हरियाणा के झज्जर जिले के गांव ढाणा के किसान अनिल कुमार खेती में आए दिन नए प्रयोग करते रहते हैं. जिसके साथ ही उनकी खेती में दिलचस्पी के साथ ही लाभ भी बना रहता है.
अनिल बताते हैं, “हमारे गेहूं का रेट 4000 से 5000 प्रति क्विंटल है. इसका कारण यह है कि मैं कभी केमिकल श्रेणी पर निर्भर नहीं रहता. केमिकल से खेती करने वाले किसान अगर 25 क्विंटल गेहूं का उत्पादन करते हैं तो मैं 15 क्विंटल का ही उत्पादन करता हूं. उसके अनुसार मेरे गेहूं का रेट तय होता है. क्योंकि अगर अच्छी चीज किसी को दी जाए तो वो आपसे उसी चीज की मांग करता है.”
किसान अनिल मानते हैं कि ज्यादा से ज्यादा चीज़ों को प्रोसेस करके बेचा जाए, जैसा वो करते हैं, मुनाफा अच्छा है. जैसे गेहूं से आटा, दलिया, सूजी, इत्यादि. इस प्रकार रेट भी ज्यादा मिलता है जिससे लाभ होता है. वहीं वो बताते हैं कि गेहूं की एक किस्म है पैगंबरी सोना-मोती. यह शुगर रोगियों के लिए काफी लाभदायक है और इसका रेट भी ज्यादा मिलता है.
मौजूदा सीजन के अनुसार उनके खेतों में अभी गन्ना, बेल वाली सब्जियां जैसे भिंडी, लोबिया, ग्वार, तोरई, पेठा, घीया इत्यादि की फसल लगी हुई है. वहीं उन्होंने अपने खतों में पूरब और पश्चिम दिशा में लेमन ग्रास लगाया है. खेती में एक प्रयोग के तौर पर उन्होंने अपने खेतों में नाईट्रोजन उत्सर्जन वाले पेड़ों को खेतों में लगाया जिससे उसके नीचे खेतों में लगे फसल को काफी लाभ मिलता है.
बाकी किसानों के लिए उनका कहना है कि उन्हें ज्यादा से ज्यादा पेड़ों को अपने खेतों में लगाना चाहिए क्योंकि आजकल किसान पेड़ों को हटा कर फार्म बनाने का प्रयास करते हैं जिससे नुकसान ही है, फायदा नहीं.
प्रति एकड़ कमाई है 40 हजार सालाना
इन सभी तरह से खेती करके अनिल अपनी एक एकड़ की जमीन से एक साल में 40,000 की कमाई कर लेते हैं. वहीं वो बताते हैं कि वो खेती के लिए सिर्फ देसी बीज का ही उपयोग करते हैं, चाहे बीज हाई यील्ड हो या लो यील्ड, वो हाईब्रिड बीजों का उपयोग नहीं करते हैं. साथ ही वो बीजों को संरक्षित करने का भी कार्य करते हैं.
अनिल बताते हैं कि वो समय के अनुसार अलग-अलग प्रकार की खेती करते हैं, ज्यातार इसमें सीजनल फसलें शामिल हैं. अनिल अपने गांव में 6 एकड़ जमीन पर मिश्रित खेती करते हैं. सीजन के अनुसार उन्होंने बताया कि वो अब कपास की खेती करेंगे, उसके साथ ही अपनी जमीन के हर तीसरे हिस्से पर हरी खाद लगाएंगे. हरी खाद में इस मौसम के जो भी बीज हैं उन सभी को लगाकर पानी दिया जाता है और जब पेड़ एक से डेढ़ फीट हो जाए तो उसे जमीन में दबा दिया जाता है. उसके बाद मॉनसून की पहली बारिश होते ही उन सभी पर बाजरे की खेती होगी. बाजरे के साथ एक खेत में बाजरा और मूंग लगाएंगे और दूसरे खेत में बाजरा और लोबिया लगाएंगे. इससे दलहनी और एकल फसल का कांबिनेशेन बनता है. वहीं जहां कपास लगाई है उसके अंदर ही लोबिया मिक्स कर दलहन और तिलहन फसल वे लगाएंगे. इसमें दलहनी मुख्य तौर पर जमीन की उर्वरा शक्ति को बढ़ाता है.
उनकी कहना है, “वहीं मैं जमीन की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए फसलों से जो वेस्ट निकलता है, उसे अपने खेतों में मिला देता हूं, जैसे अभी सरसों की फसल से निकले के तोरी के वेस्ट को मैंने खेतों में मिला दिया. दूसरे किसानों की फसलों से निकलने वाला वेस्ट भी मैं अपने खेतों में मिलाने के लिए ले लेता हूं. वेस्टेज में केमिकल का अंश बहुत ही कम होता है तो उसका उपयोग खेतों में कार्बन की मात्रा बढ़ाने के लिए किया जाता है.”
आगे दूसरे सीजन की बात करें तो उन्होंने अपने खेतों के छोटे-छोटे हिस्से कर रखे हैं जिसमें गन्ना के साथ बेल वाली सब्जियों जैसे मिर्ची, टमाटर, भिंडी, इत्यादि हैं. साथ ही खेत का एक हिस्सा वो ऐसा रखते हैं जो बिल्कुल प्राकृतिक है जिसकी वो कभी जुताई नहीं करते हैं. वे अन्य खेतों की जुताई भी कम करते हैं. क्योंकि जुताई करने से जमीन का कार्बन ज्यादा जाता है और जमीन को नुकसान होता है, खासकर गर्मी के समय.