पपीता बहुत ही पौष्टिक एवं गुणकारी फल है. पपीता स्वास्थ्यवर्द्धक तथा विटामिन ए व कई औषधियों गुणों से भरपूर होता है, साथ ही सेहत के लिए भी बहुत लाभदायक होता है. पपीते की सबसे बड़ी खासियत ये है कि ये बहुत कम समय फल दे देता है. पपीते का फल थोड़ा लम्बा व गोलाकार होता है तथा गूदा पीले रंग का होता है.
गूदे के बीच में काले रंग के बीज होते हैं. कच्चा पपीता हरे रंग का और पकने के बाद हरे पीले रंग का होता है. एक पपीते का वजन 300, 400 ग्राम से लेकर 1 किलो ग्राम तक हो सकता है. पपीता न केवल सरलता से उगाया जाने वाला फल है, बल्कि जल्दी लाभ देने वाला फल भी है. पपीते में कई महत्वपूर्ण पाचक एन्ज़ाइम तत्व मौजूद रहते है.
यह स्वास्थवर्धक तथा लोक प्रिय है, इसी से इसे अमृत घट भी कहा जाता है, इसके ताजे फलों को सेवन करने से लम्बी कब्जियत की बिमारी भी दूर की जा सकती है। इसलिए बाज़ार में पपीते की मांग लगातार बढ़ रही है. पपीते की फसल किसानों को कम समय में अधिक लाभ कमाने का अवसर देती है.
इसकी खेती व्यवसायक रूप में की जाती है. इसे एक बार लगा देने पर दो फसल ली जाती है इसकी कुल आयु पौने तीन साल होती है. प्रति हेक्टेयर पपीते का उत्पादन 30 से 40 टन हो जाता है. आईये जानते हैं पपीते की उन्नत खेती करने का तरीका-
पपीते की खेती के लिए जलवायु
पपीते के लिए शुष्क व अर्धशुष्क क्षेत्र व पाला रहित, सेम रहित क्षेत्र काश्त उपयोगी है. पपीते की सबसे अच्छी फसल उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रो में होती है. शुष्क गर्म जलवायु में इसके फल अधिक मीठे होते है. इसके उत्पादन के लिए तापक्रम 26-38 डिग्री से०ग्रे० के बीच और 10 डिग्री से०ग्रे० से कम नहीं होना चाहिए क्योंकि अधिक ठंड तथा पाला इसके शत्रु हैं, जिससे पौधे और फल दोनों ही प्रभावित होते हैं. इसके सकल उत्पादन के लिए तुलनात्मक उच्च तापक्रम, कम आर्द्रता और पर्याप्त नमी की जरुरत है.
पपीते की खेती के लिए भूमि का चयन
उचित जल निकास वाली जीवांश से भरपूर दोमट व बलुई दोमट भूमि पपीते के लिए बढि़या रहती है. इसलिए इसके लिए दोमट, हवादार, काली उपजाऊ भूमि का चयन करना चाहिए और इसका अम्ल्तांक 6.5-7.5 के बीच होना चाहिए तथा पानी बिलकुल नहीं रुकना चाहिए.
खेत को अच्छी तरह जोंत कर समतल बनाना चाहिए तथा भूमि का हल्का ढाल उत्तम है, 1.25 X 1.25 मीटर के अन्दर पर लम्बा, चौडा, गहरा गढ्ढा बनाना चाहिए, इन गढ्ढों में 20 किलो गोबर की खाद, 500 ग्राम सुपर फास्फेट एवं 250 ग्राम म्यूरेट आफ पोटाश को मिट्टी में मिलाकर पौधा लगाने के कम से कम 10 दिन पूर्व भर देना चाहिए.
पपीते की उन्नत प्रजातियाँ
पूसा मेजस्टी एवं पूसा जाइंट, वाशिंगटन, सोलो, कोयम्बटूर, हनीड्यू, कुंर्गहनीड्यू, पूसा ड्वार्फ, पूसा डेलीसियस, सिलोन, पूसा नन्हा आदि प्रमुख किस्में है.
पपीते की बुआई के लिए बीज मात्रा
एक हेक्टेयर जमीन के लिए लगभग 600 ग्राम से लेकर एक किलो बीज की आवश्यकता पड़ती है. सर्वप्रथम पपीते के पौधें बीज से तैयार किये जाते है. एक हेक्टेयर जमीन में प्रति गड्ढ़े दो पौधें लगाने पर लगभग पांच हज़ार पौध संख्या लगेगी.
पपीते की पौधे तैयार करना
पपीते के पौधे बीज द्वारा तैयार किए जाते हैं. एक एकड़ में पौधे रोपण के लिए 40 वर्ग मीटर पौध क्षेत्र व 125 ग्राम बीज पर्याप्त रहता है। इसके लिए एक मीटर चौड़ी व पांच मीटर लंबी क्यारियां बना लें. प्रत्येक क्यारी में खूब सड़ी गली गोबर की खाद मिलाकर व पानी लगाकर 15-20 दिन पहले छोड़ देते हैं. इस विधि द्वारा बीज पहले बीज को 3 ग्राम कैप्टान दवा प्रति किलो बीज की दर से उपचार करके भूमि की सतह से 15 से 20 सेमी. उंची क्यारियों में कतार से कतार की दूरी 10 सेमी, तथा बीज की दूरी 3 से 4 सेमी. रखते हुए लगाते है, बीज को 1 से 3 सेमी. से अधिक गहराई पर नही बोना चाहिए, जब पौधे करीब 20 से 25 सेमी. उंचे हो जावें तब प्रति गढ्ढा 2 पौधे लगाना चाहिए। रोग से बचाव के लिए 100 लीटर पानी में 200 ग्राम कैप्टान दवा घोलकर छिड़काव करें.
पौधे पालीथिन की थैली में तैयार करने की विधि
20 सेमी. चौडे मुंह वाली, 25 सेमी. लम्बी तथा 150 सेमी. छेद वाले पालीथिन थैलियां लेवें इन थैलियों में गोबर की खाद, मिट्टी एवं रेत का समिश्रण करना चाहिए, थैली का उपरी 1 सेमी. भाग नही भरना चाहिए, प्रति थैली 2 से 3 बीज होना चाहिए, मिट्टी में हमेशा र्प्याप्त नमी रखना चाहिए, जब पौधे 15 से 20 सेमी. उंचे हो जावें तब थैलियों के नीचे से धारदार ब्लेड द्वारा सावधानी पूर्वक काट कर पहले तैयार किये गये गढ्ढों में लगाना चाहिए.
पौधे प्रति एकड़
पपीता में पौधे से पौधे व कतार से कतार का फासला डेढ़ मीटर रखने पर 1742 तथा दो मीटर पर 105 पौधे प्रति एकड़ लगते हैं/1.25 x 1.25 मीटर की दूरी पर 2560 पौधे प्रति एकड़ लगते हैं.
पपीते लगाने का समय एवं तरीका
अच्छी तरह से तैयार खेत में 1.25 x 1.25 मीटर की दूरी पर 50 x 50 x 50 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे मई के महीने में खोद कर 15 दिनों के लिए खुले छोड़ देने चाहिएं, ताकि गड्ढों को अच्छी तरह धूप लग जाए और हानिकारक कीड़े-मकोड़े, रोगाणु वगैरह नष्ट हो जाएँ.
ऊँची बढ़ने वाली क़िस्मों के लिए1.8x1.8 मीटर फासला रखते हैं। पौधे लगाने के बाद गड्ढे को मिट्टी और गोबर की खाद 50 ग्राम एल्ड्रिन मिलाकर इस प्रकार भरना चाहिए कि वह जमीन से 10-15 सेंटीमीटर ऊँचा रहे। गड्ढे की भराई के बाद सिंचाई कर देनी चाहिए, जिससे मिट्टी अच्छी तरह बैठ जाए.
वैसे पपीते के पौधे जून-जुलाई या फरवरी -मार्च में लगाए जाते हैं, पर ज्यादा बारिश व सर्दी वाले इलाकों में सितंबर या फरवरी -मार्च में लगाने चाहिए। जब तक पौधे अच्छी तरह पनप न जाएँ, तब तक रोजाना दोपहर बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए.
मिट्टी चढ़ाना
पपीते पर मिट्टी चढ़ाना अतिआवश्यक है. प्रत्येक गढ्ढे में एक पौधा को रखने के बाद पौधे क़ी जड़ के आस पास 30 सेमी. क़ी गोलाई में मिट्टी को ऊँचा चढ़ा देते है ताकि पेड़ के पास सिंचाई का पानी आधिक न लग सके तथा पौधे को सीधा खड़ा रखते है.
खाद एवं उर्वरक
पपीता जल्दी फल देना शुरू कर देता है, इसलिए इसे अधिक उपजाऊ भूमि की जरुरत है। अतः अच्छी फ़सल लेने के लिए 200 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फ़ॉस्फ़रस एवं 500 ग्राम पोटाश प्रति पौधे की आवश्यकता होती है. इसके अतिरिक्त प्रति वर्ष प्रति पौधे 20-25 कि०ग्रा० गोबर की सड़ी खाद, एक कि०ग्रा० बोनमील और एक कि०ग्रा० नीम की खली की जरुरत पड़ती है. खाद की यह मात्र तीन बार बराबर मात्रा में मार्च-अप्रैल, जुलाई-अगस्त और अक्तूबर महीनों में देनी चाहिए.
पपीते की पैकिंग सिंचाई
पपीते के अच्छे उत्पादन के लिए सिंचाई का सही इंतजाम बेहद जरूरी है। गर्मियों में 6-7 दिनों के अंदर पर और सर्दियों में 10-12 दिनों के अंदर सिंचाई करनी चाहिए. बारिश के मौसम में जब लंबे समय तक बरसात न हो, तो सिंचाई की जरूरत पड़ती है. पानी को तने के सीधे संपर्क में नहीं आना चाहिए. इसके लिए तने के पास चारों ओर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए.
नर पौधों को अलग करना
पपीते के पौधे 90 से 100 दिन के अन्दर फूलने लगते है तथा नर फूल छोटे-छोटे गुच्छों में लम्बे डंढल युक्त होते है. नर पौधों पर पुष्प 1 से 1.3 मी. के लम्बे तने पर झूलते हुए तथा छोटे होते है। प्रति 100 मादा पौधों के लिए 5 से 10 नर पौधे छोड कर शेष नर पौधों को उखाड देना चाहिए. मादा पुष्प पीले रंग के 2.5 से.मी. लम्बे तथा तने के नजदीक होते है.
पपीते की पैकिंग निराई-गुड़ाई व खरपतवार प्रबंधन
पपीते के बगीचे में तमाम खरपतवार उग आते हैं, जो जमीन से नमी, पोषक तत्त्वों, वायु व प्रकाश वगैरह के लिए पपीते के पौधे से मुकाबला करते हैं, जिससे पौधे की बढ़वार व उत्पादन पर उल्टा असर पड़ता है. खरपतवारों से बचाव के लिए जरूरत के मुताबिक निकाई-गुड़ाई करनी चाहिए. बराबर सिंचाई करते रहने से मिट्टी की सतह काफी कठोर हो जाती है, जिससे पौधे की बढ़वार पर उल्टा असर पड़ता है. लिहाजा 2-3 बार सिंचाई के बाद थालों की हल्की निराई-गुड़ाई कर देनी चाहिए.
फलों को तोड़ना
पौधे लगाने के 9 से 10 माह बाद फल तोडने लायक हो जाते है। फलों का रंग गहरा हरे रंग से बदलकर हल्का पीला होने लगता है तथा फलों पर नाखुन लगने से दूध की जगह पानी तथा तरल निकलता हो तो समझना चाहिए कि फल पक गया होगा. फलो को सावधानी से तोडना चाहिए। छोटी अवस्था में फलों की छटाई अवश्य करना चाहिए.
मिट्टी चढ़ाना
पपीते पर मिट्टी चढ़ाना अतिआवश्यक है. प्रत्येक गढ्ढे में एक पौधा को रखने के बाद पौधे क़ी जड़ के आस पास 30 सेमी. क़ी गोलाई में मिट्टी को ऊँचा चढ़ा देते है ताकि पेड़ के पास सिचाई का पानी आधिक न लग सके तथा पौधे को सीधा खड़ा रखते है.
खाद एवं उर्वरक
पपीता जल्दी फल देना शुरू कर देता है। इसलिए इसे अधिक उपजाऊ भूमि की जरुरत है. अतः अच्छी फ़सल लेने के लिए 200 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फ़ॉस्फ़रस एवं 500 ग्राम पोटाश प्रति पौधे की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त प्रति वर्ष प्रति पौधे 20-25 कि०ग्रा० गोबर की सड़ी खाद, एक कि०ग्रा० बोनमील और एक कि०ग्रा० नीम की खली की जरुरत पड़ती है. खाद की यह मात्र तीन बार बराबर मात्रा में मार्च-अप्रैल, जुलाई-अगस्त और अक्बटूर महीनों में देनी चाहिए.
पपीते की पैकिंग सिंचाई
पपीते के अच्छे उत्पादन के लिए सिंचाई का सही इंतजाम बेहद जरूरी है। गर्मियों में 6-7 दिनों के अंदर पर और सर्दियों में 10-12 दिनों के अंदर सिंचाई करनी चाहिए। बारिश के मौसम में जब लंबे समय तक बरसात न हो, तो सिंचाई की जरूरत पड़ती है। पानी को तने के सीधे संपर्क में नहीं आना चाहिए। इसके लिए तने के पास चारों ओर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए।
नर पौधों को अलग करना
पपीते के पौधे 90 से 100 दिन के अन्दर फूलने लगते है तथा नर फूल छोटे-छोटे गुच्छों में लम्बे डंढल युक्त होते है. नर पौधों पर पुष्प 1 से 1.3 मी. के लम्बे तने पर झूलते हुए तथा छोटे होते है. प्रति 100 मादा पौधों के लिए 5 से 10 नर पौधे छोड कर शेष नर पौधों को उखाड देना चाहिए. मादा पुष्प पीले रंग के 2.5 से.मी. लम्बे तथा तने के नजदीक होते है.
पपीते की पैकिंग निराई-गुड़ाई व खरपतवार प्रबंधन
पपीते के बगीचे में तमाम खरपतवार उग आते हैं, जो जमीन से नमी, पोषक तत्त्वों, वायु व प्रकाश वगैरह के लिए पपीते के पौधे से मुकाबला करते हैं, जिससे पौधे की बढ़वार व उत्पादन पर उल्टा असर पड़ता है. खरपतवारों से बचाव के लिए जरूरत के मुताबिक निकाई-गुड़ाई करनी चाहिए. बराबर सिंचाई करते रहने से मिट्टी की सतह काफी कठोर हो जाती है, जिससे पौधे की बढ़वार पर उल्टा असर पड़ता है। लिहाजा 2-3 बार सिंचाई के बाद थालों की हल्की निराई-गुड़ाई कर देनी चाहिए.
फलो को तोडना
पौधे लगाने के 9 से 10 माह बाद फल तोडने लायक हो जाते है. फलों का रंग गहरा हरे रंग से बदलकर हल्का पीला होने लगता है तथा फलों पर नाखुन लगने से दूध की जगह पानी तथा तरल निकलता हो तो समझना चाहिए कि फल पक गया होगा. फलो को सावधानी से तोडना चाहिए। छोटी अवस्था में फलों की छटाई अवश्य करना चाहिए.
पपीता एक प्रमुख उष्ण एवं उपोष्ण कटिबंधीय फल है. पपीते की खेती गर्म एवं नम जलवायु में सफलता पूर्वक की जा सकती है. पपीता की अच्छी वृद्धि के लिए 22-26 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त पाया गया है. पपीता पकने के समय शुष्क एवं गर्म मौसम होने से फलों की मिठास बढ़ जाती है। पपीता का उपयोग कच्चे एवं पके फल के रूप में किया जाता है. पपीते की खेती की लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है.
क्षेत्रफल की दृष्टि से पपीता हमारे देश का पाँचवा लोकप्रिय फल है। इसके फलों में विटामिन ए, सी एवं अन्य खनिज लवण भी प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं । कच्चे फल का उपयोग पेठा, बर्फी, खीर, रायता, सब्जी आदि बनाने के लिए किया जाता है, जबकि पके फलो से जैम, जैली, नेक्टर एवं कैंडी इत्यादि बनाये जाते हैं. यह सरलता एवं शीघ्रता से पैदा होने के कारण गृहवाटिका एवं व्यवसायिक फसल के रूप में लोकप्रिय होता जा रहा है.
किस्में:
पूसा ड्वार्फ, पूसा नन्हा, पूसा जायन्ट, पूसा डेलिसियस, पूसा मजेस्टी, पुणे सेलेक्सन 1 एवं पुणे सेलेक्सन 3 आदि.
भूमि चयन एवं पौधशाला प्रबन्धन:
पपीता की खेती के लिए अच्छे जल निकास वाली उँची एवं उपजाऊ भूमि होनी चाहिए. साथ ही पौधशाला मे उँची बनाई हुई क्यारियों पर बीजों की बुआई करें तथा वर्षा या तेज धूप से बचाने के लिए खर या पुआल से ढक दिया जाए.
सर्वप्रथम बीज को कार्वेन्डाजिम + थीरम (1:1) या कॉपर आक्सीक्लोराइड 2.5 ग्राम प्रति किग्रा से उपचारित करें. प्रति 1000 वर्ग मी0 क्षेत्रफल में पपीते की फसल के लिए 3 मी0 लम्बी व 1 मी0 चौड़ी क्यारी की पौधशाला बना लें एवं क्यारी 15 से0मी0 उँची उठी हुई होनी चाहिये. बीज को क्यारी में कतार में लगाना चाहिए एवं कतार से कतार की दूरी 10 से0मी0 होनी चाहिए व 1 से0मी0 गहरा बोना चाहिए. इस प्रकार प्रति 200 वर्ग मी0 क्षेत्रफल के लिये 5.0 ग्राम बीज का प्रयोग करें. पौधशाला में पौध गलन रोग दिखाई पड़ने पर मैंकोजेब या मेटालेक्सिल (8%) + मैंकोजेब (64%) नामक फफूँदीनाशक 2.0 ग्राम प्रति ली0 की पानी की दर से तुरंत छिड़काव करें.
पौधों को तैयार करने हेतु पौधशाला विधि की अपेक्षा पॉलिथीन की थैलियों में उगाने की विधि भी सरल है. इसके लिए 150-200 गेज की 25 सेमी0 लम्बी तथा 20 सेमी0 चौड़ी थैलियों का प्रयोग करें. थैलों में बालू, कम्पोस्ट तथा भुरभुरी मिट्टी (1:1:1) भरकर 3-4 बीजों को एक से0मी0 की गहराई में बुआई करें तथा मिट्टी में प्रर्याप्त नमी बनायें रखें। पौध डालने का कार्य मुख्यतः अगस्त के महीने में करें. लगभग 10-15 दिन में पपीते के बीज जमकर बाहर दिखाई देने लगते हैं. जब पौधे 35-40 दिन के (15-20 से0मी0 ऊचे) हो जाये तब थैलियों को नीचे से ब्लेड द्वारा सावधानी पूर्वक काटकर पहले से तैयार किये गड्ढे में लगायें.
रोपाई:
गर्मी के दिनों में खेत को 2-3 बार अच्छी तरह जोतकर समतल बनायें तथा रोपाई हेतु 60×60×60 सेमी0 आकार के गड्ढे तैयार करके 15-20 दिनों के लिए खुला छोड़ दिया जाए तथा वर्षा शुरू होने से पहले गड्ढे में भुरभुरी मिट्टी, 15 कि0ग्रा0 कम्पोस्ट, 500 ग्राम नीम की खली मिश्रित उर्वरक (डी. ए. पी., एम. ओ. पी., यूरिया 2:3:1 के अनुपात में) 500 ग्राम प्रति गड्ढे उपयोग करें तथा कार्बोफ्यूरान 5.0 ग्राम प्रति गड्ढे की दर से रोपाई के 10 दिन पूर्व गड्ढ़े में भर दिया जाए। पौधशाला में पौधे की लंबाई 15-20 से0मी0 हो अथवा 35-40 दिन के पौधे की ही रोपाई करें। पौधे से पौधे की दूरी 1.8×1.8 मी0 रखें एवं नर एवं मादा पौधों का उचित अनुपात (1:10) बनाये रखने के लिए एक गड्ढे में तीन पौधों की रोपाई करें.
खाद एवं उर्वरक:
संस्तुति के अनुसार पौधों की अच्छी वृद्धि के लिए डी. ए. पी. 750 ग्राम, यूरिया 100 ग्राम, पोटाश 150 ग्राम, सल्फर 50 ग्राम, बोरान 5 ग्राम तथा वर्मीकम्पोस्ट 2.5 किग्रा प्रति पौधे कि दर से प्रयोग करें.
सिचाईः
पपीते के सफल उत्पादन हेतु बगीचे में आवश्यक जल प्रबंधन होनी चाहिए। जब तक पौधा फलन में नही आता, तब तक हल्की सिचाई करनी चाहिए। गर्मी के दिनों में एक सप्ताह तथा जाड़े कि दिनों में 15 दिनों के अंतराल पर सिचाई करनी चाहिए.
फलन:
पपीता में छः माह पर वास्तविक रूप से अधिक फल लगते हैं जिनसे अधिक लाभ प्राप्त होता है. फल का वजन 500 ग्राम-1.5 कि0ग्रा0 तक होता है एवं प्रति पौधा 45-50 कि0ग्रा0 फलन होता है.
पादप सुरक्षा:
पपीते की फसल के रोग
आर्द्रगलन रोगः
यह बीमारी पौधशाला में पीथियम एफैनिडरमेटन नामक कवक के कारण होती है. इसका प्रभाव नये अंकुरित पौधे पर होता है तथा पौधे का तना जमीन के पास से सड़ जाता है और पौधे मुरझाकर गिर जाता है. अतः इसके बचाव के लिए नर्सरी की मिट्टी को बोने से पहले फारमेल्डिहाइड को 2.5 प्रतिशत घोल से उपचारित कर पालिथीन से 48 घंटो के लिए ढक देना चाहिए तथा बीज को थीरम या कैप्टान (2.0 ग्राम प्रति कि0ग्रा0 बीज) नामक दवाओं से उपचारित कर बोना चाहिए. पौधशाला में इस रोग से बचाव के लिए मेटालेक्सिल (8%) + मैंकोजेब (64%) (रिडोमिल) या मैंकोजेब (2.0 ग्राम प्रति लीटर पानी में) का छिड़काव 3-4 बार एक सप्ताह के अन्तराल पर करना चाहिए.
जड़ एवं तनों का सड़ना:
यह रोग पीथियम एफैनिडरमेटम एवं फाइटोफथोरा पामीवोरा नामक कवक के कारण होता है। इस रोग में जड़ तथा तना सड़ने से पौधे सूख जाता है।
इसका तने पर प्रथम लक्षण जलीय धब्बे के रूप में होता है. जो बाद में बढ़कर चारो तरफ फैल जाता है। पौधे के उपर की पत्तियाँ मुरझाकर पीली पड़ जाती है तथा पौधे सूखकर गिर जाते है. जड़ सड़न रोग से सुरक्षा हेतु समेकित प्रबन्धन करें. पौधों के पास खर एवं पुआल से मल्चिगं करें तथा पौधों के तने के पास मिट्टी भी चढ़ाना चाहिये जिससे जड़ो के पास पानी नहीं रुकता है. समय समय पर मेटालेक्सिल (8%) + मैंकोजेब (64%) 2.0 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से पौधों की जड़ के पास अच्छी तरह से डालकर तर कर देना चाहिये जिससे जड़ सड़न रोग से सम्पूर्ण सुरक्षा मिलती है.
फलों का सड़ना (एन्थ्रेक्नोंज):
यह पपीता के फल की प्रमुख बीमारी है। यह कोलिटोट्राईकम ग्लियोस्पोराडस नामक कवक के द्वारा होती है. इस रोग में फलों के उपर छोटा जलीय धब्बा बन जाता है जो बाद में बढ़कर पीले या काले रंग का हो जाता है. यह रोग फल लगने से लेकर पकने तक लगता है जिसके कारण फल पकने के पूर्व ही गिर जाते हैं. इसकी रोकथाम के लिए मैकोजेब 2.0 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए.
चूर्णित फफूँद :
यह रोग ओडियम यूडिकम एवं ओडियम कैरिकी नामक कवक से होता है. इससे प्रभावित पत्तियों पर सफेद चूर्ण जैसा जमाव हो जाता है जो बाद में सूख जाती है. इस रोग की रोकथाम के लिए सल्फेक्स (3.0 ग्राम प्रति लीटर पानी में) का छिड़काव करना चाहिए.
पपीते के विषाणु जनित रोग
पर्ण कुंचन रोग:
यह पपीते का एक गंभीर विषाणु रोग है इस रोग के कारण शुरू में पौधों का विकास रूक जाता है और पत्तियाँ गुच्छा नुमा हो जाती हैं तथा पत्तियों का आकार छोटा हो जाता है. पत्तियों का उपरी सिरा अन्दर की ओर मुड़ जाता है. प्रभावित पौधे में फूल एवं फल नहीं लगते हैं
पपीता का रिंग स्पॉट रोग:
पर्ण कुंचन की तरह यह भी एक गंभीर विषाणु रोग हैं इस रोग में पपीते की पत्तियाँ कटी - फटी हो जाती है तथा हर गाँठ पर कटे - फटे पत्ते निकलने लगते हैं. पत्तियाँ के तने एवं फलों पर छोटे गोलाकार धब्बे पड़ जाते हैं. प्रभावित फल छोटे आकार के एवं फलन बहुत कम हो जाता है।
उपरोक्त दोनों विषाणु रोग का पूरी तरह रोकथाम संभव नहीं है. विषाणु रोग वर्षा के दिनों में काफी तेजी से फैलता है. अतः वर्षा के समाप्त होने पर खेत में पपीता लगाने से विषाणु रोगों का प्रभाव कम होता है. यह विषाणु रोग कीटों जैसे सफेद मक्खी और माहू से फैलते हैं. अतः इनकी रोकथाम हेतु मैलाथियान (1 मि0 ली0 प्रति लीटर पानी में) या डाइमेथोएट (2 मि0ली0 प्रति लीटर पानी में) का छिड़काव करना चाहिए. प्रयोगों द्वारा ऐसा देखा गया है कि नीम की खली या संस्तुत कम्पोस्ट खाद के उपयोग करने पर विषाणु रोग का प्रकोप कम होता है. इस रोग से प्रभावित पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए. प्रभावित पौधों से रोपण हेतु बीज नही लेना चाहिए.
पपीते की फसल मे कीट प्रबंधन
पपीते में कीट बहुत कम लगते हैं. इससे मुख्य रूप से माहू है जो पत्तियों के निचले भाग में छेद कर रस चूसता है तथा विषाणु रोगों के फैलाने में वाहक के रूप में कार्य करता है. इसके नियंत्रण के लिए डाइमेथोएट 2.0 मि0ली0 प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए.
पपीते में फल विकृत:
यह विकृति फलन की प्रांरभिक अवस्था में ही शुरू हो जाती है, लेकिन इनका विकराल स्वरूप पकने की अवस्था और पेड़ की वयस्क अवस्था में एकाएक बढ़ जाती है. यह प्रायः सर्दियों में जब तापमान न्यूनतम होता है तब अधिक प्रकोप दिखायी देता है. विकृत फल विकार से निजात पाने हेतु 5 ग्राम बोरेक्स/पौधा पुष्पन एवं फलन के प्रारंभ होने पर देना अधिक लाभदायक है. शुरूआती दिनों में बोरॉन नहीं दे पाने पर फल विकास के समय 2.5 ग्राम/ली0 पानी में मिलाकर पत्तियों पर छिड़काव करना चाहिए.
पपीते में अंतः फसली खेती:
पौधों के बीच की दूरी को 30 सेमी0 बढाकर धनियाँ की फसल को लगाया जा सकता हैं। धनियाँ की फसल कटाई के उपरान्त उस भूमि में खरबूजे, तरबूजे की फसल को ले सकते हैं इसमें किसी भी अतिरिक्त खाद-उर्वरक की जरूरत भी नहीं पड़ती है और लागत भी कम आती है। इस तरह एक वर्ष में पपीते की फसल के साथ धनियाँ एवं तरबूजे की अंतः फसल लेकर 40,000-45,000/- रूपये की अतिरिक्त आय प्राप्त कर सकते है.
डॉ आर एस सेंगर एवं वर्षा रानी
कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी वि0 वि0, मेरठ, उ0. प्र0