Success Story: हमारे देश में ऐसे कई किसान हैं, जो अपने संघर्ष के बल पर नया मुकाम हासिल कर रहे हैं. ऐसे ही एक प्रगतिशील किसान नरेंद्र सिंह मेहरा हैं, जो गांव देवला मल्ला, जिला नैनीताल, उत्तराखंड के रहने वाले हैं. नरेंद्र सिंह मेहरा विगत कई वर्षों से प्राकृतिक खेती कर रहे हैं. साथ ही अन्य किसानों को भी प्राकृतिक खेती के लिए प्रेरित करते हैं. अगर शिक्षा की बात करें तो प्रगतिशील किसान नरेंद्र सिंह मेहरा ने एमए किए हैं. साथ ही टूरिज्म स्टडीज में डिप्लोमा किए हैं. नरेंद्र सिंह मेहरा ने बताया कि, उनके पास लगभग 3 हेक्टेयर जमीन है और वह गेहूं, धान औए गन्ना समेत कई फसलों की खेती करते हैं. वहीं खेती के दौरान परंपरागत बीजों का इस्तेमाल करते हैं, जिसमें पुराने और देसी बीज शामिल हैं.
उन्होंने बताया कि वह परंपरागत बीजों का संकलन कर रहे हैं और उनकी संरक्षण और संवर्धन पर कार्य कर रहे हैं. प्रगतिशील किसान नरेंद्र सिंह मेहरा ने बताया कि उन्होंने खुद ही गेहूं की एक किस्म को विकसित किया है जिसका नाम उन्होंने नरेंद्र 09 रखा है, जो प्रोटक्शन ऑफ़ प्लांट वैराइटीज एंड फार्मर्स राइट्स अथॉरिटी यानी पौधों की किस्मों और किसानों के अधिकार संरक्षण प्राधिकरण के तहत उनके नाम पर रजिस्टर्ड हो चुका है.
कृषि जागरण से बातचीत के दौरान नरेंद्र सिंह मेहरा ने गेहूं की किस्म 'नरेंद्र 09' विकसित करने की पीछे की कहानी बताया. उन्होंने बताया कि लगभग 2008 के आसपास नैनीताल में टमाटर की खेती बहुत जबरदस्त तरीके से की जा रही थी और किसानों ने फसलों से ध्यान हटाकर टमाटर की खेती पर फोकस करना शुरू कर दिया था जिससे गेहूं और धान की खेती में कमी आ गई थी, जब उन्हें लगा कि एक ही फसल की खेती से अनाज की खेती कम हो रही है. फिर वह गेहूं की खेती करने लगे और उस दौरान उन्हें गेहूं की लेट वैरायटी यानी गेहूं की पछेती किस्म चाहिए थी.
उन्हें खोज के दौरान गेहूं की लेट वैरायटी मिली जिसका नाम आरआर 21 था. उन्होंने जब उस किस्म को अपने खेत में बोया तो उन्हें अपने खेती में एक अलग ही पौधा देखने को मिला, जो पूरे ही खेत में अलग से दिख रहा था. जब वो पौधा बढ़कर पक गया तो उन्होंने उसके दानों को अलग से रखकर एक छोटी सी क्यारी में बोया. उन्होंने इसी तरह से अपने इस बीज को बढ़ाया और लगभग 80 किलो तक इसे ले गए. आसपास के किसानों ने जब गेहूं की इस फसल को देखा तो, उनका ध्यान इसकी ओर आकर्षित हुआ. वहीं, उन्होंने इसके थोड़े बहुत सैंपल किसानों में बांट दिया.
12 साल का संघर्ष और हासिल किए नया मुकाम
उन्होंने बताया जब किसानों ने अपने खेतों में गेहूं की इस किस्म को लगाया तो, इससे उगने वाला पौधा अलग दिखने लगा और किसानों में इसको लेकर उत्साह आई. इसके बाद, प्रिंट और डिजिटल मीडिया के माध्यम से गेहूं की यह किस्म चर्चाओं में आया और साथ ही साथ वैज्ञानिकों और कृषि अधिकारियों को भी इसकी जानकारी मिली.
उन्होंने बताया कि, पीपीवीएफआरए में उस दौरान के हेड डॉ. विजय कुमार दोहरे ने इस बीज के रजिस्ट्रेशन तक पहुंचाने में मदद की. 2009 से लेकर 2021 तक के इस संघर्ष में इस बीज को उत्तराखंड के बाहरी, पहाड़ी और मैदानी क्षेत्र के साथ-साथ अन्य आसपास के प्रदेश जैसे- हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में सैंपल के लिए बांटा जिससे सकारात्मक रिव्यू आए और इस बीज को किसान नरेंद्र के नाम पर रजिस्टर्ड किया गया. उन्होंने बताया कि अब देश के कई हिस्सों में इस बीज को खेती के लिए उनसे मांगा जाता है.
नरेंद्र सिंह मेहरा ने बताया कि 'नरेंद्र 09' गेहूं किस्म में दूसरे गेहूं के मुकाबले कल्ले अच्छे निकलते हैं, इससे इसमें बीज कम लगते हैं, जैसे कि दूसरे गेहूं अगर 40 किलो लग रहे हैं तो इसमें 35 किलो ही बीज लगता है. दूसरी बात इसके पौधे काफी मजबूत होते हैं तेज हवा और बारिश में गिरते नहीं और तीसरी बात इसकी बालियों में दाने बहुत अच्छे आते हैं, दूसरी किस्मों में जहां बालियों में 50-55 दाने होते हैं, इसमें 70 -80 तक दाने पहुंच जाते हैं.
किसान के नाम दर्ज है विश्व रिकॉर्ड
प्रगतिशील किसान नरेंद्र सिंह मेहरा ने बताया कि, उन्होंने पहाड़ों पर गन्ने की खेती लाने के लिए भी काफी प्रयास किए हैं. जिससे किसान प्राकृतिक गुड़ बनाकर अच्छे दामों में बेच सकें. इसके अलावा वह ब्लैक राइस को भी उत्तराखंड में लाए हैं, जोकि पूर्व उत्तर राज्यों में बोया जाता था. उन्होंने आगे बताया कि उनके नाम एक विश्व रिकॉर्ड भी है. दरअसल, उन्होंने एक ही पौधे से ही 25 किलो हल्दी उत्पादित की थी.
अगर सालाना लागत और मुनाफे की बात करें, तो प्रगतिशील किसान नरेंद्र सिंह मेहरा के अनुसार, कई साल पहले जब वह रासायनिक खेती करते थे उनकी लागत ज्यादा होती थी और आमदनी बेहद कम थी. लेकिन जबसे उन्होंने प्राकृतिक खेती करना शुरू किया है, तब से लगभग 90 प्रतिशत तक लागत कम हो गई है.
मौजूदा वक्त खेतों में ना तो रासायनिक खाद और ना ही कीटनाशक को इस्तेमाल में लेते हैं. लेकिन वह घर में ही कीट नियंत्रण को तैयार करते हैं, जैसे- नीम की पत्तियों का घोल, गाय के गोबर और गो मूत्र से कीट नियंत्रण बनाते हैं. आमदनी के बारे में उन्होंने बताया कि वह खेती-बाड़ी से सालाना लगभग 12 से 14 लाख रुपये तक कमा लेते हैं.