बिहार के मिथिला और सीमांचल क्षेत्र में मखाना सिर्फ एक खेती नहीं, बल्कि संस्कृति और लाखों लोगों की आजीविका का आधार है. देश के कुल मखाना उत्पादन का 85 प्रतिशत हिस्सा बिहार से आता है, जहां लगभग 15,000 हेक्टेयर क्षेत्रफल में इसकी खेती होती है और सालाना करीब 10,000 टन पॉप्ड मखाना उत्पादित होता है. लेकिन मखाना फार्मिंग पर आई एक रिपोर्ट ने मखाना उत्पादक किसानों की जमीनी सच्चाई और बढ़ते जलवायु संकट की गंभीरता को उजागर किया है.
मंगलवार को पटना के होटल मौर्य में ‘क्लाइमेट चेंज एंड मखाना फार्मर्स ऑफ बिहार’ रिपोर्ट रिलीज़ की गई. बिहार के सहकारिता मंत्री प्रेम कुमार ने यह रिपोर्ट लॉन्च की.
उन्होंने इस मौके पर कहा, “मखाना अब सिर्फ देश ही नहीं बल्कि दुनिया में पहुंच रहा है. मखाना हब मधुबनी और दरभंगा में सरकार ने 21 नई सहकारी समितियां बनाई हैं. मखाना खेती और इससे जुड़े किसानों को किस तरह से फायदा पहुंचे, सरकार इसके लिए गंभीर है. किशनगंज, पूर्णिया, सहरसा, कटिहार, मधेपुरा, सुपौल में महिलाएं कई मखाना कंपनियों की मालिक बनी हैं. यह दिखाता है कि मखाना खेती में महिलाओं की भूमिका बड़े स्तर पर है. इस रिपोर्ट में जो सिफारिशें की गई हैं, मेरी कोशिश होगी कि उन्हें जमीन पर उतारा जाए.”
रिपोर्ट को असर सोशल इम्पैक्ट एडवायजर्स के मुन्ना झा और रीजनरेटिव बिहार के इश्तेयाक़ अहमद ने मिलकर तैयार किया है. रिपोर्ट को पारंपरिक मखाना किसानों, विशेषज्ञों और सरकारी संस्थानों से गहन संवाद, साक्षात्कार और फील्ड पर अध्ययन कर बनाया गया है. रिपोर्ट बताती है कि जहां एक ओर मखाना की अंतरराष्ट्रीय मांग तेजी से बढ़ी है. वहीं, दूसरी ओर पारंपरिक किसान जलवायु परिवर्तन और सही बाजार नहीं मिलने की समस्या से जूझ रहे हैं.
जलवायु परिवर्तन की मार
रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर बिहार के तालाबों, चौरों और झीलों में होने वाली मखाना खेती अत्यधिक जल पर निर्भर करती है. लेकिन पिछले एक दशक में जलवायु परिवर्तन की वजह से क्षेत्र में बारिश का पैटर्न अस्थिर हो गया है. 2024 में राज्य की 40 नदियां मार्च तक ही सूख गई थीं. गर्मी बढ़ने और वर्षा की असमानता के चलते अप्रैल–मई में चौर क्षेत्रों में पानी की भारी कमी देखी गई, जिससे पौधारोपण नहीं हो पाया. इससे चौर क्षेत्र की मखाना खेती पर खतरा मंडराने लगा है.
डॉ. मंगलानंद झा (केवीके, मधुबनी) ने रिपोर्ट में कहा है कि मखाना की खेती के लिए 20–35 डिग्री तापमान, 50–90% आर्द्रता और 1000–2500 मिमी वार्षिक वर्षा अनुकूल मानी जाती है. लेकिन अब तापमान 40°C से ऊपर जा रहा है और आर्द्रता घटकर 40–45% रह गई है. वर्षा औसतन 800 मिमी तक सिमट गई है, इससे मखाना की उत्पादकता पर सीधा असर पड़ा है.
किसान और बाजार के बीच दूरी
रिपोर्ट यह भी बताती है कि पारंपरिक मखाना किसान - जैसे कोल, चाईं और वनपर समुदाय जो जल संसाधनों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी विशेषज्ञता रखते हैं, लेकिन वे ज़्यादातर भूमिहीन हैं. ऐसे किसानों को सरकार की योजनाओं जैसे ₹80,000 प्रति एकड़ की सब्सिडी, मखाना बीमा और उपकरण सहायता का लाभ नहीं मिलता. एक मखाना किसान महेश्वर ठाकुर ने बताया कि "जब उत्पादन अधिक होता है, तो मजदूरी महंगी हो जाती है और जब उत्पादन कम होता है, तो व्यापारी दाम गिरा देते हैं. किसान दोनों ओर से मार खाता है." इसी अस्थिरता के चलते किसान कई बार मखाना औने-पौने दामों पर बेचने को मजबूर हो जाते हैं.
रिपोर्ट यह भी बताती है कि मखाना के प्रसंस्करण कार्यों में महिलाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं -सफाई, धूप में सुखाना, ग्रेडिंग, रोस्टिंग, पॉपिंग जैसे कार्य पारंपरिक तकनीकों से महिलाएं करती हैं. लेकिन न तो उन्हें श्रम के अनुरूप पारिश्रमिक मिलता है और न ही कोई स्वास्थ्य या सामाजिक सुरक्षा.
इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले इश्तेयाक़ अहमद कहते हैं, “मखाना पानी में होने वाली फसल है, लेकिन हमारे तालाब प्रदूषित हो गए हैं. इससे मखाना को जरूरी पोषण नहीं मिल पा रहा. बदलते मौसम, नदी-तालाब में ताजा पानी की कमी से यह खेती सिमट रही है. इसीलिए मखाना किसानों को सब्सिडी की जरूरत है. पट्टे की समय सीमा भी बढ़नी चाहिए ताकि किसी साल अगर किसानों को नुकसान हो तो उसकी भरपाई हो सके. इसके अलावा मनरेगा और जल-जीवन हरियाली मिशन से मखाना किसानों को जोड़ा जाना चाहिए.”
असर सोशल इम्पैक्ट एडवायजर्स में बिहार-झारखंड के क्लाइमेट एक्शन हेड मुन्ना झा कहते हैं कि यह रिपोर्ट वैज्ञानिक रिपोर्ट नहीं है, बल्कि एक सामाजिक रिपोर्ट है जो मखाना किसानों और अन्य विशेषज्ञों से बात करके तैयार की गई है. ये रिपोर्ट मधुबनी, दरभंगा, सहरसा, सुपौल जिले के विभिन्न मखाना किसान समूहों से बातचीत के आधार पर तैयार हुई है. इसमें किसानों के अनुभव, चुनौती और समस्याओं के समाधानों पर बात की गई है. इसे तैयार करने में डेढ़ साल का वक्त लगा है.
रिपोर्ट की सिफारिशें
रिपोर्ट में पारंपरिक और आधुनिक दोनों तरह के किसानों की समस्याएं और सुझाव शामिल हैं. प्रमुख सिफारिशों में शामिल हैं:
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भूमिहीन मखाना किसानों को सरकारी योजनाओं में समान भागीदारी दी जाए.
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तालाबों और चौरों की लीज व्यवस्था दीर्घकालिक की जाए.
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मखाना के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) घोषित किया जाए.
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मखाना–मछली–सिंघाड़ा की समेकित खेती को बढ़ावा दिया जाए.
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किसानों को जलवायु अनुकूलन, प्रसंस्करण और विपणन का प्रशिक्षण दिया जाए.
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महिलाएं नीति निर्माण प्रक्रिया में शामिल हों.
निष्कर्ष
रिपोर्ट बताती है कि मखाना एक पोषणयुक्त, जलवायु-लचीला और बाजार-उन्मुख फसल है, लेकिन इसके पारंपरिक संरक्षक किसानों को वह सम्मान और सहयोग नहीं मिल पा रहा, जिसके वे हकदार हैं. अगर सरकार, शोध संस्थान और नीति निर्माता पारंपरिक ज्ञान को स्वीकार कर आधुनिक विज्ञान से जोड़ें, तो मखाना न सिर्फ एक आर्थिक संसाधन बनेगा, बल्कि जलवायु संकट के बीच बिहार के ग्रामीण इलाकों की सामाजिक और आर्थिक रीढ़ भी बन सकता है.