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एफएसआईआई एवं एएआई ने मनाया विश्व कपास डे

वर्ल्ड कपास डे के अवसर पर फेडरेशन ऑफ सीड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया (एफएसआईआई) एवं अलायस फॉर एग्री इनोवेशन (एएआई) भारत को दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक बनाने में बीटी कपास जैसी शक्तिशाली प्रौद्योगिकी की खुशी मना रहे हैं.

KJ Staff
Cotton
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वर्ल्ड कपास डे के अवसर पर फेडरेशन ऑफ सीड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया (एफएसआईआई) एवं अलायस फॉर एग्री इनोवेशन (एएआई) भारत को दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक बनाने में बीटी कपास जैसी शक्तिशाली प्रौद्योगिकी की खुशी मना रहे हैं.

बता दें कि कीट लगातार पनपते व विकसित होते रहते हैं और पौधों, खासकर फसलों पर हमला करते हैं. दूसरी तरफ, पौधे अपनी खुद की प्रतिरक्षा प्रणाली का विकास करते हैं और इन कीटों से अपना बचाव करते हैं. इस रक्षा प्रक्रिया का विकास करने वाले जीन्स स्वयं फसल के पौधे में मौजूद होते हैं या उनके वन्य संबंधियों या अन्य जीवों में मौजूद होते हैं जो प्रजनन की दृष्टि से संगत नहीं.

वैज्ञानिक ऐसे जीन्स तलाशने का प्रयास करते हैं जो पौधों को इन कीटों के खिलाफ अपनी प्रतिरक्षा की प्रक्रिया को मजबूत बनाने में मदद कर सकें. ज्यादातर फसलों में, पोषिता रक्षा जीन्स को एकत्रित किया जाता है और फसलों में जोड़ दिया जाता है, ताकि कीटों द्वारा प्रतिरोध के विकास को रोका जा सके. कुछ फसलों में बिल्कुल शून्य या बहुत सीमित जीन्स होते हैं, जो प्रतिरोध प्रदान कर सकते हैं. कपास एक बड़ा उदाहरण है, जिसमें कपास के कीटों से प्रतिरक्षा के लिए पोषिता जीन्स मौजूद नहीं होते. इसलिए बॉलवार्म से प्रतिरक्षा देने के लिए ट्रांसजेनिक बीटी कपास के विकास ने किसानों को दो दशकों से ज्यादा समय से बड़ी राहत दी है.

दूसरी तरफ बॉलवार्म के कीट विकसित होते चले गए और उन्होंने बीटी कपास के खिलाफ प्रतिरक्षा विकसित करने का प्रयास किया. इसलिए यह तर्क कि बीटी कपास के कारण कीटों में प्रतिरक्षा का विकास हुआ, सही नहीं है. कीटों में प्रतिरक्षा का विकास सदियों पुरानी निरंतर घटना है जो देश में बीटी कपास की खोज से पहले इस्तेमाल किए गए कई कीटनाशकों में देखा गया.

जिन लोगों ने भारत में कपास का इतिहास पढ़ा होगा वो कीटनाशकों की टेक्नॉलॉजी के विकास के बारे में जानते होंगे, जो मुख्यतः बॉलवार्म पर केंद्रित थी. बॉलवार्म तीन प्रकार के होते हैं - सबसे खतरनाक अमेरिकन बॉलवार्म, पिंक बॉलवार्म (पीबीडब्लू) और अर्ली शूट बोरर. आर्मी वार्म भी आम हैं. किसान सदैव ऐसे साधनों की तलाश में रहते हैं, जिनसे वो कपास में लगने वाले बॉलवार्म का मुकाबला कर सकें.

एफएसआईआई के डायरेक्टर जनरल राम कौंडिन्य ने कहा- हाईब्रिड कपास 70 के दशक की शुरुआत में आया. उसके बाद पहले दस सालों तक हमने बॉलवर्म का मुकाबला ऑर्गेनोफास्फेट्स से किया. 80 के दशक की शुरुआत में पायरथ्रोइड्स प्रस्तुत किए गए जो ऑर्गेनोफास्फेट्स की तुलना में मनुष्यों के लिए ज्यादा सुरक्षित थे. उस समय पंजाब व हरियाणा में पीबीडब्लू सबसे बड़ा कीट था, जबकि पश्चिम व दक्षिण में अमेरिकन  का आतंक था. इसलिए पीबीडब्लू बीटी कपास की शुरुआत के बाद आया कीट नहीं है.

कृत्रिम पायरायड्स के अत्यधिक और व्यापक इस्तेमाल से 80 के दशक के अंत में व्हाईट फ्लाई और अन्य चूषक कीटों का प्रकोप हुआ. 1986 और 1987 में आंध्र प्रदेश और पंजाब में व्हाईट फ्लाई का संकट छाया, जिसके काण कई किसानों ने आत्महत्या की और आंध्रप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री, एनटी रामाराव के आग्रह के बाद प्रधानमंत्री, राजीव गांधी ने कुछ आपातकालीन उपायों का आदेश दिया, जिसमें व्हाईट फ्लाई के संकट से निपटने के लिए चार नए कीटनाशकों का तीव्र अनुमोदन शामिल था. किसानों को उचित शिक्षा दिए जाने और खेतों में कुछ सस्य विज्ञान विधियां अपनाए जाने के बाद कुछ सालों में स्थिति नियंत्रण में आ गई.

अनुपूरक कीटों का खतरा तब होता है, जब प्राथमिक कीटों को प्रभावशाली तरीके से नियंत्रित कर लिया जाता है. प्रतिस्पर्धा की कमी के चलते अनुपूरक कीटों का विस्तार हुआ, जो इस परिस्थिति में मुख्य कीट बन गए. यह एक परिवेश में प्रतिस्पर्धा करने वाली आबादी के लिए एक प्राकृतिक क्रिया है. हमें यह समझना होगा कि किसानों को कीटों से लगातार लड़ाई लड़नी है और कुर्सी पर बैठकर बातें करने वालों को यह स्थिति समझने के लिए खेतों में उतरकर देखना होगा.

कीट प्रतिरक्षा प्रबंधन के विषय का पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों नें विस्तृत अध्ययन किया है.सबसे महत्वपूर्ण है एक अलग कार्यप्रणाली वाले उत्पादों का इस्तेमाल एवं कई अन्य सस्य विज्ञान विधियों का पालन.इस मामले में विस्तृत शिक्षा व कार्य के बाद भी किसानों द्वारा इन विधियों का अपनाया जाना हमेशा से अपर्याप्त रहा है क्योंकि वो खेत के संकट से निपटने के लिए तत्कालिक समाधानों का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर होते हैं. फसलों में विकसित होती चुनौतियों से लड़ते रहने के लिए टेक्नालाजी को निरंतर अपग्रेड करना जरूरी है. टेक्नालाजी पर विराम लगने से कीटों की संख्या बढ़ती जाएगी और हमें नई चुनौतियों का सामना करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं मिल पाएंगे.

कौडिन्य के मुताबिक, ‘‘कीटों के विस्तार को अनेक कारण प्रभावित करते हैं. पीबीडब्लू पहले भी मौजूद था और इसे देश में बीटी कपास आने से पहले रासायनिक पेस्टिसाईड्स एवं अन्य विधियों द्वारा नियंत्रित किया जाता था. कपास की जिनिंग, तेल निकालने के लिए कपास के बीज का परिवहन, कपास का संक्रमित क्षेत्रों से अन्य क्षेत्रों को परिवहन, कपास के खेतों में पौधों के अवशेष को नष्ट करना संक्रमण के प्रसार को नियंत्रित करने के लिए आवश्यक हैं.

बीटी कपास के इस्तेमाल से पैदावार में बढ़ोत्तरी नहीं हुई,  यह असत्य तर्क है. सन 2002 में जब बीटी कपास प्रस्तुत किया गया था,  उस समय देश में 300 किलोग्राम/हैक्टेयर कपास की पैदावार थी. सन 2007 में पैदावार बढ़कर 554 किलोग्राम/हैक्टेयर हो गई, यानि उत्पादन में 11 प्रतिशत की सीएजीआर की वृद्धि मिली, जो सन 1990 से 2002 के बीच पिछले 12 सालों में मिली 1 प्रतिशत की सीएजीआर वृद्धि से बहुत ज्यादा थी. क्या इसका कारण बीटी कपास द्वारा कीटों का बेहतर नियंत्रण नहीं था, जिससे पैदावार में इतनी बढ़ोत्तरी हुई?  सन 2008 के बाद पैदावार पर लगा विराम टेक्नालाजी को अपग्रेड करने में हुई कमी तथा सरकार द्वारा कीमतों पर किए गए नियंत्रण के चलते था, जिसके कारण बीज कंपनियों को बीज किस्मों की गुणवत्ता सुधार के लिए शोध में निवेश करना असंभव हो गया.

डॉ. शिवेंद्र बजाज, एक्ज़िक्यूटिव डायरेक्टर, एफएसआईआई ने कहा, ‘‘बीटी कपास ने सभी बॉलवाम्र्स को प्रभावशाली तरीके से नियंत्रित किया और यह ऐसा करता रहेगा. पिंक बॉलवॉर्म अन्य बॉलवाम्र्स को अच्छी तरह से नियंत्रित किए जाने के कारण फैले हो सकते हैं, और यह इसलिए भी है क्योंकि हमने एक्टिविज़्म और रैगुलेटरी गतिरोध के कारण बीटी टेक्नॉलॉजी के ज्यादा उन्नत अपग्रेड प्रस्तुत नहीं किए. किसानों की जरूरतों को नजरंदाज किया गया. कई राज्यों में सस्य विज्ञान विधियों के उचित पैकेज के क्रियान्वयन ने पीबीडब्लू से अच्छी राहत प्रदान की है. जीएम टेक्नॉलॉजी बीटी कपास एवं हर्बिसाईड टॉलरेंट कपास के दायरे के बाद भी है. इसके अनेक उपयोग हैं जैसे जल उपयोग दक्षता से फसल उगाने में कम पानी का इस्तेमाल होता है, नाईट्रोज़न उपयोग दक्षता से फसलों में नाईट्रोज़न उर्वरक का इस्तेमाल कम होता है, गर्मी सहनशीलता से फसलों को ज्यादा तापमान में उगने में मदद मिलती है, फसलों के पोषण प्रोफाईल में सुधार होता है, आदि.

इनमें से अनेक अनुप्रयोगों से हमें प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करने और समाज के गरीब वर्ग के पोषण में सुधार करने में मदद मिलेगी. जीएम फसलों की छतरी के नीचे इन सभी को खारिज कर देना पूरी तरह से तर्कहीन व खतरनाक होगा.

हमें समझना होगा कि कोई भी टेक्नॉलॉजी स्थायी व पूर्ण समाधान प्रदान नहीं करती.एक टेक्नॉलॉजी बिना किसी उन्नयन के 15 से 20 साल तक चल जाए और उसके बाद भी अच्छे परिणाम दे, यह एक बड़ी उपलब्धि है. टेक्नॉलॉजी की आलोचना करने की बजाय, हमें टेक्नॉलॉजी के उन्नयन और एकीकृत प्रबंधन का समर्थन करना चाहिए. सभी रासायनिक पेस्टिसाईड्स एवं फर्टिलाईज़र्स के आयात पर प्रतिबंध लगाकर आर्गेनिक खेती को लागू करने का श्रीलंका का विफल प्रयोग, इस बात का उदाहरण है कि आर्गेनिक खेती को बढ़ने से कैसे रोका जाए. हर विकल्प को विशेष प्रयोगों के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए, जहां यह किसान को सर्वश्रेष्ठ लाभ दे. हमें आर्गेनिक, फसल सुरक्षा के रसायन, उर्वरक, बायोटेक्नॉलॉजी के प्रयोगों एवं किसानों के लिए प्रजनन में सुधार की विधियों जैसी अनेक टेक्नॉलॉजी का इस्तेमाल करना होगा, ताकि सर्वश्रेष्ठ एवं दीर्घकालिक समाधानों को चुनने की स्वतंत्रता व जागरुकता लाई जा सके.

English Summary: FSII and AAI celebrated World Cotton Day Published on: 09 October 2021, 11:54 AM IST

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