राजमा की खेती रबी ऋतु में की जाती है। इसकी खेती मैदानी क्षेत्रों में अधिक की जाती हैं। इसकी अच्छी पैदावार के लिए 10-27℃ ताप की जरुरत होती है। इसकी खेती के लिए दोमट तथा हल्की दोमट भूमि अधिक उपयुक्त होती है. राजमा को भारत में कई जगहों पर किडनी बीन्स राजमा इत्यादि नामों से भी जाना जाता है. आपकी जानकारी के लिए बता दें कि राजमा की खेती का प्रचलन रबी ऋतु में मैदानी क्षेत्र में विगत कुछ वर्षों से ही हुआ है. अभी राजमा के क्षेत्रफल व उत्पादन के आंकड़े उपलब्ध नहीं है.
भूमि की तैयारी
प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा 2-3 बार की जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करने पर खेत तैयार हो जाता है. बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी अति आवश्यक है.
प्रजातियां
क्र.सं. |
प्रजातियां |
दानों का रंग |
उत्पादकता कु०/हे० क्विंटल |
पकने की अवधि (दिन) |
1. |
पी०डी०आर-14 (उदय) |
लाल चित्तीदार |
30-35 |
125-130 |
2. |
मालवीय-137 |
लाल |
25-30 |
110-115 |
3. |
वी०एल०-63 |
भूरा चित्तीदार |
25-30 |
115-120 |
4. |
अम्बर (आई०आई०पी०आर-96-4) |
लाल चित्तीदार |
20-25 |
120-125 |
5. |
उत्कर्ष (आई०आई०पी०आर-98-5) |
गहरा चित्तीदार |
20-25 |
130-135 |
6. |
अरूण |
- |
15-18 |
120-125 |
बीज की मात्रा
120 से 140 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30-40 सेमी० तथा पौधे से पौधा 10 सेमी०. बीज 8-10 सेमी० गहराई में थीरम से बीज उपचार करने के बाद डालना चाहिए, ताकि पर्याप्त नमी मिल सके
बुवाई
अक्टूबर का तृतीय एवं चतुर्थ सप्ताह बुवाई के लिए उपयुक्त है. पूर्वी क्षेत्र में नवंबर के प्रथम सप्ताह में भी बोया जाता है. इसके बाद बोने से उत्पादन घट जाता है.
उर्वरक
राजमा में राइजोबियम ग्रन्थियां न होने के कारण नत्रजन की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है. 120 किग्रा० नत्रजन, 60 किग्रा०फास्फेट एवं 30 किग्रा० पोटाश प्रति हेक्टेयर तत्व के रूप में देना आवश्यक है. 60 किग्रा० नत्रजन तथा फास्फेट एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय तथा बची आधी नत्रजन की मात्रा टाप ड्रेसिंग में देनी चाहिए. 2% यूरिया के घोल का छिड़काव 30 दिन तथा 50 दिन पर करने से उपज बढ़ती है.
सिंचाई
राजमा में 2 या 3 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है. बुवाई के चार सप्ताह बाद प्रथम सिंचाई अवश्य करनी चाहिए. बाद की सिंचाई एक माह के अन्तराल पर करें, सिंचाई हल्के रूप में करनी चाहिए ताकि पानी खेत में न ठहरे.
निराई-गुड़ाई
प्रथम सिंचाई के बाद निराई एवं गुड़ाई करनी चाहिए. गुड़ाई के समय थोड़ी मिट्टी पौधे पर चढ़ा देनी चाहिए, ताकि फली लगने पर पौधे को सहारा मिल सके. फसल उगने के पहले पेन्डीमेथलीन का छिड़काव (3.3 लीटर/हेक्टेयर) करके भी खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है.
बीज शोधन
उपयुक्त फफूँदीनाशक पाउडर जैसे कार्बान्डाजिम या थीरम 2 ग्रा./प्रति किग्रा० बीज की दर से बीज शोधन करने से अंकुरण के समय रोगों का प्रकोप रूक जाता है.
रोग नियंत्रण
पत्तियों पर मौजेक देखते ही डाइमेथेयेट 30 प्रतिशत ई.सी. 1 लीटर अथवा इमिडाक्लोप्रिड 17.8 प्रतिशत एस.एल. की 250 मिली० मात्रा को 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करने से सफेद मक्खियों का नियंत्रण हो जाता है. जिससे यह रोग फैल नहीं पाता. रोगी पौधे को प्रारम्भ में ही निकाल दें ताकि रोग फैल न सके.
फसल कटाई एवं भण्डारण
जब फलियां पक जायें तो फसल काट लेनी चाहिए. अधिक सुखाने पर फलियां चटकने लगती हैं. मड़ाई या कटाई करके दाना निकाल लेते हैं.