आज से कुछ साल पहले तक खेती को हीन भावना की दृष्टि से देखा जाता था. कुछ लोगों का मानना था कि जो लोग खेती करते हैं, वे मजबूरी में खेती कर रहे हैं. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जिस प्रकार से स्मार्ट खेती का चलन देश में बढ़ा है, उसने ऐसे लोगों को करारा जवाब दिया है जो सोचते थे कि खेती से केवल पेट भरा जा सकता है. बिहार के कुछ किसानों ने परंपरागत खेती से आगे बढ़कर तकनीक का इस्तेमाल कर विदेश में मिलने वाले फलों और सब्जियों की खेती की, जिन्हें पहले देश में सोचना भी मुश्किल था.
बिहार के किशनगंज जिले के एक ऐसे ही 76 वर्षीय किसान नागराज नखत हैं, जिन्होंने स्मार्ट खेती करके न केवल अपनी तकदीर बदली है, बल्कि ऐसे कई किसानों के लिए प्रेरणास्रोत बने हैं जो खेती में अपने भविष्य को तलाश रहे हैं. किसान नागराज नखत ने अपनी मेहनत, दूरदृष्टि और अद्वितीय सोच के साथ उन्होंने ड्रैगन फ्रूट की स्मार्ट खेती (Smart cultivation of dragon fruit) के क्षेत्र में एक नई पहचान बनाई है. उनका यह प्रयास केवल उनकी व्यक्तिगत सफलता की कहानी नहीं है, बल्कि इसने सीमांचल की पहचान को भी नई ऊंचाईयां दी हैं. स्मार्ट खेती की मिसाल बन चुके इस बुजुर्ग किसान के पास अलग-अलग राज्यों से किसान खेती की बारीकियां सीखने पहुंच रहे हैं.
स्मार्ट खेती से बदली सीमांचल की पहचान
विकास के कई पैमानों पर बिहार का पूर्णिया, किशनगंज और सीमांचल का अन्य इलाका देश के कई हिस्सों से पीछे है, लेकिन नगदी फसल के मामले में इस इलाके के किसानों का प्रदर्शन जबरदस्त है. अनानास, केला, अमरूद, और ड्रैगन फ्रूट की फसल ने जिस प्रकार से किसानों की जिंदगी में बड़ा बदलाव लाया है, वह काबिले-तारीफ है. स्मार्ट खेती से सीमांचल को नई पहचान मिली है.
जेपी आंदोलन के बाद खेती में आजमाया हाथ
स्मार्ट खेती की बात जब होती है, तो किशनगंज ठाकुरगंज नगर पंचायत के वार्ड संख्या 1 में रहने वाले 75 वर्षीय नागराज नखत का नाम सबसे पहले आता है. ये कोलकाता से बी.कॉम की पढ़ाई पूरी करने के बाद इलाके में खेती के जरिए अपनी पहचान बनाने वाले किसान हैं. कभी जेपी आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले नागराज नखत आज इलाके में किसानों के लिए एक आइकन बन चुके हैं.
बात 1968 की है, जब कोलकाता से ठाकुरगंज आए नागराज नखत ने पारंपरिक व्यवसाय छोड़कर खेती करने का निश्चय किया. उनके परिजनों ने भी उनका पूरा सहयोग किया और उन्होंने भुसावल से केला की पिल्लियां मंगवाकर इलाके में पहली बार सिंगापुरी केले की खेती शुरू की. धीरे-धीरे केला की अन्य किस्में भी उपजाई जाने लगीं. मालभोग, मर्तबान, जहाजी और रोवेस्टा वैरायटी की खेती कर उन्होंने इलाके में खेती के तरीके को पूरी तरह बदल दिया.
नब्बे के शुरुआती दशक में लाल केला की खेती
इसी दौरान उन्होंने इलाके में पहली बार लाल केला की खेती भी शुरू की. पहले केवल जूट, धान और गेहूं की फसलें उगाने वाले इस इलाके के किसानों को नगदी फसलों की ओर आकर्षित किया. 1980 के अंतिम दशक और 1990 के शुरुआती वर्षों में केले की खेती ने ठाकुरगंज को पूरे देश में एक अलग पहचान दिलाई. जहां कोलकाता जैसे बाजारों में बिहार के केले की विशेष मांग थी, वहीं ठाकुरगंज के केले ने अपनी अलग पहचान बनाई.
2014 से विदेशी फल ड्रैगन फ्रूट की खेती
लगभग 10 वर्षों तक खेती से दूर रहने के बाद नागराज नखत ने 2014 में ड्रैगन फ्रूट की खेती शुरू की. शुरुआत में केवल 100 पौधों से शुरू हुई यह खेती आज 7 एकड़ भूमि में फैली हुई है. कृषि विज्ञान केंद्र, किशनगंज के सहयोग से आज अपने खेत में 17,000 ड्रैगन फ्रूट के पौधों के साथ नई तकनीकों का प्रयोग कर वे इलाके के किसानों को नया रास्ता दिखा रहे हैं. उनके मार्गदर्शन में कई किसान अब ड्रैगन फ्रूट की खेती (Dragon Fruit Cultivation) कर रहे हैं और शानदार मुनाफा कमा रहे हैं.
यूट्यूब पर भी धूम मचा रही ड्रैगन फ्रूट की खेती
76 वर्षीय किसान नागराज नखत ने बताया कि उनकी ड्रैगन फ्रूट की खेती (Dragon Fruit Farming) पर आधारित डाक्यूमेंट्री फिल्म ने यूट्यूब पर लगभग दस लाख लोगों ने देखा है. पिछले साल हैदराबाद में आयोजित एग्री फिल्म फेस्टिवल में इस फिल्म ने प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया. उनकी ड्रैगन फ्रूट की खेती की कहानी अब यूट्यूब के माध्यम से भी लोगों तक पहुंच रही है.
बिहार के अलावा कई और राज्यों में हो रही सप्लाई
जिले में करीब 20-25 एकड़ में हो रही ड्रैगन फ्रूट की खेती से प्राप्त उपज को किशनगंज के स्थानीय बाजार के अलावा सिलीगुड़ी, कलिम्पोंग समेत आसपास के क्षेत्रों और कई अन्य राज्यों में भी सप्लाई किया जा रहा है. प्रगतिशील किसान नागराज नखत ने बताया कि इसकी बिक्री 250 से 450 रुपये प्रति किलो तक की जाती है. कोरोना काल में यह इम्यूनिटी बूस्टर के रूप में काफी चर्चित रहा. इसके बाद धीरे-धीरे कोलकाता, पटना सहित अन्य स्थानों के व्यापारी भी किसानों से फ्रूट्स की खरीद के लिए संपर्क में आने लगे हैं.
सालाना 50 मीट्रिक टन ड्रैगन फ्रूट का उत्पादन
2014 में 100 पौधों से शुरू हुई ड्रैगन फ्रूट की बागवानी आज 20,000 पौधों तक पहुंच चुकी है और सफलता की नई गाथाएं लिख रही है. 76 वर्षीय किसान नागराज नखत ने बताया मेरे जैन एग्रो फार्म के तहत निज भूखंड के 7 एकड़ क्षेत्र में, मैंने वर्ष 2017 में 1 मीट्रिक टन, 2018 में 3 मीट्रिक टन, 2019 में 6 मीट्रिक टन, 2020 में 12 मीट्रिक टन, 2021 में 25 मीट्रिक टन, 2022 में 35 मीट्रिक टन और 2023 में 50 मीट्रिक टन ड्रैगन फ्रूट का उत्पादन किया है जिससे लाखों में कमाई हो रही है.
कोसी-सीमांचल में हो रहा विस्तार
किशनगंज के ठाकुरगंज इलाके में मुख्य रूप से हो रही ड्रैगन फ्रूट की खेती का विस्तार अब आसपास के जिलों में भी हो रहा है. इसके लिए पूर्णिया, कटिहार, अररिया, और मधेपुरा के किसानों को कृषि विज्ञान केंद्र, किशनगंज द्वारा आयोजित प्रशिक्षण शिविर में खेती की तकनीक और संबंधित जानकारी प्रदान की जा रही है. प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद अन्य जिलों के किसान भी अब छोटे क्षेत्रफल में इस खेती की शुरुआत कर रहे हैं.
लेखक: डा० अलीमुल इस्लाम, विषय वस्तु विशेषज्ञ (कृषि प्रसार), कृषि विज्ञान केन्द्र, किशनगंज, बिहार
बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर, भागलपुर, बिहार