पेरीविंकल (Periwinkle) सदाबहार एक बहुवर्षीय (perennial) सजावटी जड़ी-बूटी है, जो पूरे भारत में बंजर भूमि और रेतीले क्षेत्रों में पाई जाती है. इसमें औषधीय महत्व इसके जड़ों में पाए जाने वाले इंडोल एल्केलॉइड्स — राउबेसिन (अजमालिसिन) और सर्पेंटाइन के कारण है, जिनमें एंटी-फिब्रिलिक (anti-fibrillic) और हाइपरटेंसिव (hypertensive) गुण पाए जाते हैं. इसके पत्तों में विनब्लास्टिन (Vinblastine) और विनक्रिस्टिन (Vincristine) नामक दो एल्केलॉइड्स पाए जाते हैं, जो पेटेंट किए गए कैंसर-रोधी दवाओं के मुख्य घटक हैं. विनक्रिस्टिन एल्केलॉइड्स पौधे के सभी भागों में पाए जाते हैं, परंतु इनमें सबसे अधिक मात्रा जड़ों (0.75–1.20%) में होती है, इसके बाद पत्तियों (0.60–0.65%) में पाई जाती है.
अमेरिका (USA) लगभग 1000 टन पत्तियाँ आयात करता है, जबकि पश्चिम जर्मनी, इटली, नीदरलैंड्स और ब्रिटेन (UK) लगभग 1000 टन जड़ें आयात करते हैं. यदि भारत में ही इस पौधे से दवाओं का निर्माण किया जाए तो इसके लिए पर्याप्त संभावनाएँ हैं, क्योंकि विदेशों में इसके कच्चे माल की माँग में कमी आ रही है. किसान इस फसल को पसंद कर सकते हैं क्योंकि यह विभिन्न प्रकार की मिट्टी में उगाई जा सकती है, बंजर भूमि और सूखे की परिस्थितियों को भी सहन कर सकती है.
यह एक बहुवर्षीय शाकीय पौधा है, जिसे प्रायः इसके गुलाबी और सफेद फूलों के कारण बगीचों में सजावटी पौधे के रूप में लगाया जाता है. इसके फूल सालभर खिलते रहते हैं. पौधे में लचीली लंबी शाखाएँ होती हैं जिन पर सरल, विपरीत दिशा में लगी पत्तियाँ होती हैं. फूल 2-3 के समूह में, अक्षीय (axillary) और शीर्ष (terminal) गुच्छों में लगते हैं. इसका फल एक लंबा बेलनाकार फॉलिकल (cylindrical follicle) होता है, जिसमें कई काले रंग के बीज पाए जाते हैं.
जलवायु और मृदा (Climate and Soil)
इस पौधे का विश्वव्यापी वितरण यह दर्शाता है कि इसे किसी विशेष जलवायु की आवश्यकता नहीं होती. फिर भी, इसका स्वाभाविक वातावरण उष्णकटिबंधीय (tropical) और उप-उष्णकटिबंधीय (sub-tropical) क्षेत्रों में पाया जाता है. लगभग 100 सेंटीमीटर या उससे अधिक समान रूप से वितरित वर्षा वर्षा आधारित परिस्थितियों में व्यावसायिक खेती के लिए आदर्श मानी जाती है.
यह पौधा लगभग सभी प्रकार की मिट्टी में उग सकता है, सिवाय अत्यधिक क्षारीय (alkaline) या अत्यधिक जलभराव वाली मिट्टी (water-logged soils) के. यह तटीय क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से उगता है. बड़े पैमाने पर खेती के लिए ह्यूमस से भरपूर हल्की दोमट या रेतीली मिट्टी (light sandy soil rich in humus) को सर्वोत्तम माना जाता है.
प्रवर्धन (Propagation)
इस पौधे का प्रजनन बीजों (seeds) से किया जाता है. ताज़े बीजों का उपयोग अधिक उपयुक्त होता है क्योंकि लंबे समय तक भंडारण के बाद उनकी अंकुरण क्षमता (viability) कम हो जाती है. बीजों को सीधे खेत में बोया जा सकता है या पहले नर्सरी में पौध तैयार करके बाद में प्रत्यारोपण (transplanting) किया जा सकता है.
प्रत्यक्ष बुवाई (direct sowing) बड़े क्षेत्र में की जाने वाली खेती के लिए उपयुक्त है क्योंकि इससे बुवाई की लागत कम होती है. एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए लगभग 2–3 किलोग्राम बीजों की आवश्यकता होती है. बीजों को रेत के साथ (उसके वजन से 10 गुना) मिलाकर समान रूप से खेत में वितरित किया जाता है और मानसून की शुरुआत में 45 सेंटीमीटर की दूरी पर बनी कतारों में बोया जाता है. जब पौधे बढ़ने लगते हैं, तब उन्हें छाँटकर 25–30 सेंटीमीटर की दूरी पर रखा जाता है.
नर्सरी विधि (nursery sowing) और प्रत्यारोपण के लिए लगभग 500 ग्राम बीज पर्याप्त होते हैं, जिन्हें 200 वर्ग मीटर की क्यारी में बोया जाता है ताकि एक हेक्टेयर के लिए पर्याप्त पौध तैयार हो सके. बीजों को मार्च–अप्रैल में अच्छी तरह तैयार क्यारियों में लगभग 1.5 सेंटीमीटर गहराई पर पंक्तियों में बोया जाता है, फिर उन्हें हल्की मिट्टी और पत्तियों की सड़ी खाद (leaf mould mixture) से ढक दिया जाता है और क्यारी को नम रखने के लिए सिंचाई की जाती है.
लगभग 10 दिनों में बीज अंकुरित हो जाते हैं और दो महीने बाद, जब पौधे 6–7 सेंटीमीटर ऊँचाई के हो जाते हैं, तो वे खेत में प्रत्यारोपण के लिए तैयार हो जाते हैं. खेत में पौधों को 45 × 30 सेंटीमीटर या 45 × 45 सेंटीमीटर की दूरी पर लगाया जाता है.
फसल की देखभाल (After Cultivation)
इस फसल में दो बार निराई-गुड़ाई (weeding) की आवश्यकता होती है —पहली निराई बुवाई या प्रत्यारोपण के लगभग 60 दिन बाद,और दूसरी निराई इसके 60 दिन बाद की जाती है.यह पौधा सूखा सहनशील (drought-resistant) होने के कारण अधिक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती. जहाँ सालभर समान रूप से वर्षा होती है, वहाँ सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती. लेकिन जहाँ मानसून सीमित अवधि तक ही रहता है, वहाँ अच्छे उत्पादन के लिए पौधों की पूरी अवधि में 4 से 5 बार सिंचाई की जाती है.सामान्यतः इस फसल में खाद का अधिक उपयोग नहीं किया जाता,फिर भी पत्तियों और जड़ों दोनों का अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए लगभग 15 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद (farmyard manure) दी जानी चाहिए. इसके साथ ही उर्वरक मिश्रण के रूप में प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन (N) – 50 किलोग्राम,फॉस्फोरस (P₂O₅) – 75 किलोग्राम, और पोटाश (K₂O) – 75 किलोग्राम आधार खाद (basal dose) के रूप में प्रयोग करना चाहिए.
किस्में
इस फसल की कोई स्वीकृत या मान्यता प्राप्त किस्में (recognized varieties) नहीं हैं,लेकिन फूलों के रंग के आधार पर इसके तीन स्थानीय प्रकार (local types) पहचाने जाते हैं —
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अल्बा (Alba) – सफेद रंग के फूलों वाली किस्म.
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रोज़ियस (Roseus) – गुलाबी या गुलाबी रंग के फूलों वाली किस्म.
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ऑसिलाटा (Ocillata) – सफेद फूलों वाली किस्म जिसके मध्य में गुलाबी-बैंगनी धब्बा (rose- purple spot) होता है.
4. निर्मल (Nirmal)
यह किस्म सीमैप (CIMAP), लखनऊ द्वारा विकसित की गई है. यह सफेद फूलों वाली किस्म है.इसकी उपज लगभग 1200 किलोग्राम सूखी पत्तियाँ और 80 किलोग्राम जड़ें प्रति हेक्टेयर होती हैं.यह किस्म कॉलर रॉट (collar rot) और रूट रॉट (root rot) रोगों के प्रति प्रतिरोधी (resistant) है.
5. धवल (Dhawal)
यह किस्म निर्मल किस्म के बीजों पर रासायनिक उत्परिवर्तन (chemical mutagen treatment) द्वारा विकसित की गई है और इसे भी सीमैप (CIMAP), लखनऊ ने विकसित किया है.इसमें हल्के हरे से लेकर भूरे रंग की रोएंदार (pubescent) पत्तियाँ होती हैं जिनके किनारे लहरदार (undulating) होते हैं. तना हरा और फूल सफेद होते हैं.इसकी पत्तियों की उपज लगभग 1352 से 2557 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होती है.एल्केलॉइड की मात्रा –पत्तियों में: 0.89 से 1.40%, जड़ों में: 1.60 से 2.22% होती है.यह किस्म डाइ-बैक (die-back) रोग के प्रति प्रतिरोधी है.
6. प्रभात (Prabhat)
यह किस्म एच.ए.यू. (HAU), हरियाणा में विकसित की गई है.इसकी अवधि 8–10 महीने होती है.इससे लगभग 15–18 क्विंटल/हेक्टेयर सूखी जड़ें और 20–25 क्विंटल/हेक्टेयर सूखी पत्तियाँ प्राप्त होती हैं.इसकी विशेषताएँ हैं — गहरे बैंगनी रंग का तना, चमकदार पत्तियाँ और गहरे गुलाबी रंग के फूल.
कटाई (Harvesting)
फसल एक वर्ष बाद जड़ों की खुदाई (harvest) के लिए तैयार हो जाती है.हालाँकि, पत्तियों की दो बार तुड़ाई (leaf stripping) की जा सकती है —पहली बार बुवाई के 6 महीने बाद,दूसरी बार 9 महीने बाद.तीसरी बार पत्तियों की तुड़ाई तब की जाती है जब पूरे पौधे की कटाई एक वर्ष बाद की जाती है.बीज संग्रह (seed collection) के लिए, पके हुए फल (matured fruits) को हाथ से तोड़कर छाया में सुखाया जाता है और फिर हल्का मड़ाई (threshing) की जाती है.
इस विधि से समान रूप से अंकुरित होने वाले परिपक्व बीज प्राप्त होते हैं.हालाँकि सामान्यतः किसान पूरा पौधा उखाड़कर छाया में सुखाते हैं और बाद में हल्के से मड़ाई कर बीज प्राप्त करते हैं.इस विधि से प्राप्त बीज असमान (non-uniform) होते हैं और उनकी अंकुरण क्षमता (germination) भी कम होती है.जड़ों की कटाई (root harvesting) के लिए फसल को भूमि से लगभग 7.5 सेंटीमीटर ऊँचाई पर काटा जाता है, ताकि तना, पत्तियाँ और बीज सुखाने के लिए प्राप्त हो सकें. इसके बाद पूरे खेत में भरपूर सिंचाई की जाती है और जुताई (ploughing) करके जड़ों को इकट्ठा किया जाता है.जड़ों को अच्छी तरह धोकर छाया में सुखाया जाता है और फिर गठ्ठर (bundles) बनाकर बाज़ार में बिक्री के लिए तैयार किया जाता है.
उपज (Yield)
वर्षा आधारित परिस्थितियों (rainfed conditions) में प्रति हेक्टेयर औसतन —
0.75 टन सूखी जड़ें,
1.0 टन सूखे तने, और
2 टन सूखी पत्तियाँ प्राप्त होती हैं.
जबकि सिंचित परिस्थितियों (irrigated conditions) में —
1.5 टन जड़ें,
1.5 टन तने, और
3 टन पत्तियाँ प्रति हेक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा सकती है.
लेखक - प्रगति ताम्रकार, डॉ. मेधा साहा एवं उमेश कुमार यदु