इस वर्ष का एफ.ए.आई. वार्षिक सेमिनार 2019 ‘उर्वरक सेक्टर के लिए नया दृष्टिकोण’ विषय को समर्पित किया गया है. इसमें 1200 से अधिक प्रतिनिधियों के भाग लेने की संभावना है, जिसमें लगभग 150 विदेशी प्रतिनिधि शामिल हैं. सेमिनार का उद्घाटन 2 दिसंबर, 2019 को होटल अंदाज, एरोसिटी, नई दिल्ली में किया जाएगा, इसके बाद अगले दो दिनों में तकनीकी सत्र और 4 दिसंबर, 2019 को समापन सत्र होगा. सभी 19 पेपरों को सेमिनार के दौरान प्रख्यात वक्ताओं द्वारा प्रस्तुत किया जाएगा जिसमें नीति निर्माताओं, उद्योग के दिग्गजों और राष्ट्रीय व वैश्विक संस्थानों के विशेषज्ञ शामिल होंगे.
गौरतलब है कि भारत 2027 तक विश्व के सर्वाधिक आबादी वाले देश चीन से आगे निकल जाएगा और 2050 तक भारत की आबादी 170 करोड़ (1.7 बिलियन) हो जाएगी. वर्ष 2050 तक खाद्यान्न उत्पादन की आवश्यकता वर्तमान 285 मिलियन टन के मुकाबले 400 मिलियन टन होगी. इस प्रकार बढ़ती आबादी की खाद्य सुरक्षा हमारे देश के लिए एक महत्वपूर्ण एजेंडा बनी रहेगी. वर्तमान 34 मिलियन टन पोषक तत्वों के उपयोग (जिसमें 27 मिलियन टन रसायनिक उर्वरक और 7 मिलियन टन कार्बनिक व जैविक उर्वरक) की तुलना में वर्ष 2050 तक, कुल उर्वरक पोषक तत्वों की आवश्यकता लगभग 60 मिलियन टन (जिसमें 45 मिलियन टन रसायनिक उर्वरक और 15 मिलियन टन कार्बनिक व जैविक उर्वरक हैं) होने का अनुमान है. पोषक तत्वों की भारी आवश्यकता के मद्देनजर, भारतीय मृदाओं की कुल पोषक आवश्यकताओं को केवल कार्बनिक व जैविक स्त्रोतों से पूरा नहीं किया जा सकता है. कार्बनिक खादों की अपर्याप्त उपलब्धता और जैविक उर्वरकों में पोषक तत्वों की बहुत कम मात्रा को देखते हुए यह सच है. इस प्रकार रसायनिक उर्वरक भविष्य में भी प्रमुख भूमिका निभाते रहेंगे. लेकिन, कार्बनिक उर्वरकों द्वारा आपूर्ति की जाने वाली कार्बन सामग्री मृदा के भौतिक, रसायनिक और जैविक गुणों के लिए महत्वपूर्ण है. वास्तव में, कार्बनिक खादों के संयोजन में उपयोग किये जाने पर रसायनिक उर्वरकों की दक्षता बढ़ जाती है.
यूरिया
यूरिया इकाइयों की निश्चित लागत की प्रतिपूर्ति वर्ष 2002-03 के लागत डेटा के आधार पर की जा रही है. तब से, लागत तत्वों में बहुत वृद्धि हुई है जो मौजूदा नीतियों के तहत अमान्य और अवैतनिक बनी है. वर्ष 2014 में अधिसूचित संशोधित एन.पी.एस. III नीति ने यूरिया में प्रति टन 350 रूपये की मामूली वृद्धि, न्यूनतम निर्धारित लागत 2300 रूपये प्रति टन और गैस आधारित 30 वर्षों से अधिक पुराने संयंत्रों को 150 रूपये प्रति टन का विशेष मुआवजा देने की अनुमति दी. लेकिन इस राशि का भुगतान 5 साल के अंतराल के बाद भी किया जाना बाकी है. संशोधित एन.पी.एस. प्प्प् नीति के अनुसार बकाया राशि का भुगतान न करने पर पिछले पांच वर्षों में 5600 करोड़ रूपये का कुल प्रभाव पड़ा है. फिक्सड कॉस्ट एलिमेंटस में और भी बढ़ोत्तरी हुई है, जो पाॅलिसी के तहत गैर-मान्यता प्राप्त रही है. वर्ष 2003 में एन.पी.एस. नीति के लागू होने के बाद ऊर्जा की खपत के मानकों को 4 गुना कम किया गया है. इसकी शुरूआत 2004 (एन.पी.एस.III), इसके बाद 2006 (एन.पी.एस.III) और फिर 2015 और 2018 में न्यू यूरिया पॉलिसी (एन.यू.पी.) के तहत हुई. इसे ऊर्जा दक्षता हासिल करने के लिए किए गए निवेश को मान्यता दिए बिना किया गया. ऊर्जा मानदंडों को मोप-अप करना एन.पी.एस. नीति के विरूद्ध है, जिसमें आश्वासन दिया गया है कि न तो पूंजीगत व्यय मान्य होगा और न ही दक्षता में सुधार मोप-अप किया जाएगा. वर्तमान ऊर्जा कीमतों के आधार पर 2004 से 2018 तक ऊर्जा की कमी का असर 4300 करोड़ रूपये प्रति वर्ष है. 1 अप्रैल 2020 से ऊर्जा मानदंडों में और कमी प्रस्तावित है, जिसका प्रति वर्ष मानदंडों में और कमी प्रस्तावित है, जिसका प्रति वर्ष 2200 करोड़ रूपये का नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. उर्वरक कंपनियों को कुल गैस आपूर्ति में घरेलू गैस की हिस्सेदारी वर्ष 2012-13 में 76% से घटकर वर्तमान में लगभग 30% हो गई है. 40,000 करोड़ रूपये से अधिक के निवेश के साथ एफ.सी.आई. और एच.एफ.सी. की 5 बंद इकाइयों के पुनरूद्धार सहित नए निवेश जारी हैं. इससे भारत यूरिया उत्पादन में आत्मनिर्भर होगा, बशर्ते मौजूदा इकाइयों से उत्पादन जारी रहे. मौजूदा यूरिया संयंत्रों का स्वास्थ्य बहाल करने का देश के लिए मजबूत आर्थिक और वाणिज्यिक अर्थ है क्योंकि ये संयंत्र नए संयंत्रों की तुलना में बहुत कम कीमत पर यूरिया की आपूर्ति कर रहे हैं और आयात की तुलना में सस्ते भी हैं.
फास्फोरिक एवं पोटाशिक फर्टिलाइजर्स
पी. एण्ड के. उर्वरकों का घरेलू विनिर्माण तैयार उर्वरकों के मुकाबले कच्चे माल/मध्यवर्ती सामग्री के लिए प्रतिकूल और उत्क्रमी कर ढ़ांचे के कारण ग्रस्त है. फॉस्फोरिक एसिड और अमोनिया पर सीमा शुल्क 5% है जो तैयार उर्वरकों के समान है. रॉक फास्फेट और सल्फर पर सीमा शुल्क 2.5% है. कच्चे माल/मध्यवर्ती पर आयात शुल्क घरेलू विनिर्माण की लागत को बढ़ाता है जिससे आयात की तुलना में उन्हें अक्षम दिया है. इसी तरह, उर्वरकों पर 5% की तुलना में अमोनिया और सल्फ्यूरिक एसिड पर 18% जी. एस.टी. से घरेलू उत्पादन की लागत बढ़ जाती है. घरेलू और आयातित पी.एंड के उर्वरकों के लिए सब्सिडी दर समान है, जिससे घरेलू मूल्य संवधर्न के लिए कोई बढ़ावा नहीं मिलता है.
भुगतान संबंधी समस्याएं
डी.बी.टी. के कार्यान्वयन ने सब्सिडी के साप्ताहित भुगतान का आश्वासन दिया. हालाँकि, यह आश्वासन लगातार बजट की कमी के कारण पूरा नहीं हुआ. डी.बी.टी. के कार्यान्वयन ने सब्सिडी भुगतान में 6 महीनों की और देरी कर दी है क्योंकि अब यह पी.ओ.एस. मशीनों के माध्यम से उर्वरकों की बिक्री से जुड़ा हुआ है. पहले इसका भुगतान जिले में सामग्री प्राप्त होने पर किया जाता था. इससे कार्यशील पूंजी की आवश्यकता और ब्याज लागत में वृद्धि हुई है. उर्वरक कंपनियों की डी.बी.टी. मॉडल के कार्यान्वयन से पहले बकाया सब्सिडी के लंबित बैकलॉग को निपटाने का आश्वासन दिया गया था. इस आश्वासन का भी सम्मान नहीं किया गया क्योंकि डी.बी.टी. प्रणाली के बाहर बड़ी मात्रा में बकाया जारी है. उर्वरक कंपनियों द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार, 1 नवंबर, 2019 तक कुल 33,691 करोड़ रूपये बकाया है. इसमें से 20,853 करोड़ रूपये डी.बी.टी. के तहत और शेष 12,838 करोड़ रूपये डी.बी.टी. के अलावा हैं. 20,434 करोड़ रूपये जिसके लिए बिल तैयार किए गए हैं, बकाया हैं लेकिन भुगतान नहीं किया गया है और शेष 13,257 करोड़ रूपये बकाया है जिससे उर्वरक कंपनिया बिल नहीं बना पा रही हैं. वर्ष 2015-16 से बकाया सब्सिडी इस प्रकार है -
स्त्रोत: # = उर्वरक विभाग
*= 23 उर्वरक कंपनियों के डेटा के आधार पर एफ.ए.आई. में संकलित
@= 28 उर्वरक कंपनियों के डेटा के आधार पर एफ.ए.आई. में संकलित
@@ = अनुमानित
& = 25 उर्वरक कंपनियों के डेटा के आधार पर एफ.ए.आई. में संकलित
#= ब्याज लागत का अनुमान 10% वार्षिक ब्याज के आधार पर और यह मानकर लगाया जाता है कि अवैतनिक सब्सिडी एक वर्ष में 6 महीने के लिए लंबित है.
यूरिया की लागत का 78% सब्सिडी है. कार्यशील पूंजी की आवश्यकता में वृद्धि और डी.बी.टी. के कार्यान्वयन के कारण ब्याज लागत में वृद्धि को अभी यूरिया नीति में मान्यता नहीं दी गई है. यूरिया इकाइयां बढ़ी हुई एम.आर.पी. के माध्यम से किसानों से यह लागत नहीं वसूल सकती है क्योंकि एम.आर.पी. सरकार द्वारा तय की जाती है.
प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डी.बी.टी.)
उर्वरक क्षेत्र के लिए डी.बी.टी. का वर्तमान मॉडल वास्तव में डी.बी.टी. नहीं है क्योंकि उर्वरक सब्सिडी अभी भी उद्योग के माध्यम से जारी है. वर्तमान में किसानों के खातों में सब्सिडी के हस्तांतरण को तार्किक निष्कर्ष पर ले जाने के लिए कोई रोड मैप नहीं है.
हितधारकों पर प्रचलित नीतियों का प्रभाव
घरेलू यूरिया उद्योग पर प्रभाव
नीतियों और उनके कार्यान्वयन ने भारतीय यूरिया संयंत्रों की व्यवहार्यता को बुरी तरह प्रभावित किया है. 50% परिचालित इकाइयां पहले से ही घाटे में चल रही हैं. बाकि प्लांट बहुत कम मार्जिन पर चल रहे हैं और यदि सुधारात्मक उपाय नहीं किये जाते हैं तब उनके भी घाटे में जले जाने की संभावना है. संपूर्ण उर्वरक उद्योग एक नकारात्मक मार्जिन पर चल रहा है, जैसा की तालिका में दर्शाया गया है. सब्सिडी के भुगतान में देरी और नकदी संकट ने पहले ही दो प्रमुख यूरिया संयंत्रों को निलंबित/कम उत्पादन करने के लिए मजबूर कर दिया है.
फास्फोरस व पोटाशिक उर्वरक उद्योग पर प्रभाव
प्रतिकूल कराधान व्यवस्था के कारण घरेलू फास्फेटिक उर्वरकों की क्षमता उपयोग 2010-11 में 72% से घटकर वर्ष 2018-19 में 65% हो गयी है. गत् पांच वर्षों में इस क्षेत्र में केवल 5 लाख टन की सीमांत क्षमता में वृद्धि हुई है.
कृषि और किसानों पर प्रभाव
डी.ए.पी. से यूरिया की एम.आर.पी. का अनुपात वर्ष 2009-10 में 1.9:1 से बढ़कर वर्तमान में 4.1:1 हो गया. इसी तरह, उसी अवधि के दौरान एम.ओ.पी. से यूरिया की एम.आर.पी. का अनुपात 0.9:1 से बढ़कर 3.2:1 हो गया. इससे पी.एंड के. उर्वरकों की तुलना में अत्यधिक सब्सिडाइज्ड यूरिया का अधिक उपयोग हुआ है. वर्ष 2010-11 में एन.पी.के. उपयोग अनुपात 4.7:2.3:1 से बढ़कर 2018-19 में 6.6:2.6:1 हो गया. भारत में यूरिया का खुदरा मूल्य विश्व में सबसे कम है. वर्ष 1960-69 दौरान फसल प्रतिक्रिया अनुपात (किलो उत्पादित अनाज/किग्रा. एन.पी.के. उपयोग) 12.1 से गिरकर 2010-17 के दौरान 5 हो गया (चार्ट देखें).
इससे फसलों की पैदावार में स्थिरता आई है. भारतीय फसल पैदावार का स्तर विकसित देशों और यहां तक कि हमारे कुछ पड़ोसी देशों से भी कम है, जैसा कि नीचे चार्ट में दर्शाया गया है.
पर्यावरण पर प्रभाव
पोषक तत्वों के असंतुलित उपयोग ने पर्यावरण संबंधी चिंताओं को भी जन्म दिया है. विशेष रूप से, कृषि में नाइट्रोजन प्रबंधन एक वैश्विक चिंता बन गया है.
क्या जरूरत है
मृदा स्वास्थ्य को बहाल करने के उपाय, कृषि उत्पादकता और किसानों की आय में सुधार सरकार ने पोषक तत्वों के असंतुलित उपयोग के मुद्दों को दूर करने की कोशिश की है. इनमें मृदा स्वास्थ्य कार्ड का वितरण, यूरिया की नीम कोटिंग, 50 किलोग्राम से 45 किलोग्राम यूरिया बैग का आकार शामिल है. लेकिन इन उपायों ने वांछित परिणाम नहीं दिए हैं. जाहिर है, यूरिया की कीमत कृषि पोषक तत्वों के पैटर्न में एक प्रमुख कारण बनी हुई है. आज एक प्रमुख सुधार की आवश्यकता है. सब्सिडी का उपयोग सभी उर्वरक पोषक तत्वों के संतुलित और एकीकृत उपयोग को बढ़ावा देने के लिए रसायनिक उर्वरकों, जैविक खादों, कार्बनिक खादों, गौण व सूक्ष्म पोषक तत्वों सहित सभी ड्डोतों के माध्यम से किया जाना चाहिए. घरेलू उर्वरक उद्योग को बहाल करने के लिए आवश्यक उपाय
तत्काल उपाय
यूरिया इकाइयों को निर्धारित लागत का भुगतान 2014 में अधिसूचित संशोधित एन.पी.एस. III नीति के
अनुसार
- 2008-09 के बाद निश्चित लागत में सूचकांक आधारित स्वचालित संशोधन हेतु नीति
- यूरिया के लिए एन.बी.एस. नीति/डी.बी.टी. लागू होने तक मौजूदा ऊर्जा मानदंडों का बढ़ाना
- अतीत की सभी बकाया राशि का भुगतान और वर्तमान आवश्यकता को पूरा करने लिए पर्याप्त बजट आवंटन
- पी. एंड के. उर्वरकों के लिए कच्चे माल/मध्यवर्ती पर सीमा शुल्क में छूट देकर प्रतिकूल कराधान मुद्दों को संबोधित करना और अमोनिया व सल्फ्यूरिक एसिड पर जी.एस.टी. की दर को कम से कम 12% करना
मध्य अवधि के उपाय
-यूरिया के लिए एन.बी.एस. नीति का कार्यान्वयन. बहुत हद तक यूरिया इकाइयों के उत्पादन की लागत के बीच विषमता को कम करने वाले ऊर्जा मानदंडों के गैस पूलिंग और युक्तिकरण के साथ, यूरिया में अब एनबी. एस. व्यावहारिक है.
-किसानों के बैंक खातों में सीधे उर्वरक सब्सिडी हस्तांतरित करके सही अर्थों में डी.बी.टी. का कार्यान्वयन. सरकार पहले ही किसान सम्मान निधि को सफलतापूर्वक किसानों के बैंक खातों में हस्तांतरित कर रही है. इसलिए, उर्वरक सब्सिडी के लिए डी.बी.टी. भी अब पूर्णतया व्यावहारिक है.