चिलचिलाती गर्मी और थपेड़े मारती लू. पारा 45 से 50 डिग्री के बीच. कैसे खुद को बचाया जाए, सब इसी जुगत में लगे हैं. कोई गमछा गीला करके सर ढक रहा है तो किसी ने पूरा चेहरा कवर किया हुआ है. बीते दिन यानि रविवार को मैं दिन में 1:30 बजे दिल्ली के साउथ एक्स बस स्टैंड पर खड़ा बस का इंतजार कर रहा था और भगवान से यही दुआ कर रहा था कि कोई बस तुरंत पुष्पक विमान की तरह आए और मुझे जल्दी घर छोड़ दे ताकि में ए.सी. की हवा ले सकूं. मेरी दुआ कुबूल हुई. बदरपुर 479 नंबर वाली बस आ गई. मैं बस में चढ़ा और बस चल दी. तभी कुछ ऐसा हुआ जिसने मेरे अलावा बस में मौजूद 14 और लोगों का दिल जीत लिया. चलते-चलते बस रुक गई. लाला पग पहने एक सरदारजी, उम्र तकरीबन 65 साल, बस में चढ़े और ड्राइवर को पानी पीलाने लगे. पानी पीकर बस का ड्राइवर मानो तृप्त हो गया. फिर कंटक्टर और बस के कुछ दूसरे प्यासे लोगों को सरदारजी ने पानी पिलाया और वो बस से उतर गए. मैनें बस की खिड़की से झांक कर देखा. सरदार जी ने फिर अपना लोटा भरा और अगली बस का इंतजार करने लगे. हां, यहां मुझे दो चीजों का एहसास हुआ. पहला ये कि दुनिया में नेकी मरी नहीं है और दूसरा ये कि मैं कितना खुदगर्ज़ हूं. मुझसे ये नहीं हुआ कि बस से उतरकर उनसे कुछ बात कर लेता या उन्हें एप्रिशिएट कर देता. चलो, अच्छा ही हुआ कि मैनें उनसे उनका नाम नहीं पूछा. अगर उनका नाम यहां आ जाता तो उनका ये निष्काम कर्म मैला हो जाता और ये भी स्वार्थ में गिन लिया जाता. अब इससे आगे इनके लिए क्या कहूं, ज्यादा तारीफ भी उन्हीं की होती है जो तारीफ पसंद होते हैं या जिन्हें तारीफ का शौक होता है.
मुझे अपने लिए चप्पल और चश्मा लेना था, सो मैं सरोजनी नगर उतरा और यहां मार्केट में घूमने लगा. अपना सामाना लेने और थोड़ी देर घूमने के बाद ही हालत खराब होने लगी. घर से मां ने प्याज खिला कर भेजा था ताकि उनके राजा बेटा को लू न लगे. लेकिन सच यही है कि - मैं हांफने लगा था और अब शरीर को पानी की जरुरत थी. जैसे ही मैं जूस काउंटर पर पहुंचा मैं क्या देखता हूं कि चार-पांच तंबू लगाकर कुछ 10-15 लोग रुहफज़ा शरबत लोगों को पीला रहे थे. भारी प्यास के बावजूद भी मैंने शरबत न पीकर अपनी जेब से फोन निकाला और इन लोगों की तस्वीरें खींच ली. मैनें एक शख्स से बात की और उन्हें अपना परिचय दिया और कहा कि जो काम आप लोग कर रहे हैं उसे मैं ज़रुर छापूंगा, आप सब ज़रा एक साथ आ जाइए. यकीन मानिए नेकी और भलाई का ऐसा इग्जांपल मैंने पहले नहीं देखा. वो लोग मेरे कहने के बावजूद भी एकसाथ फोटो खिंचाने नहीं आए क्योंकि सबने अपना काम बांटा हुआ था और यदि वह फोटो खिंचाते तो लोग प्यासे रह जाते.
हम लोग नेताओं से, घरवालों से, समाज से और तो और अपने आप से हताश रहते हैं. सारी जिंदगी यही सोचते रहते हैं कि सब मतलबी हैं, मेरी फिक्र किसी को नहीं और सारी जिंदगी औरों को कोसते रहते हैं, पर यकीन मानिए जब भी ऐसी घटनाएं सामने आती हैं तब मालूम होता है कि हम कितने खुदगर्ज़ हैं. मैं और हम कि इस लड़ाई में हम ये भूल गए हैं कि जानवर और इंसान में फर्क है और हम जानवर नहीं इंसान हैं. हम ही हैं जो समाज और दुनिया को बदल सकते हैं - प्यार, मोहब्बत, नेकी और भलाई से.