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मामूली खांसी-बुखार और ₹10,000 की जांच-क्या यही आधुनिक विज्ञान है?
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कभी “खलबट्टा डॉक्टर” कहे गए वैद्य, आज पूरी दुनिया पढ़ रही है Life Science जीवन शास्त्र!
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अरबों-खरबों का वैश्विक हर्बल बाज़ार, और भारत की झोली में सिर्फ़ मुट्ठी भर.
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हमारे पास 4500 प्रकार की जड़ी बूटियां, 7.55 पंजीकृत आयुर्वेदिक डाक्टर/वैद्य, फिर भी आयुर्वेद ‘वैकल्पिक’ कहलाता है!
23 सितम्बर को जब देशभर में आयुर्वेद दिवस के नाम पर संगोष्ठियाँ और समारोह हो रहे थे, तब दूसरी ओर अंग्रेज़ी अस्पतालों की ओपीडी में लंबी कतारें लगी थीं, दवा दुकानों में धक्का-मुक्की मची थी और चिकित्सा-विज्ञान का यह अजब तमाशा था कि मामूली खाँसी-बुखार तक के लिए पर्ची पर दवा लिखने से पहले दस हज़ार रुपए की जांचें अनिवार्य समझी जाती हैं. गज़ब का विज्ञान है यह, जिसका इलाज जांचों से शुरू होता है और आधा दर्जन दवाइयों और दर्जनों हानिकारक साइड इफेक्ट्स के साथ खत्म.
इसके बरक्स हमारी प्राचीन विद्या का गौरव था नाड़ी-विज्ञान. वैद्य केवल नाड़ी पर हाथ रखकर ही रोगी से यह तक बता देते थे कि उसने पिछली रात क्या खाया था. यही नहीं, परंपरागत कथाएं और प्रयोग बताते हैं कि कभी-कभी तो कलाई पर बँधे धागे से दूर बैठे वैद्य भी रोगी की दशा का बारीक़ी से वर्णन कर देते थे, वह भी बिना किसी एक्स-रे, एमआरआई, एंडोस्कोपी के. यह प्रश्न आज भी उठता है कि इस ज्ञान को पुनर्जीवित क्यों नहीं किया जा सकता, जबकि संपूर्ण मानवता के हित में यह सस्ता, सुलभ और सर्वसमावेशी मार्ग हो सकता है?
इतिहास गवाह है कि अंग्रेज़ी राज में आयुर्वेद को योजनाबद्ध तरीके से हाशिए पर धकेला गया. अंग्रेज़ी डॉक्टरों को तीन गुना वेतन मिलता था और आयुर्वेदिक चिकित्सकों को “खलबट्टा डॉक्टर” या हाफ डॉक्टर कहकर अपमानित किया जाता था. अमेरिका में तो अभी कुछ सालों पहले तक आयुर्वेद को हैंकी-जैंकी साइंस कहा जाता था, पर अब नहीं सिलेबस में इस तरह के विज्ञानों को लाइफ साइंस माना जाने लगा है और पढ़ाया जाने लगा है. लेकिन आयुर्वेद के जनक भारत का यह दुर्भाग्य रहा कि स्वतंत्रता के बाद भी स्वास्थ्य-नीतियाँ लगातार पश्चिमी मॉडल पर ही टिकी रहीं. यही कारण है कि आज भी आयुर्वेद को ‘वैकल्पिक चिकित्सा’ कहकर दरकिनार कर दिया जाता है, जबकि सच तो यह है कि यह भारत की मुख्य चिकित्सा परंपरा है. भारत सरकार ने पहली बार 2016 में 28 अक्टूबर को धनतेरस यानी धनवंतरी दिवस को पहला आयुर्वेद दिवस मनाया. इसके बाद प्रत्येक धनतेरस धनवंतरी दिवस को आयुर्वेद दिवस मनाया जाता रहा. पहली बार अलग से एक स्थाई तिथि 23 सितंबर आयुर्वेद दिवस मनाने हेतु तय की गई है निश्चित रूप से इसे एक सार्थक सकारात्मक पहल कहा जाएगा.
कोरोना महामारी ने इस सच को पुनः रेखांकित किया. घर-घर तक पहुँचे काढ़ों, त्रिकटु और अश्वगंधा जैसे फॉर्मूलेशन्स ने रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई. AYUSH-64 पर किए गए रैंडमाइज़्ड ट्रायल्स ने दिखाया कि मानक देखभाल के साथ इसका प्रयोग रोगियों की रिकवरी को तेज करता है और बीमारी की अवधि घटाता है. और सबसे अहम-इनका कोई साइड इफेक्ट सामने नहीं आया. यह तथ्य है, केवल भावनात्मक दावा नहीं.
लेकिन अवसर के साथ संकट भी है. हालिया रूस यात्रा के दौरान मैंने देखा कि अश्वगंधा जैसी हमारी गौरवशाली औषधियाँ “निगेटिव लिस्ट” में डाल दी गई हैं. इसका सीधा असर निर्यात पर पड़ रहा है. यह विडम्बना है कि जब अमेरिका भारत को अतिरिक्त टैरिफ लाभ दे रहा है, तब कुछ अन्य देश हमारे हर्बल उत्पादों के मार्ग में कृत्रिम दीवारें खड़ी कर रहे हैं. यह केवल भारत के लिए व्यापार का प्रश्न नहीं, बल्कि वैश्विक स्वास्थ्य-न्याय का भी मुद्दा है.
वैश्विक हेल्थ और हर्बल प्रोडक्ट्स का बाज़ार आज US$ 42–54 अरब के बीच आँका जा रहा है, जबकि व्यापक परिभाषा में यह कई गुना बड़ा है. इसके मुक़ाबले भारत का हर्बल और AYUSH उत्पादों का निर्यात सिर्फ़ US$ 651 मिलियन (2023–24) रहा. क्या यह शर्म की बात नहीं कि जिस भूमि पर चारक, सुश्रुत और धन्वंतरि जैसे महान वैद्य जन्मे, वहाँ आज वैश्विक बाज़ार में हमारी हिस्सेदारी इतनी तुच्छ हो?
दूसरी ओर हमारे पास अनुपम संसाधन हैं. भारत के पास 16 जलवायु-पट्टियाँ हैं, जहाँ से दुनिया की अधिकांश औषधीय आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता है. हमारे पास 7.55 लाख से अधिक पंजीकृत AYUSH चिकित्सक, सैकड़ों अस्पताल और हज़ारों डिस्पेंसरी हैं. यदि इन्हें शोध, मानकीकरण और प्रमाणन की सही दिशा दी जाए तो भारत वैश्विक हर्बल आपूर्ति-श्रृंखला का नेतृत्व कर सकता है.
पर यह सब केवल आंकड़ों का खेल नहीं. यह किसानों और आदिवासियों की रोज़ी-रोटी से जुड़ा प्रश्न है. औषधीय पौधों की खेती से किसान की आय कई गुना बढ़ सकती है. जंगलों और ग्रामीण क्षेत्रों में जो ज्ञान परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है, उसे संगठित कर बाज़ार से जोड़ा जाए तो यह न केवल किसानों का भविष्य बदलेगा बल्कि हमारी जैव विविधता भी सुरक्षित होगी.
आज आयुर्वेद दिवस मनाना, अन्य अनगिनत दिवसों की भांति केवल दीप जलाने या भाषण देने भर का अवसर नहीं होना चाहिए. यह हमें यह याद दिलाने का दिन है कि आयुर्वेद केवल ‘Alternative Medicine’ नहीं, बल्कि Life Science है, 'जीवन का शास्त्र'. चरक का वचन आज भी हमें झकझोरता है, “स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणम्, आतुरस्य विकार प्रशमनम् च.” यही वह मंत्र है जो भारत को न केवल अपने नागरिकों बल्कि पूरी मानवता का मार्गदर्शक बना सकता है.
और अंत में यह स्मरण रहे कि यदि हम इस अवसर का लाभ नहीं उठाते, तो भविष्य हमारी भर्त्सना करेगा और दोष देगा. दुनिया का हेल्थ मार्केट तेजी से बढ़ रहा है, और उसमें से बड़ा हिस्सा लेना भारत के वश में है. जरूरत है तो केवल साहसिक नीतियों की, अनुसंधान में निवेश की और अपनी परंपरा पर विश्वास की. 23 सितम्बर का यह आयुर्वेद दिवस उसी विश्वास को पुनर्जीवित करने का दिन है. जिस दिन हमें अपने 'आयुर्वेद' को पुनः घर घर में बुलाकर स्थापित करना होगा.
लेखक: डॉ. राजाराम त्रिपाठी, आयुर्वेद विश्व परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा औषधि पादप बोर्ड नेशनल मेडिकल प्लांट बोर्ड आयुष मंत्रालय भारत सरकार की सदस्य हैं.