Cultivating Wheat through Zero Tillage Method: भारत में किसानों को आज आत्मनिर्भर बनाने में, कृषि की ओर बड़े ही आशान्वित नजरों से देखा जा रहा है. भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहाँ आज भी लोग कृषि व्यवसाय से जुड़कर अपना जीवन-यापन बड़े स्तर पर कर रहे हैं.
आज कल के पढ़े-लिखे युवा जोकि इंजिनियरिंग और विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करके, खेती के व्यवसायों से जुड़कर अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं. जहाँ एक ओर मौसम और दूसरी ओर मजदूर की समस्या हरदम हमारे खेतों में कृषि कार्य को प्रभावित करती है. वहीं मशीनीकरण (यंत्रिकरण), ने एक अलग स्थान बनाना शुरू कर दिया है. नयी तकनीकी और मशीनों के बढ़ते उपयोग ने खेती करने को और भी सुगम बना दिया है. आज बिना जुताई खेतों में बीज रोपना, ड्रिप सिंचाई विधि से खेतों में फसलों को पानी देना, फव्वारा से पानी और खाद देना सुगम और आसान हो गया है. खाद्यान्न के क्षेत्र में देश को आत्म निर्भर बनाने के उद्देश्य में, कृषि क्षेत्र को अद्यतन ज्ञान व नवीन तकनीक को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया है.
भारत में धान-गेहूं फसल चक्र की बहुतायत मात्रा में किसानों ने अपनाया है. यह फसल चक्र लगभग 11 मिलियन हेक्टेयर में लगाया जाता हैं. हरित क्रांति से सर्वाधिक लाभान्वित फसलें मुख्यतः धान व गेहूं की थी. भारत में धान-गेहूं फसल चक्र में जीरो टिलेज तकनीकी की एक महत्वपूर्ण भूमिका है. समय के साथ-साथ धान-गेहूं फसल चक्र में संरक्षित खेती की अवधारणा का प्रचलन हुआ. धान-गेहूं फसल चक्र में अभी भी गेहूं की बुवाई के लिए अधिकतर किसान धान के अवशेषों (पुराल) को खेत से जल्दी हटाने के लिए जलाते हैं.
जीरो टिलेज मशीन से ज्यादा फसल अवशेषों में भी गेहूं की बुवाई की जा सके, इसके लिए हैप्पी सीडर मशीन है जिससे कि गेहूं की बुवाई फसल अवशेष 8-10 टन/हे0 होने पर भी आसानी से की जा सकती है और खेत में ये फसल अवशेष खरपतवारों को उगने से रोकने में भी सहायक होते हैं. आज के आधुनिकरण और तकनीकी के दौर में जहाँ खेती की लागत और समय का अभाव किसानों को प्रभावित करता है. वहीं एक अवसर भी प्रदान कर रहा है. जिसे अपनाकर किसान अपनी लागत को कम कर सकते हैं और आमदनी को दोगुना भी कर सकते हैं नीचे दी गयी कुछ उन्नत तकनीकियाँ किसानों को आने वाले दिनों में वरदान साबित हो सकतें हैं.
संरक्षित खेती (Protected farming)
संरक्षित खेती का उद्देश्य संसाधनों के संरक्षण व समुचित उपयोग से है. इस पद्धति से प्राकृतिक संसाधनों जैसे मिट्टी, पानी, जैविक पदार्थों के साथ उपादानों का समन्वित उपयोग करने से है जैसे कि बीज, उर्वरक, ईंधन, पानी आदि का एकीकृत व समुचित उपयोग करना है. इस प्रणाली के माध्यम सें पर्यावरण के साथ‐साथ टिकाऊ खेती भी संभव है.
संरक्षित खेती कें तीन प्रमुख सिद्धांत निम्न है (Following are the three main principles of protected farming)
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न्यूनतम 30 प्रतिशत पूर्व फसल अवशेषों को भूमि की सतह पर रखें.
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भूमि कि कम से कम जुताई
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फसल विविधिकरण व उपयुक्त फसल चक्र अपनाना
जीरो टिलेज आधारित हैप्पी-सीडर (Zero tillage based happy seeder)
इनवर्टिड-टी वाली जीरो टिलेज मशीन से गेहूं की बुवाई करते समय फसल के अवशेषों के फसने की समस्या आने पर जीरो टिलेज मशीन में क्रमबद्ध तकनीकी सुधार कर हैप्पी सीडर का निर्माण किया गया. इसके प्रयोग से धान की कटाई के बाद सम्पूर्ण फसल अवशेष (पुराल) में गेहूं की सीधी बुवाई आसानी से की जा सकती है.
स्ट्रिप टिलेज (Strip tillage)
इस विधि में गेहूं की बुवाई में केवल बोने वाली पंक्ति को ही तैयार किया जाता है तथा इसके प्रयोग से बुवाई के लिए 1/3 भाग भूमि की जुताई की जाती है. बुवाई के लिए प्रयोग होने वाले उपकरणों को कोल्टर, रोटो टिलर्स और विशेष रूप से स्ट्रिप टिलर और रोटिल के नाम से भी जाना जाता है. इसमें बुवाई होने वाली दो पंक्तियों के बीच की भूमि बिना जुताई के रहती है. यह विधि अनावश्यक खर्चों को बचाती है तथा उपज बढ़ाने में मददगार भी होती है साथ ही साथ मिट्टी की उर्वरा शक्ति को भी बचाकर रखती है.
रिड्यूस्ड टिलेज (Reduced tillage)
इस विधि में ट्रैक्टर के पीछे कम गहराई तक जुताई करने वाला रोटावेटर लगा होता है तथा पिछली तरफ बीज की बुवाई के लिए 6 फार लगे होते हैं और बुवाई के बाद खेत को समतल करने के लिए एक रोलर भी लगा होता है जिससे भारी मिट्टी में भी बुवाई कर सकते हैं. इस विधि में खेत को एक बार हल्की जुताई के बाद गेहूं की बुवाई करते हैं. जीरो टिलेज और रिड्यूस्ड ट्लिेज में यह अन्तर है कि रिड्यूस्ड ट्लिेज में परम्परागत जुताई की अपेक्षा खेत को एक बार हल्की जुताई कर कें सीड ड्रिल से बुवाई कर दी जाती है, बल्कि जीरो टिलेज में फसल को बिना जुताई किये मशीन द्वारा बुवाई की जाती है.
जीरो टिलेज (Zero Tillage)
फसल को बिना जुताई किये, एक बार में ही जीरो टिलेज मशीन द्वारा फसल की बुवाई करनें को जीरो टिलेज तकनीक कहा जाता है, इस विधि को जीरो टिल, नो टिल या सीधी बुवाई के नाम से भी जाना जाता है. सामान्यत∶ इस विधि के अन्तर्गत पिछली फसल के 30 से 40 प्रतिशत अवशेष खेत में रहने चाहिए.
जीरो टिलेज मशीन, गेहूं के बीज एवं उर्वरकों को बिना खेत तैयार किये एक साथ बुवाई करती है. इसका प्रयोग दूसरी फसलों जैसे कि धान, मसूर, चना, मक्का, सरसों इत्यादि की बुवाई में भी कर सकते हैं.
सफल जीरो टिलेज तकनीक की आवश्यक शर्ते (Prerequisites for Successful Zero Tillage Technique)
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जीरो टिलेज मशीन
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खरपतवारनाशी
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उर्वरक
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प्रशिक्षित मशीनरी चालक
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समतल खेत
जीरो टिलेज तकनीक का मृदा कें कारकों पर प्रभाव (Effect of Zero Tillage Technique on Soil Factors)
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मृदा के भौतिक स्वास्थ्य में बेहतर सुधार
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मृदा की कठोरता को कम करता है.
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उत्तम मृदा जैविक स्वास्थ्य
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मिट्टी के रन्ध्रमय वृद्धि से, जमीन में पानी का बेहतर अवशोषण
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मृदा तापमान में सुधार
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मृदा का, यंत्र के ससमय संचालन के लिए उपयुक्त होना
जीरो टिलेज तकनीक से गेहूं की खेती की सस्य क्रियाएं (Cultivation of wheat with zero tillage technology)
बुवाई का समयः गेहूं की बुवाई 1-15 नवम्बर के बीच अवश्य होनी चाहिए यदि संभव न हो तो 25 नवम्बर तक जरुर कर ले अन्यथा गेहूं की उपज 25-30 किलोग्राम प्रति एकड़ प्रति दिन कम हो जाता है.
प्रजातियां: एच.डी.-2733, एच.डी.-2824, एच.डी.-2967, पी.बी.डब्लू.-550 या कृषि विश्ववि़द्यालयों द्वारा अनुशंसित के अनुसार अन्य प्रजातियां.
बीज की दरः यदि गेहूं की बुवाई जीरो टिलेज मशीन से करते है तो बीज की दर 40-45 किलोग्राम प्रति एकड़ रखें.
बुवाई से पूर्व खरपतवार प्रबंधन (Weed management before sowing)
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यदि बुवाई के पहले खरपतवार हो तो इन खरपतवारों को नष्ट करने के लिए ग्लाइफोसेट (राउण्ड अप या ग्लाइसेल) 0 किलोग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेअर का प्रयोग 100-150 लीटर पानी मे मिलाकर या 1.0-1.5 प्रतिशत घोल के अनुसार 10.0-15 मिली. राउण्ड अप या ग्लाइसेल (ग्लाइफोसेट 41 प्रतिशत) प्रति लीटर पानी या 6-10 ग्राम मेरा -71 (ग्लाइफोसेट 71 प्रतिशत) का अमोनियम साल्ट प्रति लीटर पानी के साथ बुवाई के 2-3 दिन पहले छिड़काव कर देना चाहिए.
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खेत में जहां पर खरपतवार हो उन्हीं स्थानों पर उपरोक्त लिखित खरपतवारनाशी का प्रयोग करना चाहिए जिससे समय व लागत बचेगी.
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छिड़काव कें लिए 3 फ्लैट - फैन बूम नोजिल का प्रयोग करें. यदि 3 फ्लैट - फैन बूम नोजिल उपलब्ध नहीं हो तो कट नोजिल का प्रयोग करना चाहिए. खरपतवारनाशी के छिड़काव के लिए कभी भी शंकु आकार के नोजिल का प्रयोग नहीं करना चाहिए.
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उपरोक्त खरपतवारनाशीयों का प्रयोग गेहूं की बुवाई के बाद कभी भी नहीं करना चाहिए.
बुवाई के उपरांत खरपतवार प्रबंधन (Post sowing weed management)
निम्न खरपतवारनाशी का छिड़काव बुवाई के 30-35 दिन बाद 120-150 लीटर पानी में प्रति एकड़ फ्लैट - फैन नाजिल के द्वारा करना चाहिए
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मिश्रित खरपतवार के लिएः टोटल (सल्फोसल्फ्यूरान + मेट्सल्फ्यूरान) 16 ग्राम उत्पाद प्रति एकड़ या वेस्टा (क्लोडिनोफाप+मेट्सल्फ्यूरान) 160 ग्राम उत्पाद प्रति एकड़ या बाडवे (सल्फोसल्फ्यूरान + कार्फेन्ट्राजान) 25 + 20 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर
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संकरी पत्ती वाले खरपतवार के लिएः लीडर/सफल/फतेह (सल्फोसल्फ्यूरान) 5 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति एकड़ या टापिक (क्लोडिनोफाप) 60 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति एकड़.
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चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार के लिएः 2, 4-डी. सोडियम साल्ट 400 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति एकड़ या एल्ग्रिप (मेट्सल्फ्यूरान) 4 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर या एफिनिटि (कार्फेन्ट्राजान) 08 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति एकड़.
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यदि खेत में मिश्रित खरपतवार के साथ मकोय भी हों तो बाडवे (सल्फोसल्फ्यूरान + कार्फेन्ट्राजान) का प्रयोग करना चाहिए.
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जमाव के बाद खरपतवारनाशी का प्रयोग 2-3 पत्ती की अवस्था पर करना चाहिए.
उर्वरकों की मात्रा प्रति एकड़ (Fertilizer amount per acre)
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बुवाई के समय 50 किलोग्राम डी.ए.पी. (जीरो टिलेज मशीन में प्रयोग के लिए), 32 किलोग्राम एम.ओ.पी. एवं 8-10 किलोग्राम जिंक सल्फेट (हाथ से छिड़काव हेतु),
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पहली सिंचाई के समय 42 किलोग्राम यूरिया (हाथ से छिड़काव हेतु),
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दूसरी सिंचाई के समय 42 किलोग्राम यूरिया (हाथ से छिड़काव हेतु),
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यदि गेहूं की बुवाई दलहनी फसल के बाद हुइ है तो ऩत्रजन का प्रयोग 25 प्रतिशत कम किया जा सकता है.
सिंचाई (Irrigation)
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पहली सिंचाई: बुवाई के 20-21 दिन पर (ताज-मूल अवस्था पर)
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दूसरी सिंचाई: बुवाई के 40-45 दिन पर (कल्लें निकलते समय)
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तीसरी सिंचाई: बुवाई के 60-65 दिन पर (गांठ बनते समय)
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चौथी सिंचाई: बुवाई के 80-85 दिन पर (पूष्पावस्था के समय)
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पांचवीं सिंचाई: बुवाई के 100-105 दिन पर (दुग्धावस्था के समय)
जीरो टिलेज विधि से गेहूं की बुवाई करने से खेत मे पानी तेज बहाव से चलता है जिससें पहली सिंचाई के समय पानी की बचत होती है. मार्च के महीनें में गेहूं की फसल मे दाना भरते समय, गर्मा हवा (पछुआ) से बचाने के लिए अतरक्ति सिंचाई करने से दानें पुष्ट भरते हैं.
गेहूं की बुवाई जीरो टिलेज विधि से करने से होने वाले लाभ (Benefits of sowing wheat by zero tillage method)
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जीरो टिलेज तकनीकी में गेहूं की अगेती बुवाई से उत्पादकता में बढोत्तरी होती है.
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दाना भरते समय होने वाली गर्मी के नुकसान से गेहूं के फसल को सुरक्षा मिलती है.
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गेहूं की बुवाई जीरो टिलेज विधि से करनें पर, मंडूसी/वनगेहूं खरपतवार का बेहतर नियंत्रण, उत्तम पोषक तत्व प्रबंधन तथा पानी की बचत होती है.
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इस तकनीक में, मृदा के स्वास्थ्य में सुधार के साथ ही जल संरक्षण एवं फसल चक्र में सघनीकरण से भूमी का उपयुक्त उपयोग, श्रम-संसाधन एवं ईधन की बचत, मशीन व ट्रैक्टर की कम घिसावट व पर्यावरण का संरक्षण होता है.
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जीरो टिलेज से परम्परागत विधि कि तुलना में भूमि में कार्बनिक पदार्थों के ह्रास में कमी आती है.
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बीज का मिट्टी से सही स्पर्श/सम्पर्क तथा अच्छा व समान जमाव होने से गेहूं की जड़ों की भूमि से पकड़ मजबूत हो जाती है और फसलें मजबूती से खड़ी रहती हैं. इसके कारण फसल गिरती नहीं है.
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जीरो टिलेज में फसल अवशेषों के खेत में सड़नें से, मृदा के स्वास्थ्य और इसके जल धारण क्षमता में बढोत्तरी होती है.
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कार्बन डाईआक्साइड के उत्सर्जन में कमी तथा साथ में ग्लोबल वार्मिग के दुष्प्रभाव में भी कमी होती है.
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जीरो टिलेज तकनीकी में फसल अवशेषों को नहीं जलाने से वायु प्रदूषण में कमी होती है.
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मिट्टी में जैविक विविधता में सुधार होने से मित्र कीटों की संख्या में वृद्धि देखी गई है.
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जीरो टिलेज से किराया पर की गयी गेहूं की बुवाई ट्रैक्टर मालिकों के लिए एक व्यावसायिक अवसर है.
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जीरो टिलेज बुवाई में किसी भी प्रकार का पाटा लगाने की आवश्यकता नहीं होती है, जिससे समय और खर्च बचता है.
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खरपतवार नाशी का प्रबंधन अच्छे से किया जा सकता है.
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जीरो टिलेज में नत्रजन और फास्फोरस उर्वरकों की मात्रा बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है. उर्वरकों की अनुशंसित की गयी मात्रा का प्रयोग करना चाहिए.
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खाद और उर्वरकों के कार्य क्षमता में वृद्धि होती है.
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जीरो टिलेज में बुवाई करने से गेहूं का उगना वर्षा होने पर प्रभावित नहीं होता है क्योंकि इस तकनीक से बुवाई करने पर मृदा के सतह पर पपड़ी नहीं बनती है.
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जीरो टिलेज मशीन से गेहूं की बुवाई धान के खड़ें ठूंठ में आसानी से हो जाता हैं.
नोट:
कृषि रसायनों के प्रयोग के पूर्व वैज्ञानिक या विशेषज्ञ से सलाह अवश्य लें.
लेखक: डॉ0 राजीव कुमार श्रीवास्तव
सहायक प्राध्यापक (सस्य), बीज एवं प्रक्षेत्र निदेशालय, तिरहुत कृषि महाविद्यालय,ढोली
एवं प्रभारी पदाधिकारी, क्षेत्रिय अनुसंधान केन्द्र, बिरौल, दरभंगा-847 203
(डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर, बिहार)