आज यानी 9 अगस्त को सभी जनजातीय क्षेत्रों में विश्व आदिवासी दिवस तीर-कमान, ढोल-मृदंग और पारंपरिक वेशभूषा तथा पार नृत्य के साथ मनाया गया. खूब भाषणबाज़ी हुई. जैसे अन्य ‘दिवसों’ पर होती है, वही शाश्वत वादे, वही पुरानी घोषणाएँ, वही भावनात्मक नारों की गूंज. लेकिन आज, एक दिन बाद, जब उत्सव की थकान उतर चुकी है, सवाल यह है कि क्या हमने इस अवसर पर असली आत्मचिंतन किया, या फिर इसे भी कैलेंडर पर एक और ‘त्योहार’ बनाकर छोड़ दिया?
धरती पर जब पहली बार मानव ने आँख खोली थी, तब उसके हाथ में न मोबाइल था, न मशीन! बस एक बीज था और आकाश में टकटकी लगाए विश्वास की दृष्टि. उसने पेड़ों को अपना देवता माना, नदियों को माता और पर्वतों को रक्षक. यह आदिम दर्शन आज भी हमारे आदिवासी समाज के रक्त में बहता है. वे वृक्षों को अपना कुल-गोत्र कहते हैं, हर पशु पक्षी में अपना पूर्वज ढूँढ़ते हैं, और हर नदी में माँ का आशीष. पर विडंबना यह कि हम, स्वयं को 'सभ्य' कहने वाले, उसी धरती और जंगल को बेचकर अपनी तरक्की के महल खड़े कर रहे हैं. हमारे विकास की चकाचौंध ने उनकी सादगी और प्रकृति की पूजा को न केवल मिटाया है, बल्कि उस जीवन दर्शन को भी खाई के मुहाने पर ला खड़ा किया है, जहाँ होमो सेपियंस की आख़िरी प्रजाति के बचे रहने की संभावना भी सवालों में है.
2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में आदिवासी (अनुसूचित जनजाति) कुल जनसंख्या का 8.6% यानी करीब 10.4 करोड़ हैं. पर NCRB के आँकड़े कहते हैं कि 2019 से 2022 के बीच इनके खिलाफ अपराधों में 33% की वृद्धि हुई. वर्ष 2022 में ही 10,055 मामले दर्ज हुए; जिनमें ज़मीन हड़पने, शोषण, बलात्कार और हत्या के मामले शामिल हैं. सबसे अधिक मामले मध्य प्रदेश, राजस्थान और ओडिशा में सामने आए. आदिवासी महिलाएं बलात्कार के कुल मामलों में 15% शिकार बनीं. यह आँकड़े केवल अपराध नहीं, बल्कि उस संवेदनहीनता के प्रमाण हैं, जिसे हमारा वोट-आधारित राजनीतिक तंत्र पाल-पोस रहा है.
क्षुद्र वोट की राजनीति ने आदिवासी और गैर-आदिवासी के बीच कृत्रिम ‘लगाव’ और ‘बिलगाव’ दोनों को एक साथ पैदा किया है. पाँचवीं और छठी अनुसूची के जिलों में दशकों से यह धारणा बोई गई है कि सभी गैर-आदिवासी उनके दुश्मन हैं. जबकि सच्चाई यह है कि कई पीढ़ियों से बसे राजवंशों, सरकारी कर्मचारियों, शिक्षकों, डाक्टरों, व्यापारियों,किसानों और कारीगरों ने आदिवासी समुदाय के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खेत, खदान, सड़क और स्कूल खड़े किए. विकास की जो भी रौनक आज इन इलाकों में दिखती है, उसमें गैर-आदिवासियों की भूमिका को नकारना इतिहास से धोखा है. यहाँ सवाल उठना चाहिए कि क्या बाकी जो समाज है, बाकी जो धरती पर मनुष्य हैं, वे मंगल ग्रह से आए हैं? वे भी तो इसी धरती के मूल निवासी हैं. इस बिलगाव को रोकना होगा, वरना भारत एक बड़े अराजकता और गृहयुद्ध की ओर खिंच जाएगा.
नफरत का यह बीज किसके खेत में बोया जा रहा है, यह पहचानना ज़रूरी है. ऐसा प्रतीत होता है कि भारत को अस्थिर करने में लगी ताकतें, अपने एजेंटों के जरिए इस विलगाव प्रक्रिया को हवा दे रही हैं. हालत यह है कि दक्षिण बस्तर के सदियों पुराने गांव ‘रामाराम’, जिसके बगल से 'सबरी' नदी बहती है, कइयों के तो नाम के अंत में भी राम जुड़ा हुआ है पर आज वहाँ भी कुछ लोग राम का नाम लेने में संकोच नहीं, बल्कि उन्हें गाली देने में गर्व महसूस करते हैं. यह बदलाव किसी ‘स्वाभाविक’ सामाजिक विकास का परिणाम नहीं, बल्कि सुनियोजित मानसिक प्रदूषण है.
और फिर आती है सबसे कटु सच्चाई, आदिवासी समाज का आंतरिक विघटन. पढ़-लिखकर ‘संपन्न’ हुए युवाओं में अपनी वेशभूषा और भाषा को लेकर हीन भावना है. जिस सीढ़ी से वे ऊपर आए, उसे तोड़कर अपने पीछे वालों के रास्ते बंद कर देते हैं. राजनीतिक नेता अपने ही समाज की वोट-तिजारत में दलाल बन गए हैं. उनकी राजनीति अपने तथा अपने परिवार तक ही अधिकतम फायदा पहुंचाने तक की सीमित हो जाती है.हर चुनाव में वही आश्वासन, वही हेराफेरी. “यथा राजा तथा प्रजा” का शास्त्रीय सत्य यहाँ विकृत रूप में सामने है.
प्रकृति के साथ आदिवासियों का रिश्ता केवल भौतिक नहीं, आध्यात्मिक है. लेकिन इस रिश्ते को तोड़ने का अपराध बाहरी भी कर रहे हैं और भीतरी भी. और तब तक, जब तक आदिवासी समाज अपने असली शत्रु की पहचान नहीं करेगा, अपनी कमियों और कमजोरियों को स्वीकार कर उन्हें दूर नहीं करेगा,, कोई भी आरक्षण, अनुदान या कानून उन्हें वास्तविक विकास की ओर नहीं ले जा सकता.
“The greatest threat to our planet is the belief that someone else will save it.” — Robert Swan
दुनिया का सबसे खूबसूरत और रहने योग्य ग्रह-पृथ्वी-हमारे हाथों ‘नर्क’ में बदलने को तैयार है. और जो लोग इसे बचा सकते थे, वे जंगल, नदियों और जमीन की रक्षा करने के बजाय राजनीतिक लालच और विकास के झूठे वादों के आगे हथियार डाल चुके हैं.
विश्व आदिवासी दिवस सिर्फ आदिवासी अधिकारों की याद, रैली और भाषणबाजी का दिन नहीं होना चाहिए बल्कि यह दिन हमें अपने असली सभ्यता-परीक्षण, आदिम जीवन दर्शन का दर्पण दिखाना चाहिए. सवाल यह है कि क्या हम उनसे सीखेंगे... संयम, प्रकृति से जुड़ाव, और संतोष का जीवन? या फिर वोट, विकास? और वर्चस्व की अंधी दौड़ में, आखिरी हरे पत्ते को भी अपने हाथों से नोच देंगे?