती है. लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि तात्कालिक रूप में कर्ज माफी भी जरूरी थी. लेकिन अब हमारी जनता नीति-नियमों से यह जवाब भी चाहती है कि वर्ष 2008 में मनमोहन सरकार की ओर से की गई 65000 करोड़ रुपए की ऋणमाफी के वावजूद भी हजारों किसान अब तक आत्महत्या क्यों कर चुके हैं ? अभी एक साल पहले उत्तर प्रदेश में करीब 37000 करोड़ रुपए की कर्जमाफी के बाद भी किसानों की इतनी बुरी हालत क्यों है ?
फसलों में लगाई गई लागत और उनके फसलों के बाद भी मिलने वाली राशि एक घाटे के सौदे में बदल गई. किसानों की उपज को नाम मात्र की लागत पर पैकेज्ड कर या प्रोसेस कर कारोबारी बड़ा मुनाफा कमा रहे है. आम आदमी की जेब से पैसा निकल रहा है, लेकिन किसान की जेब में नहीं पहुंच पा रहा है.
किसानों के खून-पसीने से उगे अनाज का मुनाफा बिचौलियों और आढ़तियों की जेब में जा रहा है. इस दुष्चक्र को भेदने का मामला अब तक जिनती सरकारें आयी किसी ने नहीं देखा है. देश भर की कृषि मंडियां किसानों के शोषण का बाजार बन चुकी है. वहां कारोबारियों की गोलबंदी के आगे किसानों की उम्मीदें दम तोड़ देती हैं. दूसरी ओर न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा उठाने वाले किसानों का दायरा दस-पंद्रह फीसदी से ऊपर अब तक नहीं पहुंच पाया है.
मृदा परीक्षण योजनाएं, सब्सिडी पर खेती के यंत्रो का वितरण या किसानों की मदद के लिए बने सरकारी कृषि सहायता केंद्र, ये सब भ्रष्टाचार का मुख्य अड्डा बन चुका है अगर ऐसा नहीं है, तो बीते बीस साल में ही इन मुद्दों का सरकारी खर्च और कर्जमाफी की लागत का योग कर ले तो, देश का एक-एक किसान अब तक चैन की नींद ले रहा होता. इसलिए किसान संगठन अब पार्टियों और सरकारों पर कृषि क्षेत्र की दीर्घकालिक नीति का दबाव बनाएं, तभी किसानों को उनका हक़ मिलेगा और किसान चैन की साँस ले सकेगा.