जलवायु परिवर्तन लंबे समय तक चलने वाला परिवर्तन है. मौसम के पैटर्न के सांख्यिकीय वितरण में जो एक पारिस्थितिकी के लिए बड़ी समस्या है और अपने जहरीले स्तर के साथ लंबे समय तक बना रहता है. यह सर्वविदित तथ्य है कि ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन जलवायु परिवर्तन का ही भाग है.कृषि जलवायु परिवर्तन का लक्ष्यकर्ता और योगदानकर्ता दोनों है. कृषि ग्रीन हाउस गैसों का दूसरा सबसे बड़ा स्त्रोत है.
2014 में भारत के अंदर उत्सर्जीत कुल ग्रीन हाउस गैसों में 3402 मिलियन मीट्रिक टन कार्बन डाई ऑक्साइड था, जो कुल वैश्विक ग्रीन हाउस गैस का 6.55 % था. (www.climatelinks.org), इसका मुख्य कारण है रसायनों का उपयोग ,उर्वरक, कम पोषक तत्व उपयोग-दक्षता वाले कीटनाशक, एंटेरिक किण्वन, प्रत्यारोपित चावल की खेती आदि.इसके अतिरिक्त, 1/3 विश्व स्तर पर उत्पादित भोजन जलवायु परिवर्तन के कारण या तो खत्म हो जाता है या बर्बाद हो जाता है.(www.worldbank.org)जलवायु लचीलापन को आम तौर पर एक सामाजिक-पारिस्थितिक तंत्र के लिए अनुकूली क्षमता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है. जलवायु परिवर्तन द्वारा उस पर लगाए गए बाहरी दबावों के मुकाबले तनावों को अवशोषित और कार्य को बनाए रखना औरअनुकूलन, पुनर्गठनऔर अधिक वांछनीय विन्यासों में विकसित होना, जो सिस्टम की स्थिरता में सुधार करते हैं, जिससे यह भविष्य के जलवायु परिवर्तन प्रभावों के लिए बेहतर तैयार हो जाता है.
कृषि पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव :-
आज इस दुनिया में शायद ही कोई ऐसा होगा जिस पर जलवायु परिवर्तन का कोई प्रभाव न पड़ा हो जिसमे कृषि विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील है .जलवायु परिवर्तन के विभिन्न प्रकार के खतरे है. उनमें बढता तापमान ,कार्बन दी ऑक्साइड एवं वर्षा जो प्रत्यक्ष रूप से पौधे की वृधि को एवं अप्रत्यक्ष रूप से भूमि की उपलब्धता, सिंचाई, खरपतवार वृद्धि, कीट और रोगों द्वारा प्रकोप आदि को प्रभावित करते है.जलवायु परिवर्तन में हर किसी को चोट पहुँचाने की क्षमता है, लेकिन किसानों के इसकी चपेट में आने की संभावना सबसे अधिक रहती है और वे इससे सर्वाधिक प्रभावित होते भी हैं.
भारत में कृषि प्रमुखतः
मौसम पर आधारित है और जलवायु परिवर्तन की वज़ह से होने वाले मौसमी बदलावों का इस पर बेहद असर पड़ता . 1970 के बाद से वैश्विक औसत तापमान 1.7°C प्रति शताब्दी की दर से बढ़ रहा है.उच्च तापमान फसलों की गुणवत्ता और उपज को कम कर देता है और यह खरपतवार और कीट प्रसार को भी प्रोत्साहित करता है.गर्मी तनाव के कारण फसले जल्दी परिपक्वता की और चली जाती है जिससे उनकी उपज में कमी आ जाती है .औसत तापमान में 1°c वृद्धि के परिणामस्वरूप चावल जैसे C3 पौधे की अनाज उपज में 6% (ससींद्रन।, 2000) वहीं गेहूं, सोयाबीन, सरसों, मूंगफली, आलू में 3 से 7% की गिरावट दर्ज की गयी है.उत्तर-पश्चिमी भारत में विशेष रूप से गेहूँ के तापमान में हर 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से उपज में 4 एम .टी. की कमी आती है.वर्षा के पैटर्न में परिवर्तन अल्पकालिक फसल की विफलता की संभावना को और लंबे समय तक उत्पादन में गिरावट को बढ़ाता है. वर्षा के पैटर्न में बदलाव किट -लाभकारी किट के बिच की परस्पर क्रिया को बदल देता है. वर्षा के पैटर्न में बदलाव से पानी की उपलब्धता में बदलाव होगा, जो खरपतवारो को बढ़ावा देगा. इस प्रकार से कृषि रसायनों के प्रयोग की दर बढेगी जो पर्यावरण प्रदुषण को बढ़ावा देगा.किसान हर साल चाहता है कि उसकी फसल की उत्पादन प्रणाली में कम विभिन्नता के साथ उपज अच्छी आये पर हर साल बड़ते सूखे एवं बाढ़ की वजह से उसके उत्पादन में बहुत अधिक विभिन्नता के साथ कम उपज हो रही है.सूखे के कारण उपलब्ध पशुओ के चारे की गुणवत्ता भी कम हो जाती है
जलवायु परिवर्तन का कृषि पर निम्न प्रभाव पड़ रहे हैं, जिससे किसानों की चिंताए बढ़ रही हैं
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असमान वर्षा होने की वज़ह से हमारे देश में फसलों का खराब होना आम बात है. कई गाँवों में देखने को मिलता है कि हरियाली का नामो-निशान तक नहीं है और किसानों के लिये पशुओं का पेट भर पाना एक बड़ी चुनौती बन गया है.
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होने वाले नए परिवर्तनों को तुरंत अपनाने में समस्या उत्पन्न होती है. हर मौसम में किसान अलग-अलग फसल लेते हैं या उनका सम्मिश्रण करते हैं. बोरवेल, ट्रैक्टर तथा अन्य कृषि मशीनरी पर उन्हें भारी खर्च करना पड़ता है.
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फसल के लगातार प्रभावित होने की वज़ह से ऐसे किसानों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है, जो गाँव में अपनी खेती की ज़मीन छोड़कर निकटवर्ती शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. शहरों में इन किसानों को केवल मज़दूरी का ही काम मिल पाता है, क्योंकि उनके पास किसी भी प्रकार का कौशल नहीं होता.
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भारत में मानसून की अच्छी वर्षा होतीहै, लेकिन बढ़ते तापमान की समस्या से भी देश को दो-चार होना पड़ता है.
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भारत में 120 मिलियन हेक्टेयर ऐसी भूमि है, जो किसी-न-किसी प्रकार की कमी (Degradation) से ग्रस्त है। लघु तथा सीमांत किसान इससे सर्वाधिक प्रभावित होते हैं.
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कृषि की मौसम पर अत्यधिक निर्भरता की वज़ह से फसलों पर लागत अधिक आती है, विशेषकर मोटे अनाजों की फसलों पर, जिनकी खेती अधिकतर उन क्षेत्रों में होती है, जो वर्षा पर निर्भर होते हैं.
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अनुमान लगाया है कि आने वाले 80 वर्षों में खरीफ फसलों के मौसम में औसत तापमान में 0.7 से 3.3°C की वृद्धि हो सकती है. इसके साथ वर्षा भी कमोबेश प्रभावित होगी, जिसकी वज़ह से रबी के मौसम में गेहूँ की उपज में 22% की गिरावट आ सकती है तथा धान का उत्पादन 15% तक कम हो सकता है.
जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभाव कम करने के उपाय :-
वर्षा जल के उचित प्रबन्धन द्वारा
तापमान वृधि के साथ फसलो मे सिंचाई की अधिक आवश्यकता पड़ती है.ऐसे मे जमींन का सरक्षण व वर्षा जल को एकत्रित करके सिंचाई हेतु प्रयोग मे लाना एक सहयोगी एवं उपयोगी कदम हो सकता है .वाटर शेड प्रबन्धन के माध्यम से हम वर्षा जल को सिंचित कर सिंचाई के रूप मे प्रयोग कर सकते है .इससे हमें जहा एक और हमे सिंचाई की सुविधा मिलेगी. वहीं दूसरी और भू जल पुनभरण मे भी मदद मिलती है .
जैवीक एवं समग्रित खेती
खेती मे रासायनिक खादों व कीटनाशको के इस्तेमाल से जहां एक और मृदा की उत्पादकता घटती है वहीं दूसरी और इनकी मात्र भोजन श्रंखला के माध्यम से मानव शरीर मे पहुंच जाती है.जिससे अनेक प्रकार की बिमारिया होती है.रासायनिक खेती से हरित गेसो के उत्सर्जन मे भी इजाफा होता है अंतः हमे जैविक खेती करने की तकनीको पर अधिक से अधिक जोर देना चाहिए.एकल कृषि के बजाय समग्रित खेती मे जोखिम कम होता है.समग्रित खेती मे अनेक फसलो का उत्पादन किया जाता है.जिससे यदि एक फसल किसी प्रकोप से समाप्त हो जाये थो दूसरी फसल से किसान की रोजी रोटी चल सकती है.
मौसम पूर्वानुमान द्वारा
जलवायु परिवर्तन के इस दौर मे किसान भाई मौसम के पूर्वानुमान के द्वारा आंधी ,तूफ़ान एवं असमय वर्षा होने से होने वाले नुक्सान को कम कर सकते है .इसके लिए मौसम विभाग द्वारा किसान भाइयों के लिए संभाग स्तर पर कृषि विश्वविद्यालयोंमें कृषि मौसम क्षेत्र इकाई एवं जिले स्तर पर प्रत्येक कृषि विज्ञान केन्द्र पर जिला कृषि मौसम इकाई की स्थापना की गयी है, जिससे किसान भाई हर मंगलवार एवं शुक्रवार को मौसम आधारित कृषि सलाह बुलेटिन व्हाट्स उप द्वारा प्राप्त कर असमय मौसम में आने वाले परिवर्तन से किसान भाई उनकी फसलों में होने वाले नुक्सान को समय रहते कम कर सकते हैं.
फसल उत्पादन में नयी तकनीको का विकास
जलवायु परिवर्तन के साथ साथ हमें फसलो के प्रारूप एवं उनके बीज बुने के समय में भी परिवर्तन करना होगा.पारम्परिक ज्ञान एवं नयी तकनीको के समन्वयन तथा समावेश द्वारा वर्षा जल सरक्षण एवं कृषि जल का उपयोग मिश्रीत खेती व इन्टरक्रॉपिंग करके जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटा जा सकता है.कृषि वानिकी अपनाकर भी हम जलवायु परिवर्तन के खतरों से निजात पा सकते है.फसल बिमा के विकल्पों को मुहैया करना, ताकि लघु एवं सीमांत किसान इनका लाभ उठा सके.
क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर
असल में सीएस तीन आपस मे जुडी हुयी चुनौतियों से निपटने की कोशिश करती है. उत्पादकता और आय बढ़ाना ,जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होना और जलवायु परिवर्तन को कम करने में योगदान देना इसका अर्थ हमें खेतों में डाली जाने वाली चीजों को लेकर ज्यादा योग्य होना होगा.उदहारण के तौर पर सिंचाई का लेते हैं – जल के उचित इस्तेमाल के लिए सूक्ष्म सिंचाई को लोकप्रिय बनाना होगा .जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होना यह दर्शाता है कि खेतों को जलवायु परिवर्तन को झेलने लायक बनाना होगा.उतना ही महत्वपूर्ण है कि नीतियों का ऐसा महूल बनाया जाये, जो स्थानीय और राष्ट्रीय संस्थानों को मजबूत करे.
सीएस के तरीकों को अपनाने के लिए किसानों को उनकी भूगोलिक स्तिति के अनुरूप तकनीकी और आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने की जरूरत है. इसमें प्रमुख है जीरो बजट खेती व परम्परागत कृषि विकास योजना, जिनकों आज भारत में तेजी से बढ़ावा मिल रहा है. यह एक समेकित कृषि प्रणाली है, जो रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक से दूर रह कर स्थानीय रूप से सतत प्रकृति की होने के कारण यह तरीका खेतों की जलवायु परिवर्तन को झेलने की क्षमता बढ़ने और जलवायु परिवर्तन को कम करने में काफी कारगर है.
लेखक
अतुल गालव, वस्तु विशेषज्ञ (कृषि मौसम विज्ञान
डॉ दीपक चतुर्वेदी, वरिष्ट वैज्ञानिक एवं अध्यक्ष
शीशपाल, वरिष्ट अनुसन्धान अध्येता (प्रसार शिक्षा )