दियारा खेती नदी के किनारे या बेसिन पर सब्ज़ियां उगाने की बहुत पुरानी प्रथा है. वर्तमान में दक्षिण एशियाई देशों में कुकुरबिटेसियस सब्ज़ियां बड़े पैमाने पर नदी के किनारे उगाई जा रही हैं. जिसे दियारा खेती या नदी के किनारे की खेती कहते हैं. नदी के किनारे खीरा, खरबूज, परवल, तरबूज और लौकी की खेती दिसंबर से जून के दौरान की जाती है.
आमतौर पर भूमिहीन,
छोटे और सीमांत किसान इन ज़मीनों पर मौसमी सब्ज़ियों और फलों की खेती विपणन के लिए करते हैं. नदी के किनारे या नदी घाटियों पर खीरे की सब्ज़ियां उगाना एक अलग प्रकार की खेती है. इन क्षेत्रों को उत्तर प्रदेश और बिहार में 'दियारा भूमि' भी कहा जाता है. हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार में जमुना, गंगा, गोमती, सरयू और अन्य सहायक नदियों के नदी तल और राजस्थान के टोंक ज़िले में नदी-स्तर बनास, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की नर्मदा, तवा और ताप्ती नदी के किनारे, साबरमती, पनम गुजरात के वर्तक और ओरसंग, आंध्र प्रदेश के तुंगभद्रा, कृष्णा, हुंदरी, पेन्नार नदी-तल कुछ ऐसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं जहां लौकी, कद्दू, खरबूज, खीरे आदि बड़े पैमाने पर उगाए जाते हैं. दियारा खेती के कई फ़ायदे हैं जैसे: जल्दी उपज मिलना, सिंचाई में आसानी, कम लागत, प्रति यूनिट क्षेत्र में अधिक लाभ और अधिक उपज, अधिक उर्वरता के कारण कम खनिज आवश्यकता, सीमित खरपतवार वृद्धि, कीट और रोग के नियंत्रण में आसानी, कम लागत वाली श्रम सुविधाएं इत्यादि
दियारा खेती के तरीके-
गड्ढे या खाई बनाना और भरना:
अक्टूबर-नवंबर के दौरान दक्षिण-पश्चिम मॉनसून की समाप्ति और बाढ़ के बाद गड्ढे या खाइयां या चैनल तैयार किए जाते हैं. नमी और उच्च तापमान की उपलब्धता के प्रबंधन के लिए उत्तर-पश्चिम दिशा में खाई खोदी जाती है. जल स्तर की ऊंचाई के आधार पर चैनल 50-60 सेंटीमीटर चौड़ा और 45-90 सेंटीमीटर गहरा होना चाहिए. आम तौर पर 60 सेमी से 90 सेमी नदी के तल में जल स्तर की ऊंचाई होती है. कभी-कभी लगभग 35-45 सेमी व्यास के गोलाकार गड्ढे तैयार किए जाते हैं जिनकी गहराई 90 सेमी होती है. गड्ढों/खाइयों को गोबर की सड़ी हुई खाद या किसी अन्य कार्बनिक अपशिष्ट से भरा जाता है.
खाद और उर्वरक:
पहली बार अच्छी तरह से सड़ी गोबर की खाद या मूंगफली की खली या अरंडी की खली को दिया जाता है. सिंगल सुपर फास्फेट, यूरिया या किसी मानक उर्वरक मिश्रण को भी बेसल अनुप्रयोग के रूप में दिया जाता है. थिंनिंग करते समय 30-60 ग्राम यूरिया प्रति गड्ढे में बुवाई के 30-40 दिनों के बाद, 40 ग्राम यूरिया की टॉप ड्रेसिंग आमतौर पर दो बार में की जाती है.
बीज दर और अंकुर/रोपण का समय:
फ़सलों के अनुसार बीज की दर अलग-अलग होती है अर्थात एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए खीरे में 2-3 किलो, करेला और लौकी में 4-5 किलो, लौकी और तुरई में 3 किलो पर्याप्त रहती है. बीज की बुवाई आम तौर पर नवंबर के पहले और दूसरे सप्ताह में और दिसंबर के पहले सप्ताह तक कुछ समय के लिए की जाती है. देर से बुवाई जनवरी के पहले सप्ताह में की जाती है. बीज को 3-4 सेमी की गहराई पर बोया जाता है. सामान्यतः दो बीज एक ही स्थान पर बोये जाते हैं. यदि तापमान बहुत कम है तो पहले से अंकुरित बीजों को बोया जाता है. इसके लिए बीजों को 24 घंटे पहले भिगोकर रखना चाहिए और बाद में नम बीजों को बोरे में या सूती कपड़े से ढककर एक सप्ताह तक गर्म स्थान पर अंकुरित होने के लिए रखना चाहिए. इस तरह से 5-6 दिनों के बाद अंकुरण शुरू हो जाता है. जैसे ही अंकुर बीज आवरण के बाहर दिखाई देते हैं, उन्हें रोप दिया जाता है. सामान्यतः 3-4 पूर्व-अंकुरित बीज/हिल्स को गड्ढों में बोया जाता है.
सिंचाई:
स्प्रिंकलर या ट्रिकल सिंचाई प्रणाली काफ़ी फ़ायदेमंद होती है क्योंकि किसानों द्वारा लगाए गए अधिकांश पोषक तत्व रेतीली मिट्टी के कारण बह जाते हैं, जब तक कि जल स्तर का प्रबंधन नहीं किया जाता है.
छत बनाने की तैयारी:
उत्तर-पश्चिम भारत में जब दिसंबर-जनवरी में सर्दियों का तापमान 1-2 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है तो पौधे को कम तापमान और ठंढ से प्रारंभिक अवस्था में सुरक्षा की आवश्यकता होती है. स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री जैसे धान के भूसे या गन्ने के पत्तों से बनी छत द्वारा सुरक्षा प्रदान की जाती है. फ़रवरी के महीने में रेत पर गीली घास बिछा दी जाती है. यह कोमल पौधों/फलों को गर्मियों के दौरान चिलचिलाती रेत की गर्मी से बचाने में मदद करता है और तेज़ हवाओं के दौरान बेलों को भी बचाता है. पाले से सुरक्षा के रूप में पॉलीइथाइलीन कवर का उपयोग करने के तरीके विकसित किए जाने बाकी हैं.
खरपतवार प्रबंधन:
दियारा भूमि क्षेत्रों में प्रमुख खरपतवार पॉलीगोनम प्रजातियां, यूफोरबिया हर्टा, एक्लिप्टा प्रोस्ट्रेटा, सीडा प्रजातियां और फिम्ब्रिस्टलीलिस डाइकोटोमा आदि हैं. इन खरपतवारों को मैन्युअल रूप से हाथों से हटाया जा सकता है, क्योंकि अतिरिक्त रेत के कारण मिट्टी काफ़ी ढीली हो जाती है. किसी भी खरपतवारनाशी का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि यह नदी के बहते पानी के साथ मिल सकता है और मानव, पशु और मछलियों आदि के लिए ख़तरनाक हो सकता है.
चूर्णिल आसिता:
यह रोग पत्तियों और तनों की सतह पर सफ़ेद या धुंधले धूसर धब्बों के रूप में दिखाई देता है. इसके प्रभावी प्रबंधन हेतु फंफूदी नाशक दवा जैसे कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर 1 मि.ली. या थायोफनेट मिथाइल 1 ग्राम प्रतिलीटर पानी में घोल बनाकर 10 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें.
मृदु रोमिल आसिता:
इस रोग का मुख्य लक्षण पत्तियों पर कोणीय धब्बों के रुप में दिखाई देता है। इसके प्रभावी प्रबंधन हेतु मेटलएक्सल नामक कवकनाशी से 2 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए. मैंकोजेब या साइमोक्सनिल + मैन्कोजेब के 2.5 ग्राम प्रति लीटर की दर से छिड़काव करना चाहिए
फ्यूजेरियम म्लानि रोग एवं जड़ सड़न रोग व गमी स्टेम ब्लाइट:
पौधे के ऊपरी टहनियों एवं नीचे की मुख्य टहनी पर हल्के भूरे रंग का लसलसाता गोंद दिखाई देता है. जिसके कारण पौधा धीरे-धीरे सूख जाता है. इसके प्रबंधन हेतु बीज को कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए.
सर्कोस्पोरा पर्ण दाग:
पत्तियों पर भूरे अथवा हल्के रंग के धब्बे बन जाते हैं. पत्तियां सिकुड़ कर सूख जाती हैं. ये धब्बे तने तथा फलों पर भी पाए जाते हैं इसके प्रबंधन हेतु रोग के लक्षण शुरू होने पर कार्बेन्डाजिम या थायोफनेट मिथाइल 1 ग्राम प्रति लीटर पानी का घोल 10 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए.
मूल ग्रन्थि रोग:
यह रोग सूत्रकृमि के जड़ों पर संक्रमण से होता है. मुख्य तथा पाश्र्व जड़ों पर गोलाकार ग्रन्थियां बन जाती हैं. इसके प्रबंधन हेतु खेत में 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से नीम की खली या अरंडी की खली मिलानी चाहिए.
विषाणु जनित रोग प्रबन्धन-
नीम गिरी का घोल (4%) किसी चिपकने वाले पदार्थ के साथ मिलाकर छिड़काव करें. जैविक नियंत्रण के लिये परभक्षी क्राइसोपर्ला कार्निया/50,000 प्रथम अवस्था की सुंडी साप्ताहिक अन्तराल पर कीड़े की शुरूआत होने पर दो से तीन बार प्रयोग से कीट का सफलतापूर्वक नियंत्रण किया जा सकता है. लेडी बर्ड भृंग (काक्सिनेला सेप्टेम्पंक्टाटा) परभक्षी के 30 भृंग प्रति वर्ग मीटर के प्रयोग से इस कीट का नियंत्रण सफलतापूर्वक किया जा सकता है. मांहू के नियंत्रण हेतु धनिये को सीमान्त सश्यन के रूप में लगाने से इस कीट के परजीवी (लेडी बर्ड बीटल) के आकर्षण एवं कीट रोगजनक कवक (वर्टीसिलियम लेकानी) के संरूपण का 10 दिन के अन्तराल पर 500 ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से पर्णीय छिड़काव करना चाहिए, आवश्यकतानुसार संश्लेषित रसायनिक कीटनाशकों जैसे- एसिटामिप्रिड (20 प्रतिशत एसपी.) का 0.15 ग्राम/लीटर या डाइमेथोएट (30 प्रतिशत ईसी.) का 1.5 मिली/लीटर का पत्तियों पर छिड़काव करें तथा दूसरे छिड़काव के बीच में 15 दिनों का अंतराल होना आवश्यक है.
फलों की कटाई और उपज:
खीरे की कटाई तब करनी चाहिए जब फल काफी कोमल और खाने योग्य हो, करतोली, ककरोल और परवल रोपाई के क्रमशः 50,60 और 80 दिनों के बाद फूलने लगते हैं. आम तौर पर 8-10 गांठों के बाद प्रत्येक गांठ में फूल आने के 30-35, 28-35, 15-18 दिनों के बाद फल लगते हैं. खाद्य परिपक्व फलों को 2-3 दिनों के अंतराल पर तोड़ लेना चाहिए, अन्यथा गुणवत्ता में गिरावट शुरू हो जाती है और बीज परिपक्व होने के कारण फल की जून के अंत से अक्टूबर के अंत तक निरंतर कटाई की जा सकती है.
विभिन्न सब्जियों की संभावित उपज तालिका-1 में दी गई है।
तालिका-1. दियारा भूमि में खीरा की फसल की अवधि और उपज:
क्र.सं. |
सब्जियां |
बोने का समय |
कटाई का समय |
औसत उपज (क्विं0/ हे.) |
1. |
लौकी |
नवंबर-दिसंबर |
मार्च-जुलाई |
200-350 |
2. |
करेला |
फरवरी-मार्च |
मई-जुलाई |
100-150 |
3. |
परवल |
नवंबर-दिसंबर |
मार्च-जुलाई |
350-400 |
4. |
चिकनी तुरई |
अप्रैल-मई |
जून-जुलाई |
100-200 |
5. |
घिया तुरई |
जनवरी-फरवरी |
अप्रैल-मई |
100-200 |
6. |
खीरा |
जनवरी-फरवरी |
मार्च-जून |
225-250 |
7. |
कद्दू |
जनवरी-फरवरी |
मार्च-जून |
225-250 |
तालिका- 2. दियारा खेती के उत्पादन में कुल अर्जित आय एवं उससे मिलने वाले कुल लाभ का वर्णन (प्रति हेक्टेयर)
कुल लागत(रुपये) |
49060 |
49060 |
40515 |
33385 |
41007.5 |
41675 |
कुल उपज (टन प्रति हेक्टेयर) |
12 |
20 |
11 |
15 |
12 |
10 |
दर (रुपये प्रति किलो) |
40 |
40 |
50 |
80 |
60 |
80 |
कुल आय (रुपये) |
480000 |
800000 |
550000 |
1200000 |
720000 |
800000 |
[कुल आय- कुल लागत] = शुद्ध लाभ (रुपये) |
430940 |
750940 |
509485 |
1166615 |
678992.5 |
758325 |
शिवम् कुमार सिंह, सीनियर रिसर्च फ़ेलो, सब्ज़ी विभाग, भारतीय सब्ज़ी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी-221305, उत्तर प्रदेश
अभिषेक कुमार सिंह, सीनियर रिसर्च फ़ेलो, सब्ज़ी विभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली
आत्मा नंद त्रिपाठी, वैज्ञानिक, भारतीय सब्ज़ी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी-221305, उत्तर प्रदेश