किसी भी देश की सुदृढ़ सामाजिक व्यवस्था का आधार यह होता है कि उसकी गरीब जनता को बुनियादी जरूरतों की चिंता न करनी पड़े. भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) इसी उद्देश्य से बनाई गई थी, ताकि ज़रूरतमंद लोगों को सस्ते गल्ले की दुकानों से अनाज और अन्य आवश्यक वस्तुएँ आसानी से मिल सकें. मगर हकीकत यह है कि यह व्यवस्था उन लोगों की बजाय दुकानदारों, बिचौलियों और भ्रष्टाचार के दलदल में उलझी व्यवस्था के हित में ज्यादा काम कर रही है.
गरीब को जिस हक से भरे पेट सोने का आश्वासन दिया गया था, वही हक उसके हिस्से से पहले ही काट लिया जाता है. अनाज कम तोला जाता है, गुणवत्ता घटिया दी जाती है, मशीनें सही वक्त पर काम नहीं करतीं, और कई बार तो उपभोक्ता को यह कहकर लौटा दिया जाता है कि "राशन खत्म हो गया!" सवाल यह है कि जब सिस्टम गरीबों को राहत देने के लिए बना है, तो उसमें सबसे ज्यादा मार भी उन्हीं पर क्यों पड़ती है?
सस्ते गल्ले की दुकानों पर उपभोक्ताओं की प्रमुख समस्याएँ
1. घटिया गुणवत्ता और अनियमित आपूर्ति
राशन कार्ड धारकों को अक्सर जो चावल, गेहूं और दालें मिलती हैं, वे या तो गीली, सड़ी-गली होती हैं या उनमें कीड़े लगे होते हैं. ऐसी स्थिति में सरकार की नीयत पर नहीं, बल्कि व्यवस्था की नाकामी पर सवाल उठता है. क्या गरीबों को मानवता के स्तर पर भी सम्मानित भोजन मिलना जरूरी नहीं?
इसके अलावा, राशन का सही समय पर उपलब्ध न होना भी बड़ी समस्या है. महीने की शुरुआत में जब लोग राशन लेने पहुँचते हैं, तो उन्हें यही जवाब मिलता है—"सरकारी गोदाम से अब तक सप्लाई नहीं आई है." और जब सप्लाई आती है, तब तक दुकान का अधिकांश माल बाजार में महँगे दामों पर बेच दिया जाता है.
2. तौल में हेराफेरी: गरीबों के हिस्से का कटना
गरीब के कटोरे से अनाज का एक दाना भी निकालना अपराध से कम नहीं, लेकिन सस्ते गल्ले की दुकानों पर यही रोज़ का खेल है.
कोई 5 किलो की जगह 4.5 किलो देता है, तो कोई गेहूं में मिट्टी मिलाकर तौल पूरी कर देता है.
उपभोक्ता विरोध करता है तो उसे चुप करा दिया जाता है, क्योंकि "सरकारी दुकान है, मनमानी तो होगी ही!"
3. बायोमेट्रिक मशीनों की तकनीकी गड़बड़ियां
- सरकार ने पारदर्शिता लाने के लिए ई-POS (इलेक्ट्रॉनिक प्वाइंट ऑफ़ सेल) मशीनें लगवाईं, ताकि राशन सही व्यक्ति तक पहुँचे, लेकिन यह सुविधा कई बार उपभोक्ताओं के लिए सिरदर्द बन जाती है.
- नेटवर्क समस्या के कारण कई बार मशीनें काम नहीं करतीं.
- बुजुर्गों और मज़दूरों की उंगलियों के निशान सही से स्कैन नहीं होते, जिससे उन्हें बिना राशन लौटना पड़ता है.
- आधार कार्ड लिंक न होने या अन्य तकनीकी खामियों के कारण हजारों गरीब परिवार राशन से वंचित रह जाते हैं.
4. दुकानदारों की मनमानी और भ्रष्टाचार
- सस्ते गल्ले की दुकानें जिन लोगों के लिए बनी थीं, उन्हीं के साथ भेदभाव और दुर्व्यवहार किया जाता है.
- गरीब, अनपढ़ और अशक्त लोगों से गाली-गलौज तक की जाती है.
- कई दुकानदार केवल अपने परिचितों और रसूखदारों को पहले राशन दे देते हैं.
- राशन वितरण की लिस्ट में फर्जी नाम जोड़ दिए जाते हैं और असल ज़रूरतमंद व्यक्ति को हाथ मलते रहना पड़ता है.
5. राशन कार्ड में गड़बड़ियाँ और पात्रता की समस्या
कई बार गरीबों के राशन कार्ड बिना किसी सूचना के रद्द कर दिए जाते हैं. पात्रता की शर्तें इतनी उलझी हुई हैं कि जिन्हें राशन मिलना चाहिए, उन्हें नहीं मिलता, और जिनके पास हर सुविधा मौजूद है, वे इसका लाभ उठाते हैं.
संभावित समाधान: व्यवस्था को सुधारने की दिशा में ठोस कदम
सरकार यदि वास्तव में इस योजना को सफल बनाना चाहती है, तो कुछ मौलिक सुधार अनिवार्य हैं:
1. भ्रष्टाचार पर सख्त नियंत्रण
सीसीटीवी कैमरे हर दुकान पर अनिवार्य किए जाएँ, और इनकी लाइव फीड प्रशासन को मिले. राशन वितरण की ऑनलाइन मॉनिटरिंग हो और अगर गड़बड़ी मिले, तो दुकानदार का लाइसेंस तत्काल रद्द किया जाए.
2. शिकायतों का त्वरित समाधान
एक टोल-फ्री हेल्पलाइन और मोबाइल ऐप के जरिए उपभोक्ताओं को सीधे शिकायत दर्ज करने की सुविधा मिले. यदि कोई दुकानदार दोषी पाया जाता है, तो उसे दोबारा सरकारी दुकान का लाइसेंस न दिया जाए.
3. डिजिटल प्रणाली को मजबूत बनाना
ई-POS मशीनों में सुधार हो, ताकि नेटवर्क और तकनीकी दिक्कतों के कारण किसी गरीब को राशन से वंचित न रहना पड़े. जिन लोगों की उंगलियों के निशान स्कैन नहीं होते, उनके लिए वैकल्पिक पहचान प्रणाली विकसित की जाए.
4. सीधे बैंक खाते में सब्सिडी (DBT - Direct Benefit Transfer)
यदि राशन वितरण प्रणाली से भ्रष्टाचार खत्म नहीं किया जा सकता, तो खाद्य सब्सिडी की राशि सीधे गरीबों के बैंक खातों में भेजी जाए, जिससे वे अपनी पसंद की दुकान से राशन खरीद सकें.
5. राशन कार्ड की नियमित समीक्षा और पारदर्शिता
अपात्र लोगों के फर्जी राशन कार्ड रद्द किए जाएँ और वास्तविक ज़रूरतमंदों को जोड़ा जाए. राशन की गुणवत्ता जाँचने के लिए हर जिले में 'क्वालिटी कंट्रोल टीम' बनाई जाए.
निष्कर्ष: गरीबों के हक की लड़ाई कब तक?
गरीबों को सस्ता अनाज देना सरकार का कर्तव्य है, न कि कोई दया. लेकिन जब सिस्टम खुद उनके हक को निगलने लगे, तो बदलाव की जरूरत महसूस होती है. अगर सरकारी दुकानों पर पारदर्शिता, ईमानदारी और जवाबदेही लाई जाए, तो यह योजना वास्तव में उन लोगों तक पहुँचेगी, जिनके लिए इसे बनाया गया था. जब तक इस सिस्टम में सुधार नहीं होता, तब तक गरीब के हिस्से का राशन कहीं और ही जाता रहेगा, और वह उसी लाइन में खड़ा मिलेगा—जिसमें वह हर महीने अपने हक की भीख माँगता है. सवाल यह है कि क्या वह दिन आएगा जब गरीब को बिना किसी लड़ाई के उसका हक मिलेगा? जवाब सरकार के हाथ में है.
लेखक:
रबीन्द्रनाथ चौबे
कृषि जागरण, ब्यूरो चीफ, उत्तर प्रदेश, बलिया