बचपन में "मेंढ़क जल का राजा है" कविता शायद आपने भी पढ़ा होगा, लेकिन क्या आप बता पाएंगें कि मेंढ़क को आखिरी बार आपने कब और कहां देखा था. आम दिनों की छोड़िये, क्या बरसात के मौसम में भी आपको मेंढक के ' टर्र-टर्राने की आवाज़ सुनाई दी? अगर नहीं तो बहुत संभव है कि आपका क्षेत्र डेंगू और मलेरिया जैसी बीमारियों के चपेट में आ जाएं. जी हां, आपको भले ये बात सुनकर थोड़ा अजीब लगे, लेकिन मंहगें से महंगी एंटी मॉस्क्वीटो कोइन्स या दवाइयाँ भी आपको मच्छरों के प्रकोप से नहीं बचा सकती. ऐसा इसलिए है क्योंकि मच्छरों के सबसे बड़े शिकारी को हमने ही जाने-अनजाने में लगभग खत्म कर दिया है.
गौरतलब है कि मेंढ़क मुख्य तौर पर बरसात के दौरान बढ़ने वाले मच्छर, मच्छरों के लार्वा, टिड्डे, बीटल्स समेत कनखजूरों को खाकर वातावरण में बैलेंस बनाए रखते हैं. इसके अलावा चींटियों, दीमक और मकड़ी को खाकर भी ये इकोलॉजिकल चैन में अपना योगदान निभाते हैं. लेकिन बीते कुछ सालों में फसलों पर अंधाधून खतरनाक पेस्टीसिड्स के इस्तेमाल के कारण इनकी आबादी खत्म होती जा रही है. कीटनाशकों के अलावा बढ़ते हुए प्रदूषण के कारण भी ये प्रजाति आज़ विलुप्त होने की कगार पर आ गई है.
बता दें कि मेंढक उभयचर वर्ग का जंतु है, यानि कि ये पानी के साथ जमीन पर भी आसानी से रह सकता है, लेकिन बढ़ते हुए जल प्रदुषण के कारण आज़ इनकी मात्रा सिमट कर रह गई है. यही कारण है कि हर साल बड़ी तादाद में अचानक लोग डेंगू-मलेरिया का शिकार होने लगे हैं. बता दें कि कई सालों तक हमारे द्वारा फ्रांस को मेंढक की टंगड़ी का निर्यात किया जाता रहा. टंगड़ी को जिंदा मेंढक से काट लिया जाता था. जब तक हम सचेत हुए तब तक बेचारे मेंढक विलुप्ती के कगार पर आ गए थे.