भारत में आज भी कृषि को किसी पेशे की नजर से नहीं देखा जाता है, शायद यही वजह है कि भारतीय सिनेमा की नजर कृषि पर बहुत ही कम पड़ती है. सिनेमा में लगातार सैनिकों, पुलिस अधिकारियों, शिक्षकों, वकीलों, सुपरहीरो और लेखकों के बारे में दिखाया जाता है, लेकिन उस हीरो के बारे में बहुत कम दिखाया जाता है जो दिन रात एक करके सबका पेट भरता है. कृषि पर आधारित बॉलीवुड फिल्मों की संख्या कम है.
इस लेख के माध्यम से आज हम उन फिल्मों का उल्लेल्ख कर रहें है, जिनमे किसान और उनकी समस्याओं का वर्णन बहुत सरलतापूर्वक किया गया है. आज तक आप पढतें आएं है, कि असली भारत गांवों में बसता है लेकिन इनकों देखकर आप ये भी समझ जाएँगे कि इन गांवों में रहने वाले किसानों का हाल क्या है और इनकी समस्या क्या है.
दो बीघा जमीन (1953)
भारतीय किसान के वास्तविक दर्द को पर्दे पर उकेरने वाली फिल्म थी - दो बीघा जमीन. यह फिल्म हृदय-स्पर्शी और परिष्कृत रूप से एक बेदखल किसान का जीवंत चित्रण है. एक किसान के बहाने देखा जाए, तो यह फ़िल्म सम्पूर्ण भारतीय किसान-समाज का सबसे मानवीय चित्रण प्रस्तुत करती है. इस फ़िल्म में न सिर्फ सार्वकालिक उपेक्षितों की, बल्कि शोषितों की भी पीड़ा है. अपनी आंतरिक श्रेष्ठता, सच्ची भारतीयता के ही कारण यह फ़िल्म एक किसान -मजदूर का गहरा दर्द प्रस्तुत कर पाती है .
एक किसान के लिए सबसे महत्वपूर्ण उसकी जमीन होती है. ज़मीन उसके लिए मात्र एक भू स्थल नहीं बल्कि माँ होती है. वही ज़मीन उससे छीन ली जाए, उसे दाने दाने को तरसाया जाए तब उस किसान को कैसा दर्द होगा ? उसकी तार तार वेदना कैसे आर्तनाद करेगी ? इसी पीड़ा का गहन चित्रण इस फ़िल्म के केंद्र में है.
भारतीय परिवेश में कैसे एक किसान कर्ज के जाल में फंसता है. कैसे उस कर्ज़ की भरपाई के लिए उस किसान का तिनका तिनका बिखर जाता है. अपने अस्तित्व को बचाने के लिए उसका गांव से शहर को पलायन व किसान से मजदूर बनने की कहानी को बखूबी पेश किया गया.
सन 1953 की ये फ़िल्म आज़ादी के बाद नए नए हो रहे विकास की भेंट चढ़ रही ज़मीनों की ओर संकेत करती है. फ़िल्म का मुख्य पात्र शम्भू एक गांव में दो बीघा जमीन का मालिक है. पत्नी, बेटे व पिता के साथ उसका सुखी परिवार है. गांव में अकाल के बाद हुई बारिश से सब खुश हैं. गांव के जमींदार की नज़र शम्भू की ज़मीन पर है. जमींदार एक शहर के ठेकेदार से मिलकर वहां कारखाना लगाना चाहता है. यह बिंदु पूंजीवाद के अतिक्रमण का मूल है.
शम्भू 65 रुपये का कर्ज जमींदार से लेता है. जब जमींदार कर्ज़ के बदले उसकी जमीन लेने की बात करता है तो शम्भू मना कर देता है. वह जमींदार का क़र्ज़ चुकाने के लिए अपनी पाई– पाई बेच देता है. जब शंभू जमींदार को पैसे देने जाता है. जमींदार का हिसाब कुछ ओर है. वह 253 रुपये क़र्ज़ के बताता है. यह है व्यवस्था, कैसे क़र्ज़ के 65 रुपये 253 में बदल गए. शम्भू इस अन्याय के विरुद्ध अदालत जाता है. क्या न्याय प्रणाली गरीब किसान का साथ देती है ? न्याय व्यवस्था की सच्चाई भी उजागर हो जाती है जब शम्भू मुकदमा हार जाता है. उसे तीन महीने के अंदर क़र्ज़ चुकाने का हुक्म मिलता है वरना उसकी ज़मीन नीलाम हो जाएगी.
मदर इंडिया (1957)
मदर इंडिया, जिसे महबूब ख़ान द्वारा लिखा और निर्देशित किया गया है यह गरीबी से पीड़ित गाँव में रहने वाली औरत राधा की कहानी है जो कई मुश्किलों का सामना करते हुए अपने बच्चों का पालन पोषण करने और बुरे जागीरदार से बचने की मेहनत करती है.
यह फ़िल्म अबतक बनी सबसे बड़ी बॉक्स ऑफिस हिट भारतीय फ़िल्मों में गिनी जाती है और अब तक की भारत की सबसे बढ़िया फ़िल्म गिनी जाती है. इसे 1957 में तीसरी सर्वश्रेष्ठ फीचर फ़िल्म के लिए राष्ट्रिय फिल्म पुरूस्कार से नवाज़ा गया था.
फिल्म की शुरुआत वर्तमान काल में गाँव के लिए एक पानी की नहर के पूरा होने से होती है. राधा गाँव की माँ के रूप में, नहर का उद्घाटन करती है और अपने भूतकाल पर नज़र डालती है जब वह एक नई दुल्हन थी.
राधा और शामू की शादी का ख़र्चा राधा की सास ने सुखीलाला से उधार लेकर उठाया था. इस के कारण गरीबी और मेहनत के कभी न खत्म होने वाले चक्रव्यूह में राधा फँस जाती है. उधार की शर्तें विवादास्पद होती है परन्तु गाँव के सरपंच सुखीलाला के हित में फैसला सुनाते हैं जिसके तहत शामू और राधा को अपनी फ़सल का एक तिहाई हिस्सा सुखीलाला को 500 के ब्याज़ के तौर पर देना होगा. अपनी गरीबी को मिटाने के लिए शामू अपनी ज़मीन की और जुताई करने की कोशिश करता है परन्तु एक पत्थर तले उसके दोनों हाथ कुचले जाते है. अपनी मजबूरी से शर्मिंदा व औरों द्वारा बेईज़्ज़ती के कारण वह फैसला करता है कि वह अपने परिवार के किसी काम का नहीं और उन्हें छोड़ कर हमेशा के लिए चले जाता है. जल्द ही राधा की सास भी गुज़र जाती है. राधा अपने दोनों बेटों के साथ खेतों में काम करना जारी रखती है और एक और बेटे को जन्म देती है. सुखीलाला उसे अपनी गरीबी दूर करने के लिए खुद से शादी करने का प्रस्ताव रखता है पर राधा खुद को बेचने से इंकार कर देती है. एक तूफ़ान गाँव को अपनी चपेट में ले लेता है और सारी फ़सल नष्ट हो जाती है. तूफ़ान में राधा का छोटा बेटा मारा जाता है. सारा गाँव पलायन करने लगता है परन्तु राधा के मनाने पर सभी रुक कर वापस गाँव को स्थापित करने की कोशिश करते है.
लगान (2001)
यह फ़िल्म रानी विक्टोरिया के ब्रिटानी राज की एक सूखा पीडित गांव के किसानो पर कठोर ब्रीटानी लगान की कहानी है. जब किसान लगान कम करने की मांग कर्ते हैं, तब ब्रिटानी अफ़्सर एक प्रस्ताव देतें है. अगर क्रिकॅट के खेल में उन्को गांववासीओं ने परजित किया तो लगान मांफ़. चूनौती स्वीकारने के बाद गांव निवासीऒं पर क्या बीतती है, यही इस फ़िल्म का चरीत्र है.
यह फ़िल्म 19वी सदी में बसी अंग्रेज़ राज के दौर की एक कहनी है. चम्पानेर गांव का निवासी भूवन एक हौसलामन्द और आदर्शवादी नौजवान है. मध्य प्रान्तो की अंग्रेज़ छावनी के सेनापती, कॅप्टन रस्सॅल के साथ उसकी नही बनती थी. अंग्रेज़ों ने जब साल का लगान दूगना वसूलने का आदेश दिया तब राजा पूरन सिंह से लगान माफ़ करवाने की विनती करने गांववाले भूवन के साथ ब्रिटिश छावनी गये. वहां राजा, ब्रिटिश अफ़सरों का क्रिकॅट का खेल देख रहे थे. जब एक अफ़सर ने एक गांव वासी को गाली दी तो भूवन अफ़सरों से झगड पडा और क्रिकॅट के खेल की बराबरी गिल्ली-डंडा से की.
राजा के समक्ष भूवन ने कठोर लगान के ख़िलाफ़ अपना विरोध दर्ज किया. कॅप्टन रस्सॅल को यह पसंद नही आया और उसने भूवन को क्रिकॅट खेलने की चुनौती दी. जीते तो सालभर का लगान माफ़, हारे तो लगान तिगुना!!! गांववाले तो इस चुनौती मुकरना चाहते थे, मगर कॅप्टन रस्सॅल ने ये फ़ैसला सिर्फ़ भूवन के हाथों में सौंपा. चुनौती को और बढाते, तीन साल का लगान माफ़ करने का भी लालच दे दिया. भूवन ने मैदान पर द्वन्द्व का न्योता स्वीकार कर लिया.
अब सारा चम्पानेर मानो भूवन को सूली पर चढाना चाहता था. सबकी ज़िन्दगी तो अब तबाह होने जा रही थी. मगर भूवन के लीये तो जब तक साँस तब तक आस. कई सालों से सूखा चल रहा था. आखिर एक साल का लगान भी तो कहां से भरते? और फिर कॅप्टन रसॅल भी तो चुनौती से नहीं हटने वाले थे.
अगवानी करते हुये भूवन ने लकड़ी का बल्ला और गेंद बनाए. कुछ गिने-चुने लोगों का दल छोडकर, सारा गांव भूवन के खेल पर हंस रहा था. क्रिकॅट सीखने यह दल चोरी छुपे छावनी पर जाने लगा. वहां कॅप्टन रसॅल की बहन ऍलिज़ाबॅथ ने उनको झाडीयों में छिपे देख लीया. उसे अपने भाई का गांववासीयों से व्यवहार पसन्द नहीं आया. वह गांव के खिलाड़ियों को गांव के नजदीक मैदान पर क्रिकॅट सिखाने लगी. हिन्दी भाषांतर के लिये एक नौकर भी छावनी से अपने साथ ले आती. इस फिल्म को बेहद रोमांचक तरीके से पेश किया है.
पीपली लाइव (2010)
पीपली लाइव 2010 को प्रदर्शित होने वाली एक बॉलीवुड फिल्म है. इसका निर्माण आमिर खान ने किया है जबकि, लेखक और निर्देशन अनुषा रिज़वी ने किया है. यह अनुषा रिज़वी द्वारा निर्देशित पहली फिल्म है.
‘पीपली लाइव' फ़िल्म को देखकर लगता है कि यह पत्रकारिता पर चोट करती है, फिर लगता है कि शायद अफ़सरशाही इसके निशाने पर है या फिर राजनीति. सच कहें तो यह फ़िल्म पूरी व्यवस्था के मुंह पर तमाचा है. ऐसी व्यवस्था जिसके पास मरे हुए किसान के लिए तो योजना है लेकिन उसके लिए नहीं जो जीना चाहता है. ये उन पत्रकारों पर तमाचा है जो लाइव आत्महत्या में रुचि रखते हैं तिल-तिल कर हर .रोज़ मरने वाले में नहीं. फ़िल्म न तो नत्था किसान के बारे में है और न ही किसानों की आत्महत्या के बारे में . ये कहानी है उस भारत की जहां इंडिया की चमक फीकी ही नहीं पड़ी है बल्कि ख़त्म हो गई है.
उस भारत की जो पहले खेतों में हल जोतकर इंडिया का पेट भरता था और अब शहरों में कुदाल चलाकर उसी इंडिया के लिए आलीशान अट्टालिकाएं बना रहा है. यह फ़िल्म एक बार फिर इस बात का अहसास दिलाती है कि हम कैसे भारत में रह रहे हैं. वो भारत जो न तो हमारे टीवी चैनलों पर दिखता है और न ही हमारे नेताओं की योजनाओं में. अगर जाने माने फ़िल्म समीक्षक अजय ब्रहात्मज के शब्द उधार लूं तो फि़ल्म शानदार है जो रोंगटे खड़े कर देती है.
उपकार (1967)
फिल्म की कहानी राधा और उसके दो पुत्रों भारत की कहानी है. राधा ग्रामीण महिला है जो अपने परिवार को खुशहाल देखना चाहती है. उसकी इच्छा अपने पुत्रों को पढ़ा-लिखा कर बड़ा आदमी बनाने की है. परन्तु वह दोनों की पढ़ाई का भार वहन नहीं कर पाती है. भारत ख़ुद की पढ़ाई रोक कर पूरन को पढ़ने के लिए शहर भेजता है. पूरन जब शिक्षा पूरी करके वापस आता है तो उसे आसान पैसा कमाकर खाने की आदत पड़ जाती है और इसमें उसका भागीदार होता है चरणदास, जो उसके परिवार में फूट डालने का कार्य भी करता है. वह चरणदास ही था जिसने उनके पिता को मारा था. चरणदास आग में घी का काम करता है और पूरन को जायदाद के बँटवारे के लिए उकसाता है. पापों की गर्त तले धँसा पूरन जायदाद के बँटवारे की माँग करता है. भारत स्वेच्छा से सारी सम्पत्ति छोड़ कर भारत-पाक युद्ध में लड़ने चला जाता है, जबकि पूरन एक ओर तो अनाज की कालाबाजारी तथा तस्करी का धंधा करता है और दूसरी ओर सीधे सादे गाँव वालों को मूर्ख बनाता है.
लड़ाई में भारत दुश्मन के हाथों ज़ख़्मी हो जाता है और पकड़ा जाता है लेकिन किसी तरह दुश्मन को चकमा देकर अपने गाँव की तरफ़ ज़ख़्मी हालत में है निकल पड़ता है. रास्ते में चरणदास ज़ख़्मी भारत को मारने का षड्यंत्र रचता है, परन्तु मलंग चाचा, जो कि विकलांग है, उसको बचा लेता है और ख़ुद घायल हो जाता है. घायल भारत और मलंग चाचा को बचाने में डॉक्टर कविता, महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. उधर पूरन को भी गिरफ़्तार कर लिया जाता है. उसको अपनी ग़लती का अहसास हो जाता है और वह गोरख धंधा करने वालों को पकड़वाने में सरकार की सहायता करता है.