पानी की बढ़ती किल्लत सभी के लिए चुनौती बनकर सामने आने लगी है. इसी क्रम में सरकार और विशेषगयों का मानना है कि कैसे इस समस्या को जल्द से जल्द कम किया जाए. ऐसे में पारंपरिक तरीकों से की जा रही खेती में अक्सर यह देखा गया है कि पानी की खपत बहुत अधिक होती है. जिसको कम करना अति आवश्यक हो गया है.
कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP) के आंकड़ों के मुताबिक, सालाना देश में उगाई जाने वाली फसल जैसे धान, गेहूं, मक्का, ज्वार दलहन, तिलहन सहित अन्य फसल की खेती किसान करते हैं. वहीँ अगर धान की बात की जाए, तो एक किलो धान की खेती में 3,367 लीटर पानी की खपत होती है, जो अपने आप में एक बहुत बड़ा आकड़ा है.
पंजाब में घटते जल-स्तर को लेकर बढ़ी चिंता
वहीँ पंजाब की बात की जाए, तो यहाँ पर मुख्यतः धान की खेती प्रमुख तौर पर की जाती है. ऐसे में पंजाब का भूमिगत जल तेजी से घटता नजर आ रहा है. पंजाब में हो रहे धान की खेती पर अगर एक नजर डालें, तो खरीफ सीजन में 30 लाख हेक्टेयर में वाले जल-गजल धान को मुख्य अपराधी के रूप में देखा जाता है. जिससे राज्य का जलभृत खाली होता नजर आ रहा है और पंजाब रेगिस्तान में तब्दील होता नजर आ रहा है.
इस मामले को गंभीरता से लेते हुए पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू), लुधियाना के पूर्व कुलपति बीएस ढिल्लों ने कहा कि अब से कुछ वर्षों में किसान भाइयों के लिए खेती करना ना मुमकिन सा हो जाएगा, क्योंकि पानी के बढ़ते अभाव में यहां कोई फसल नहीं हो सकती है.
उन्होंने धान की किस्मों के लिए एक नए किस्म की सिफारिश की. जहां तक भूजल स्तर का सवाल है, तो राज्य में स्थिति चिंताजनक है क्योंकि तीन जिलों गुरदासपुर, मुक्तसर और पठानकोट को छोड़कर सभी जिलों में अत्यधिक जल दोहन किया जा रहा है और पुनर्भरण से अधिक स्तर में गिरावट देखी जा रही है. मध्य पंजाब सबसे अधिक प्रभावित है, और राज्य के कुल 138 ब्लॉकों में से 109 ब्लैक जोन बन गए हैं.
धान की बुवाई को लेकर पंजाब में लगी रोक
पानी की बढती समस्या को देखते हुए राज्य में धान की बुवाई को 15 जून तक के लिए स्थगित कर दिया है. हालांकि जानकारों का कहना है कि इसे आगे भी बढ़ाया जा सकता है. इसे बढ़ाकर 30 जून या जुलाई के पहले सप्ताह तक के लिए टाला जा सकता है.
वहीँ दूसरी ओर पूसा 44 किस्म का जिक्र करते हुए ढिल्लों ने कहा कि 162 दिनों की विकास अवधि वाली ऐसी किस्मों को तुरंत बंद कर देना चाहिए और बीजों को नष्ट कर देना चाहिए. धान एक स्वपरागण (Self-pollinated) वाली फसल होने के कारण किसान एक ही किस्म का उपयोग कई वर्षों तक करते हैं. "हमें इस प्रवृत्ति को बदलने की जरूरत है. धान उत्पादकों को मौसम के हिसाब से किस्मों का चयन करना चाहिए, ताकि कोई बीमारी न हो, ”पीएयू के अनुसंधान फसल सुधार विभाग में एक अतिरिक्त निदेशक के रूप में काम करने वाले चावल प्रजनक गुरजीत सिंह मंगत ने सुझाव दिया.
पूछे गये सवालों पर उन्होंने कहा कि PUSA 44 किस्म राज्य में 20 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में उगाई जाती है, जिसे परिपक्व होने में कम से कम 162 दिन लगते हैं, जिसमें नर्सरी तैयार करने में लगने वाला समय भी शामिल है. यह किस्म मोगा, बरनाला, संगरूर और लुधियाना में उगाई जाती है. इन किस्मों को गर्मी के चरम पर बोया जाता है जब वाष्पीकरण अधिकतम होता है और पानी की खपत 40 प्रतिशत बढ़ जाती है. धान शोधकर्ताओं के लिए चुनौती उन किस्मों की तलाश करना है, जो जुलाई में मानसून आने पर बोई जा सकती हैं, ”मंगत ने एक नई किस्म पीआर 130, एचकेआर 47 के साथ पीआर 121 की एक क्रॉस ब्रीड का जिक्र करते हुए कहा."यह मध्य-परिपक्व, बेहतर मिलिंग गुणवत्ता विशेषताओं के साथ सहिष्णु, बैक्टीरियल ब्लाइट प्रतिरोधी किस्म है. यह प्रत्यारोपण के बाद लगभग 105 दिनों में परिपक्व हो जाता है.
इसमें लंबे दाने होते हैं और प्रति एकड़ औसतन 30 क्विंटल धान की उपज के साथ कीटों के हमले के लिए प्रतिरोधी है,”मंगत ने कहा, पीएयू के लिए चुनौती 90 दिनों की फसल अवधि वाली नई किस्मों को लाने की है. मंगत ने सुझाव दिया कि पीली पूसा जैसी किस्में जिन्हें परिपक्व होने में पांच महीने से अधिक समय लगता है और किसी कृषि संस्थान की किसी एजेंसी द्वारा अनुमोदित नहीं हैं, उन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिए.