ह्यूमन साइकोलॉजी कहती है कि जन्म के पहले दिन से ही हम सीखना प्रारंभ कर देते हैं और मृत्यु होने तक कुछ न कुछ सीखते ही रहते हैं. वास्तव में देखा जाए तो इसांन के सफल या असफल होने के केवल एक ही कारक है कि वो जिंदगी से कितना सीख पाया और सीखे हुए को किस तरह अमल कर पाया.
सीखते रहना ही जीवन है और सीखाने वाला परमात्मा का सवरूप है, इस बात को हमारे पूवर्जों ने सदियों पहले अनुभव किया. विश्व को सबसे पहले गरू की महिमा बताते हुए हमने कहा कि "गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥" अर्थात वो गुरू ही है जो ब्रह्मा के समान आपके अंदर विचारों, बातों, विद्याओं, कलाओं, गुणों आदि को जन्म देता है. वो गुरू ही है जो भगवान विष्णु के समान आपका पालन करता है एवं समाज में खड़े होने की शक्ति प्रदान करता है और वो गुरू ही है जो महेश के समान आपकी बुराईयों, कमियों, निर्बलताओं का वध करता है. इसलिए गुरू को शत्-शत् नमन है.
सीखने वाले के लिए सृष्टि का कण-कण गुरू है, वो चिंटी से भी बड़ी सीख ले सकता है. लेकिन इंसान अच्छे गुरू की खोज में दर-दर भटकता है. अपने भविषय की चिंता कर वो बड़े-बड़े स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालय जाता है. पर वहां भी उसे गुरू के दर्शन नहीं होते.
असल में आज़ शिक्षा संस्थानों में इंसान ज्ञान की बजाय भौतिक सूख प्राप्त करने का साधन खोजने लगा है. विषयों का चुनाव यह सोचकर होने लगा है कि भविष्य में उससे कितना धन अर्जित किया जा सकेगा. जबकि सत्य तो यह है कि जो विद्या धन कमाने की लालसा से सिखी जाए वो कुछ और भले हो लेकिन विद्या नहीं हो सकती. शास्त्रों में कहा गया है कि "सा विद्या या विमुक्तये" अर्थात विद्या वह है जो सभी तरह के दुखों, कठिनाईयों एवं बंधनों से मुक्त करती है. इसलिए गुरू की प्राप्ति इस बात पर निर्भर करती है कि क्या वास्तव में आप उनके पास विद्या की प्राप्ति के लिए गए हैं. जिस वक्त आप यह महसूस करेंगें कि आपके ज्ञान प्राप्त करने का मूल कारण सत्य को जानना, समाज का कल्याण करना, देश की रक्षा करना है और प्रकृति से प्रेम करना है, उस वक्त संसार का कण-कण गुरू प्रतीत होगा.