जैसा कि सभी जानते हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है. एक बड़ी आबादी खेती-किसानी पर निर्भर है. किसान जमीन को सींचकर ही पेट भरते हैं. कंपनियों की तरह किसानों में भी होड़ रहती है कि अधिक से अधिक उन्नत बीज लाकर अच्छी बुवाई कर सकें. इस होड़ के फायदे हैं तो नुकसान भी हैं. फायदा ये कि किसान आर्थिक रूप से संपन्न बनते हैं जबकि एक बड़ा नुकसान यह है कि इस होड़ में किसानों ने उन प्रजातियों की बुवाई बंद कर दी जिनकी ग्रोथ बेशक थोड़ी सुस्त है लेकिन सेहत के लिए उतनी ही फायदेमंद हैं. ऐसे में आपको चीनिया केले के बारे में जानकारी दे रहे हैं जो लगभग विलुप्त हो चुका था पर अब इसकी डिमांड विदेशों में भी है. इसकी खेती से किसान अच्छी कमाई कर सकते हैं.
चिनिया केले को मिला पुर्नजन्म- बिहार के वैज्ञानिकों ने केले की चिनिया प्रजाति को पुनर्विकसित करने का काम किया है. जोकि पिछले कुछ समय से राज्य में अपनी पहचान खो चुका था. यह खाने में टेस्टी और ओषधीय गुणों से भरा था. इसे लोग बड़े चाव से खाते थे. विशेषज्ञों का कहना है कि राज्य में 80 फीसदी तक उत्पादन चिनिया केलों का होता था और अब चिनिया केला फिर से अपनी पहचान बना रहा है.
टिश्यू कल्चर से तैयार की प्रजाति- मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक़, बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर ने टिश्यू कल्चर की मदद से केले की चिनिया प्रजाति को पुर्नजन्म दिया है. वैज्ञानिकों का कहना है कि चिनिया केले के गुणवत्तायुक्त निरोगी पौधों का कई स्तर पर परीक्षण हो चुका है, अब यह पौधा मिट्टी में लगा दिया गया है. टिश्यू कल्चर से तैयार हुए पौधे में 13-15 महीने में फल आने लगते हैं और केला भी 30 से 35 किलोग्राम तक आता है. जबकि सामान्य विधि से केले की बुवाई में 16- 17 महीने में फल लगते हैं.
चिनिया केला के फायदे - चिनिया केला खटटा-मीठा होने के साथ खाने में बेहद टेस्टी होता है. आटा और चिप्स बनाने में इसका इस्तेमाल किया जाता है. यह आयरन और पाचन के लिए अच्छा होने के कारण बाजार में अच्छी कीमत पर बिकता है, इसके अलावा गठिया, हाई ब्लड प्रेशर, किडनी, आंखों की बीमारी और इम्यून सिस्टम बूस्ट करने में बेहद कारगर है. इससे किसानों की इनकम भी बढ़ जाएगी.
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ऐसे विलुप्त हुई थी केले की प्रजाति- विशेषज्ञों का कहना है कि बिहार की पहचान चिनिया और मालभोग केले का अंत ऐसे ही नहीं हुआ, यह प्रजाति पनामा बिल्ट नामक बीमारी की चपेट में आ गई थी. 30 साल पहले इतने अच्छे उर्वरक मौजूद नहीं थे. हालांकि किसानों ने थोड़ा बहुत तो केलों को बचाने की कोशिश की लेकिन जब बीमारी नहीं रुकी तो किसानों ने केलों की दूसरी प्रजातियों की बुवाई की ओर रुख कर लिया.