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Litchi Crop: लीची की खेती की पूरी जानकारी, मिनटों में

अगर आप लीची की खेती करने की सोच रहे हैं पर डरते हैं कि फसल ख़राब न हो जाए तो ऐसे में हम आपको अपने इस लेख में इस खेती के बारे में विस्तार से जानकारी प्रदान करेंगे...

हेमन्त वर्मा
हेमन्त वर्मा
भारत में सबसे ज्यादा लीची का उत्पादन बिहार में होता है
भारत में सबसे ज्यादा लीची का उत्पादन बिहार में होता है

एकदम अलग स्वाद की वजह से लीची की मांग दुनियाभर में है. इसमें विटामिन सी भरपूर मात्रा में पाया जात है. वैसे तो सबसे ज्यादा लीची का उत्पादन करने वाला देश चीन है लेकिन इस मामले में भारत भी पीछे नहीं है.

भारत में हर साल 1 लाख टन के करीब लीची का उत्पादन होता है. अच्छी गुणवत्ता वाली लीची की मांग स्थानीय के साथ अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भी बड़े पैमाने पर है. वैसे तो ज्यादातर लीची ताजा ही खाए जाते हैं लेकिन इसके फलों से जैम, शरबत, नेक्टर, कार्बोनेटेड पेय आदि भी तैयार किए

भारत में सबसे ज्यादा लीची कहां होती है

भारत में सबसे ज्यादा लीची का उत्पादन बिहार में होता है जहां मुज़्ज़फरपुर और दरभंगा जिलों में सबसे ज्यादा लीची पैदा होती है. बिहार के बाद पश्चिम बंगाल, असम, उत्तराखंड और पंजाब का नंबर आता है.

लीची की खेती के लिए जलवायु (Climate for Litchi)

समशीतोष्ण जलवायु लीची के उत्पादन के लिए उपयुक्त है. जनवरी-फरवरी में फूल आते समय आसमान साफ़ और शुष्क होने से लीची में अच्छी मंजरी बनती है जिससे ज्यादा फल आते है. मार्च एवं अप्रैल में कम गर्मी पड़ने से फलों का विकास, गूदे का विकास एवं गुणवत्ता अच्छी होती है. लीची की खेती के लिए विशिष्ट जलवायु की जरूरत होती है. इसकी खेती देश में उत्तरी बिहार, देहरादून की घाटी, उत्तर प्रदेश का तराई क्षेत्र तथा झारखंड प्रदेश के कुछ क्षत्रों में आसानी से होती है. लीची में जनवरी-फरवरी में फूल आते हैं एवं फल मई-जून में पक कर तैयार हो जाते हैं.

मिट्टी का चुनाव (Selection of soil)

लीची की खेती के लिए गहरी बलुई दोमट मिट्टी जिसकी जल धारण क्षमता अधिक हो, उपयुक्त होती है. लीची की खेती हल्की अम्लीय एवं लेटराइट मिट्टी में भी की जा सकती है लेकिन जल भराव वाले क्षेत्र लीची के लिए उपयुक्त नहीं होते. अत: इसकी खेती जल निकास युक्त जमीन में करने से अच्छा लाभ होता है.

उन्नत किस्में (Improved varieties)

शाही: यह देश की एक व्यावसायिक एवं अगेती किस्म है, जिसके फल गोल एवं छिलके गहरे लाल होते है. और अंदर से रसीलेदार सफेद रंग के होते हैं. इस किस्म के फल 15-30 मई तक पक जाते हैं. खुशबूदार और गूदे की अधिक मात्रा इस किस्म की प्रमुख विशेषता है. इस किस्म के 15-20 वर्ष के पौधे से 80-100 किलो उपज प्रति वर्ष प्राप्त की जा सकती है.

चाइना: यह एक देर से पकने वाली किस्म है जिसे पौधे अपेक्षाकृत बौने होते है. इस किस्म के फल चटखन की समस्या से मुक्त होते है. फलों का रंग ऊपर से गहरा लाल तथा गूदे की मात्रा अधिक होने की वजह से इसकी अत्यधिक मांग बनी हुई है. यह किस्म एक साल छोड़कर दूसरे साल फल देती है.

स्वर्ण रूपा: यह किस्म छोटानागपुर के पठारी क्षेत्र के लिए उपयुक्त है. इसके फल मध्यम समय में पकते है और चटखन की समस्या से मुक्त होते हैं. बीज का आकार छोटा, गुदा अधिक मीठा होता है.

इसके अलावा अर्ली बेदाना, डी- रोज और त्रिकोलिया भी लीची की अच्छी किस्म हैं

पौध प्रवर्धन (Plant propagation)

लीची की व्यावसायिक खेती की लिए गूटी विधि द्वारा पौधा तैयार किया जाता है. बीज से प्राप्त पौधों में अच्छी गुणवत्ता के फल नहीं आते हैं तथा उनमें फलन भी देर से होता है. गूटी विधि द्वारा पौध तैयार करने के लिए मई-जून के महीने में स्वस्थ और सीधी डाली का सलेक्शन किया जाता है. इस डाली के शीर्ष से 40-50 सेमी नीचे किसी भी गांठ के पास चाकू से गोलाई में 2 सेमी का चौड़ा छल्ला बना लिया जाता है. छल्ले के ऊपरी सिरे पर IBA की 2000 पी.पी.एम. मात्रा का पेस्ट बनाकर रिंग या छल्ले पर लगाया जाता है.  छल्ले को नमी युक्त मॉस घास से ढककर ऊपर से पालीथीन का टुकड़ा लपेट कर सुतली से कसकर बांध दिया जाता है ताकि हवा अंदर जा सके. गूटी बांधने के करीब 2 महीने के भीतर जड़े पूरी तरह से निकल जाती है. इसके बाद डाली की लगभग आधी पत्तियों को निकालकर पौधे से काटकर आंशिक छायादार स्थान पर लगाएं.

पौधारोपण कैसे करे (How to plantation)

लीची के पौधे को अप्रैल-मई महीने में 10 X 10 मीटर की दूरी पर 1 X 1 X 1 आकार के गड्डे में लगाना उचित रहेगा. बरसात के शुरुआती में 2-3 टोकरी गोबर की सड़ी हुई खाद 2 किलो नीम की खली, 1 किलो सिंगल सुपर फास्फेट मिट्टी मे अच्छी तरह मिलाकर गड्ढा भर दें. ज्यादा वर्षा वाले क्षेत्र में गड्ढे को खेत की सामान्य सतह से 20-25 सेमी ऊंचा भरें ताकि मिट्टी दब भी जाये और पानी पौधे के चारों तरफ देर तक जमा ना हो.

पौध संरक्षण (Plant protection)

फलों का फटना: लीची के फल फटने की समस्या आम है. यह समस्या मिट्टी में नमी और तेज गर्म हवाओं की वजह से होती है. ज्यादातर जल्दी पकने वाली किस्मों में फल फटने की समस्या अधिक आती है. इसके निराकरण के लिए बाग के चारों तरफ वायु रोधी वृक्षों को लगाएं तथा अक्टूबर में मल्चिंग करें. अप्रैल से फलों के पकने तक हल्की-हल्की सिंचाई करते रहें और वृक्षों पर पानी का छिड़काव करें. इस प्रकार के प्रबन्धन के साथ-साथ फल लगने के 15 दिनों के बाद से वृक्ष पर 5 ग्राम प्रति लीटर बोरेक्स या 5 ग्राम प्रति लीटर घुलनशील बोरॉन 20% के घोल का 2-3 बार छिड़काव 15 दिन के अन्तराल पर करे.

लीची माइट: यह छोटी मकड़ी होती है जो कोमल पत्तियों की निचली सतह, टहनियों और पुष्पवृन्तों से चिपक कर लगातार रस चूसते रहते हैं, जिससे पत्तियाँ मोटी और मुड़ जाती है. इससे पौधे कमजोर हो जाते हैं. इसके नियंत्रण के लिए प्रॉपरजाइट 57% EC की 2 मिली मात्रा या एबामेक्टिन 1.9% EC की 0.4 मिली मात्रा एक लीटर पानी में छिडकाव करना चाहिए.

टहनी छेदक: यह कीट पौधों की नई कोपलों के मुलायम टहनियों से प्रवेश कर उनके भीतरी भाग को खाते हैं, जिससे टहनियां सूख जाती हैं| रोकथाम के प्रभावित टहनी को तोड़कर जला देना चाहिए. रसायनिक उपचार जैसे सायपरमेथ्रिन 1 मिली या इमामेक्टिन बेंजोएट 5% SG @ 0.5 प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें. या जैविक उपचार के रूप में बवेरिया बेसियाना @ 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें.

फल बेधक: अधिक नमी होने पर ये कीट फल के अन्दर प्रवेश कर जाते है और फल को सड़ा देते है. इसके प्रकोप से बचाव के लिए फल तोड़ाई के लगभग 40-45 दिन पहले से सायपरमेथ्रिन 25% EC @ 0.5 मिली प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव कर दें. जरूरत के हिसाब से 15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें

लीची बग: समान्यतः मार्च-अप्रैल और जुलाई-अगस्त में पौधों पर इस कीट का प्रकोप देखा जाता है. यह कीट नरम टहनियों, पत्तियों और फलों से रस चूसकर उन्हें कमजोर कर देते हैं. इसके अलावा फलों की बढ़त रोक देते हैं. ऐसे में सायपरमेथ्रिन 25% EC @ 0.5 मिली या क्लोरपीरिफॉस की 1 मिली मात्रा 1 लीटर पानी में छिडकाव करना चाहिए.

ऐंथ्राक्नोज रोग: इस बीमारी के साथ पत्तों पर भूरे रंग के धब्बे पड़ना, पत्ते झाड़ जाना और टहनियों का सूखना आदि लक्षण दिखाई देते है. इसके नियंत्रण के लिए मेंकोजेब 75 WP @ 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में छिड़काव करें. या जैविक के रूप में ट्राइकोडर्मा विरिडी @ 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें.

खाद एवं उर्वरक (Manure & Fertilizer)

शुरुआती वर्षो तक लीची के पौधों को 30 किलो अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद, 2 किलो नीम की खली, 250 ग्राम यूरिया, 150 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट तथा 100 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश हर साल प्रति पौधे की दर से देना चाहिए. 3 साल बाद 35 किलो अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद, 500 ग्राम यूरिया, 2.5 किलो नीम की खली, 500 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट तथा 600 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति पौधा प्रति वर्ष की दर से देना उचित रहेगा. 7-10 साल की फसल के लिए गोबर की खाद की मात्रा बढ़ा कर 40-50 किलो, यूरिया 1000-1500 ग्राम, सिंगल सुपर फासफेट 1000 ग्राम और म्यूरेट ऑफ पोटाश 300-500 ग्राम प्रति वृक्ष दें.

जब फसल 10 साल की हो जाये और अधिक फलन की अवस्था तक आ जाए तो गोबर की खाद 60 किलो, यूरिया 1600 ग्राम, सिंगल सुपर फासफेट 2.25 किलो और म्यूरेट ऑफ पोटाश 600 ग्राम प्रति वृक्ष प्रति वर्ष देते रहना चाहिए.

खाद देने के बाद सिंचाई जरूर करें. लीची के फलों की तुड़ाई के तुरंत बाद खाद देनी सही रहती है. जिससे पौधों में कल्लों का विकास और फलन अच्छा होता है.

सिंचाई व्यवस्था (Irrigation arrangement)

लीची के पौधे लगाने के बाद जरूरत के हिसाब से नियमित सिंचाई करें. सर्दियों में 5-6 दिनों तक गर्मी में 3-4 दिनों के अंतराल पर थाला विधि से सिंचाई करनी चाहिए. लीची के वृक्ष जब फल लगने की अवस्था तक पहुंच जाए तब फूल आने के 3-4 माह पहले (नवम्बर से फरवरी) पानी नहीं देना है. इससे फूल आने को प्रेरित किया जाता है. पानी की कमी से फल का विकास रुक जाता है एवं फल चटखने लगते हैं.

कांट-छांट

पूरी तरह से विकसित वृक्ष में शाखाओं के घने होने के कारण सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंच पाता है और साथ ही कीट और रोग लगने की संभावना बढ़ जाती है. इसलिए लीची के शुरुआती 3-4 वर्षो में पौधों की अवांछित या सूखी शाखाओं को निकाल दें. वृक्ष की 3-4 मुख्य शाखाओं को विकसित होने देना चाहिए, ऐसा करने से फलन भी अधिक होता है और कीट व रोग का आक्रमण भी कम हो पाता है.

खरपतवार प्रबंधन (Weed management)

पेड़ो के आसपास खरपतवार बढ़ने से कीट व रोगों की समस्या बढ़ जाती है. हाथ या कृषि यंत्र से खरपतवार को नष्ट किया जा सकता है. खरपतवारनाशी दवाओं से बचना चाहिए क्योंकि इसका विपरीत असर पेड़ों पर पड़ सकता है.

तुड़ाई और भंडारण (Fruit harvesting and storage)

फल पकाई के समय गुलाबी रंग का और फल की सतह का समतल हो जाती है. फल को गुच्छों में तोड़ा जाना चाहिए. इस फल को लम्बे समय तक स्टोर नहीं किया जा सकता. इसलिए नजदीकी बाज़ार में बेचने के लिए तुड़ाई पूरी तरह से पकने के बाद करनी चाहिए और दूर के बाजारों में भेजने के लिए इसकी तुड़ाई फल के गुलाबी होने के समय करनी चाहिए. तुड़ाई के बाद फलों को इनके रंग और आकार के अनुसार ग्रेडिंग करनी चहिए. लीची के हरे पत्तों को बिछाकर टोकरियों में इनकी पैकिंग करें. लीची के फलों को 1.6-1.7 डिग्री सैल्सियस तापमान और 85-90% नमी में भंडारित करना चाहिए. फलों को इस तरह 8-12 सप्ताह के लिए स्टोर किया जा सकता है.

उपज (Yield)

पूर्ण विकसित 15-20 साल के लीची के पौधों से औसतन 70-100 किलो फल प्रति वृक्ष प्रति वर्ष प्राप्त किये जा सकते हैं.

संपर्क सूत्र/ लीची के पौधे कहा से खरीदे (For contact/ Where to buy litchi plant)

  • देश में बागवानी के कई सरकारी संस्थान और कृषि विश्वविद्यालय है जिनसे सम्पर्क किया जा सकता है.

  • राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केन्द्र, मुजफ्फरपुर, बिहार या निदेशक 06212289475, 09431813884 से सम्पर्क किया जा सकता है.

  • लीची की खेती और पौध उपलब्ध के लिए राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केन्द्र मुजफ्फरपुर से प्रशिक्षण और सम्पर्क किया जा सकता है.

English Summary: Complete information on Litchi cultivation Published on: 12 November 2020, 03:36 IST

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