Black Pepper Variety MDBP-16): काली मिर्च, जिसे 'मसालों का राजा' भी कहा जाता है, किसानों के लिए मुनाफे का एक बेहतरीन ज़रिया है. भारत में, खासकर दक्षिण भारत में, काली मिर्च की खेती (Black Pepper Farming) बड़े पैमाने पर होती है. लेकिन अब छत्तीसगढ़ के कोंडागांव जिले के सफल किसान, जिन्हें हरित-योद्धा, कृषि-ऋषि, हर्बल-किंग, फादर ऑफ सफेद मूसली के नाम से भी जाना जाता है, डॉ. राजाराम त्रिपाठी ने लगभग 30 साल के अथक प्रयास के बाद, काली मिर्च की एक उन्नत किस्म MDBP-16 विकसित की है, जिसे अब देश के लगभग सभी राज्यों में आसानी से उगाया जा सकता है. वर्तमान में देश के लगभग 16 राज्यों में इस किस्म की सफलतापूर्वक खेती हो रही है.
काली मिर्च के एक पेड़ से औसत उत्पादन लगभग 1.5 से 2.5 किलोग्राम होता है, लेकिन किसान MDBP-16 किस्म से लगभग 8-10 किलोग्राम (Black Pepper Yield) तक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं, जिससे उनकी आय में ज़बरदस्त वृद्धि हो सकती है. हाल ही में, इस अद्भुत किस्म को पौध किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण प्राधिकरण, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा पंजीकृत भी कर लिया गया है.
ऐसे में सवाल उठता है - काली मिर्च की खेती (Black Pepper Farming) किसानों के लिए क्यों फायदेमंद है? MDBP-16 किस्म के पौधे किसान कहां से और कैसे प्राप्त कर सकते हैं? और किसान इसका मार्केटिंग कैसे कर सकते हैं? इन सभी सवालों के जवाब जानने के लिए कृषि जागरण ने सफल किसान डॉ. राजाराम त्रिपाठी का विशेष साक्षात्कार लिया है. पेश है संपादित अंश:
सवाल: आपने काली मिर्च की उन्नत किस्म MDBP-16 जो विकसित की है, उसे विकसित करने में कितने साल लगे हैं? और इस दौरान आपको किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा है?
जवाब: देखिए, काली मिर्च की उन्नत किस्म MDBP-16 (Black Pepper Variety MDBP-16) लगभग 30 सालों के अथक प्रयास का परिणाम है. आमतौर पर काली मिर्च की खेती (Black Pepper Farming) पहले केवल दक्षिण भारत में होती थी. मध्य भारत, जिसमें छत्तीसगढ़ राज्य भी आता है, वहां इसकी खेती की कल्पना भी नहीं की जाती थी. इसलिए हमें शुरुआत में कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा. जब मैं इसे लगाने लगा, तब जो विशेषज्ञ आते थे, वे कहते थे कि “काली मिर्च इस क्षेत्र में नहीं होगी.“ जब पौध बढ़ने लगी तो बोलने लगे वानस्पतिक वृद्धि तो होगी, लेकिन फल नहीं आएंगे. फिर जब फल आने लगे, तो उन्होंने कहा, “बस्तर में जो काली मिर्च होगी, उसकी गुणवत्ता ठीक नहीं होगी.“ लेकिन जब मैंने इसकी गुणवत्ता जांच कराई तो मुझे विश्वास हो गया कि यहां की प्रकृति हमारा साथ दे रही है, क्योंकि हमारी काली मिर्च में पाइपरिन का प्रतिशत 16 प्रतिशत से ज़्यादा पाया गया. तो वहीं से हमारा उत्साह और बढ़ा.
इसके बाद हमने प्राकृतिक विधि और जलवायु-अनुकूलता के सिद्धांत पर काम करते हुए MDBP-16 किस्म (Black Pepper Variety MDBP-16) विकसित की. आज इस किस्म की सफल खेती देश के लगभग 16 राज्यों में हो रही है.
MDBP-16 का नाम इसलिए रखा गया क्योंकि यह किस्म 2016 में सफलतापूर्वक परीक्षण, उत्पादन और परिणाम मिलने के बाद पंजीकरण के लिए प्रस्तुत की गई थी. शुरुआत में हमें पंजीकरण प्रक्रिया की जानकारी नहीं थी, इसलिए इसमें कुछ समय लग गया.
इस किस्म की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि काली मिर्च की देशभर में एक पेड़ से औसत उत्पादन 1.5 किलो से 2.5 किलो तक होती है, लेकिन इस किस्म से हमारे यहां एक पेड़ से औसत उत्पादन सामान्य से चार गुना यानी लगभग 8-10 किलो तक हो रही थी. जब शुरू में यह बात चर्चा में आई तो लोगों ने यकीन नहीं किया. इसकी सत्यता की जांच करने के लिए ICAR और ICAR-IISR के जो कर्नाटक और केरल के रिसर्च सेंटर हैं, उनके वैज्ञानिकों का दल मेरे फार्म का दौरा किया, उन्होंने भी देखा. फिर उन्होंने 2-4 साल तक उत्पादन देखने का निर्णय लिया.
उन्होंने सोचा, "क्या पता एकाध साल उत्पादन अच्छा आ जाएगा, क्या पता उसके बाद आए या नहीं आए." तो उन्होंने लगातार नज़र रखी, उन्होंने हमें समय-समय पर मार्गदर्शन भी दिया. आखिरकार 2023 में तीन वैज्ञानिकों ने मिलकर एक आर्टिकल लिखा जो कि स्पाइस इंडिया का जर्नल है, उसमें प्रकाशित हुआ. उसमें उन्होंने "Black Gold- Culture of Bastar Region" लिखा. और इन सभी चीजों को ध्यान में रखते हुए पौध किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण प्राधिकरण, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार ने 2024 के अंत में इसे पंजीकृत कर लिया. हाल ही में हमें भारत सरकार से इसका प्रमाणपत्र भी प्राप्त हुआ है. और यह काली मिर्च की पहली ऐसी किस्म है जो एक पेड़ से लगभग 8-10 किलो तक उपज (Black Pepper Yield) देती है.
हालांकि, मैं मानता हूं कि इसमें मेरा नहीं, बल्कि सबसे बड़ा योगदान ऑस्ट्रेलियन टीक पेड़ों का है. ये पेड़ न केवल हरी खाद प्रदान करते हैं, बल्कि धूप से भी बचाते हैं, वॉटर हार्वेस्टिंग में मदद करते हैं और नाइट्रोजन फिक्सेशन भी करते हैं. इससे पौधों को जड़ों में भरपूर नाइट्रोजन मिलता है, जिससे उत्पादन और गुणवत्ता में ज़बरदस्त सुधार हुआ.
दूसरा हमने ऑस्ट्रेलियन टीक पेड़ों के ज़रिए एक माइक्रो क्लाइमेट तैयार किया. दूसरे शब्दों में कहें तो केरल जैसा वातावरण वृक्षारोपण के द्वारा हमने तैयार किया. तो इन कारणों से उत्पादन भी बढ़ा और गुणवत्ता पूरे भारत में सबसे बेहतर मानी गई. और यही कारण है कि इसका निर्यात भी आसानी से हो पा रहा है.
सवाल: काली मिर्च की खेती एक बार करने के बाद किसान कितने वर्षों तक उपज प्राप्त कर सकते हैं?
जवाब: देखिए, काली मिर्च एक बहुवर्षीय लता है. इसे एक बार लगाने के बाद किसान 50-60 वर्षों तक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं. कुछ लोग तो कहते हैं कि इससे 100 वर्षों तक भी उत्पादन मिलता रहता है.
इसमें फल पहले या दूसरे साल से आने शुरू हो जाते हैं, लेकिन मैं हमेशा तीसरे साल से उम्मीद रखने की सलाह देता हूं. शुरुआत में बहुत अधिक फल नहीं आते, जिससे किसान तुरंत लाखों रुपये कमा सकें. जैसे कि आज मैं एक एकड़ काली मिर्च से 25 लाख रुपये सालाना कमा रहा हूं, लेकिन यह कोई रातों-रात नहीं हुआ. इसके लिए इंतज़ार करना पड़ा है.
काली मिर्च की लताएं हर साल 2-3 फीट तक आगे बढ़ती हैं. इसलिए मैं कहता हूं कि पहले एक एकड़ बना, फिर दो एकड़, फिर तीन और फिर चार एकड़. हमारे यहां तो 100 फीट ऊंचाई तक काली मिर्च चढ़ाई गई है. हमने इस तरह 1 एकड़ ज़मीन को 100 एकड़ की क्षमता में बदल दिया है.
भारत जैसे देश में, जहां लगभग 84% किसानों के पास 4 एकड़ से कम जमीन है, वहां वर्टिकल फार्मिंग, हवा में खेती, या लताओं को पेड़ों पर चढ़ाकर खेती करने की विधियां किसानों के लिए बेहद फायदेमंद हो सकती हैं.
लोग कहते हैं, "काली मिर्च की खेती छोटा किसान कैसे करेगा?"
मैं कहता हूं- काली मिर्च की खेती तो छोटे किसानों के लिए ही बनी है.
क्योंकि इस खेती में जो ऑस्ट्रेलियन टीक का पेड़ लगाया जाता है, वह "आम के आम और गुठलियों के दाम" वाली कहावत को चरितार्थ करता है. एक एकड़ जमीन से 2-2.5 करोड़ रुपये तक की लकड़ी मिलती है, और हर साल काली मिर्च से अतिरिक्त आमदनी होती है.
काली मिर्च और ऑस्ट्रेलियन टीक की खेती (Australian Teak Farming) का जो मॉडल है, वह एक एकड़ में केवल 10% क्षेत्र ही कवर करता है. बाकी क्षेत्र खाली रहता है, जहां हम औषधीय फसलों की खेती करते हैं, क्योंकि उन्हें थोड़ी छाया की ज़रूरत होती है.
इसके साथ ही हम उसमें अन्य सहफसली खेती भी करते हैं, जैसे: अदरक, हल्दी, जिमीकंद और सफेद मूसली आदि. ये सभी फसलें इस मॉडल के तहत बहुत अच्छी तरह से उगाई जा सकती हैं.
सवाल: काली मिर्च की खेती के दौरान किसान किन बातों का ध्यान रखें?
जवाब: देखिए, दो मुख्य बातें हैं- पहली बात यह है कि सिंचाई की थोड़ी-बहुत सुविधा होनी चाहिए. हालांकि, हमने इसे बिना सिंचाई के भी लगाया है, लेकिन यदि हमारा लक्ष्य अधिकतम उत्पादन प्राप्त करना है, तो थोड़ी-बहुत सिंचाई की सुविधा होना फायदेमंद रहेगा.
दूसरी बात यह है कि काली मिर्च की खेती के बाद जो 90% खाली क्षेत्र बचता है, उसका भी उचित उपयोग करें. इससे नियमित आमदनी होती रहती है. साथ ही यदि किसान इस खाली क्षेत्र की निराई-गुड़ाई करते हैं, तो इससे काली मिर्च और ऑस्ट्रेलियन टीक (Australian Teak) दोनों की देखभाल भी हो जाती है और उनका विकास भी तेज़ी से होता है.
काली मिर्च की खेती खुरदरे पेड़ों पर की जाती है. इसलिए इसे ऑस्ट्रेलियन टीक (Australian Teak) के अलावा साल, महुआ समेत लगभग 22 प्रकार के पेड़ों पर भी उगाया जा सकता है. हालांकि, इन पेड़ों पर उतना ही औसत उत्पादन मिलेगा, जितना पहले भारत में सामान्य रूप से एक पेड़ से मिलता था यानी 1.5 से 2.5 किलोग्राम तक. फिर भी यह उत्पादन कम नहीं है. इससे किसान प्रति एकड़ लगभग 5 लाख रुपये सालाना कमा (Black Pepper Farming Profit) सकते हैं, और एक एकड़ से 5 लाख रुपये निकालना कोई आसान काम नहीं होता.
अगर आप तेज़ी से बढ़ने वाले पेड़ लगाते हैं, जैसे कि हमने ऑस्ट्रेलियन टीक (Australian Teak) लगाया है, तो यह 12 महीने हरा-भरा रहता है और साल में 6 टन प्रति एकड़ हरी खाद देता है. इस वजह से हमें न तो गोबर की खाद, और न ही रासायनिक खाद की ज़रूरत पड़ती है. इसकी पत्तियों से बनी हरी खाद दुनिया की सबसे बेहतरीन हरी खाद मानी जाती है.
साथ ही, ऑस्ट्रेलियन टीक का पेड़ 5 मीटर के दायरे में नाइट्रोजन फिक्सेशन करता है. इसलिए इसमें इंटरक्रॉपिंग के दौरान यूरिया खरीदकर डालने की आवश्यकता ही नहीं होती.
जहां एक एकड़ में 40 लाख रुपये खर्च करके पॉलीहाउस (Polyhouse) बनाया जाता है, वहीं ऑस्ट्रेलियन टीक (Australian Teak) से बना ग्रीनहाउस वही सभी कार्य करता है- छाया देना, नमी बनाए रखना, जैविक खाद बनाना, नाइट्रोजन फिक्सेशन (Nitrogen Fixation) और वॉटर हार्वेस्टिंग. यह सब केवल 2 लाख रुपये में हो जाता है. इसलिए मैं इसे "गरीबों का पॉलीहाउस" कहता हूं.
पॉलीहाउस बनाम हमारा ग्रीनहाउस मॉडल:
विशेषता |
पारंपरिक पॉलीहाउस |
हमारा ग्रीनहाउस मॉडल (पेड़ों से) |
लागत |
₹40 लाख प्रति एकड़ |
₹2 लाख प्रति एकड़ |
छाया |
हां |
हां |
नमी बनाए रखना |
हां |
हां |
खाद निर्माण |
नहीं |
प्रति वर्ष 6 टन हरी खाद |
नाइट्रोजन फिक्सेशन |
नहीं |
हां |
वॉटर हार्वेस्टिंग |
नहीं |
हां |
यह नवाचार ही है, जिसकी वजह से छत्तीसगढ़ के बस्तर जैसे आदिवासी क्षेत्र में काली मिर्च की खेती को सफल बनाया जा सका है. और यही मॉडल अब केवल बस्तर में ही नहीं, बल्कि हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्यों में भी सफल हो रहा है. जहां पहले काली मिर्च की खेती की कल्पना भी नहीं की जाती थी.
सवाल: किसानों को काली मिर्च की खेती जैविक विधि से करनी चाहिए या रासायनिक विधि से?
जवाब: देखिए, हम 1996 से काली मिर्च की खेती पूरी तरह जैविक विधि से कर रहे हैं- बिना किसी रासायनिक खाद या दवाई के. हमारी उन्नत किस्म MDBP-16 (Black Pepper Variety MDBP-16) का विकास भी पूरी तरह जैविक पद्धति से ही हुआ है.
इस किस्म का चयन भारतीय पारंपरिक विधियों के अनुसार, जैसे सर्वश्रेष्ठ चयन की विधि और वातावरण व जलवायु अनुकूलता के सिद्धांतों पर आधारित होकर किया गया है. आज भी हमारे यहां शुद्ध जैविक खेती ही की जाती है.
यही कारण है कि हमारे यहां की काली मिर्च को अंतरराष्ट्रीय बाजारों में हाथों-हाथ खरीद लिया जाता है. जब विदेशी ग्राहक इसे प्रयोगशालाओं में आधुनिक यंत्रों द्वारा जांचते हैं, तो उन्हें यह देखकर संतोष होता है कि इसमें कोई रासायनिक अवशेष नहीं हैं. आजकल काली मिर्च कई प्रकार की औषधियों में भी उपयोग की जाती है, और इसकी मांग दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है.
इस खेती की सबसे खास बात यह है कि इस फसल को कोई जानवर नुकसान नहीं पहुंचाता.
यहां तक कि बकरी भी इसे नहीं खाती, और नीलगाय भी इससे दूर रहती है. यदि कोई बंदर गलती से काली मिर्च के खेत में चला जाए और उसे खा ले, तो वह अपने पूरे समूह को बता देता है कि इस खेत में नहीं जाना है...!
इस तरह से काली मिर्च की खेती अन्य फसलों की सुरक्षा में भी अप्रत्यक्ष रूप से योगदान देती है, क्योंकि ये जानवर उस क्षेत्र से दूर रहते हैं.
सवाल: यदि कोई किसान काली मिर्च की खेती करना चाहता है, तो वह किस विधि से करे? और इसका पौधा कहां से प्राप्त कर सकता है? साथ ही मार्केटिंग कैसे करे?
जवाब: देखिए, मेरा मानना है कि आप चाहे धान उगाएं, गेहूं उगाएं या काली मिर्च - कोशिश यह होनी चाहिए कि खेती में कम से कम रासायनिक उत्पादों का उपयोग करें. क्योंकि हमारे आसपास खरपतवार से खाद बनाने, वर्मी कम्पोस्ट, और जैविक तरीकों से खेती करने के कई बेहतरीन विकल्प मौजूद हैं.
यदि कोई किसान काली मिर्च की MDBP-16 किस्म की खेती (Black Pepper Variety MDBP-16 Farming) करना चाहता है, तो वह 'मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म' की वेबसाइट पर विजिट कर सकता है और वहां से संपर्क कर जानकारी प्राप्त कर सकता है.
हमने बस्तर की आदिवासी महिलाओं के समूहों को इस किस्म के पौधे तैयार करने की ट्रेनिंग दी है. आज वे न केवल हमारे लिए, बल्कि देशभर के किसानों के लिए भी बेहद उच्च गुणवत्ता के पौधे तैयार करती हैं. हालांकि, ये पौधे ऑर्डर के अनुसार ही तैयार किए जाते हैं, और तैयार होने में थोड़ा समय लगता है. लेकिन इनकी गुणवत्ता अत्यंत बेहतरीन होती है. महिलाएं इन पौधों की देखभाल अपने बच्चों की तरह करती हैं, ताकि एक भी पौधा खेत में जाकर मुरझाए या खराब न हो.
खेती से लेकर मार्केटिंग तक हमारा समूह किसानों की पूरी सहायता करता है. यहां कोई बिचौलिया नहीं होता. किसान की उपज के अनुसार खरीदार सीधे किसान के खाते में भुगतान करता है.
हमारे पास एक विशेष मार्केटिंग प्लेटफ़ॉर्म Central Herbal Marketing Federation of India (CHMFI) है.
यह किसी भी राजनीतिक या निजी पार्टी से जुड़ा हुआ नहीं है. यह जैविक किसानों के लिए एक पारदर्शी और खुला मार्केटिंग मंच है, जिसके माध्यम से किसान बिना एक रुपये खर्च किए अपने हर्बल उत्पादों की बेहतरीन कीमत प्राप्त कर सकते हैं- चाहे वह भारत का बाज़ार हो या विदेश का.
हालांकि, इसके लिए कुछ सरल औपचारिकताएं पूरी करनी होती हैं.
ना कोई फीस होती है, ना कोई कमीशन.
हर प्रक्रिया पारदर्शी होती है- उपज कहां बिक रही है, कितनी कीमत पर बिक रही है, यह सारी जानकारी सीधे किसान को मिलती है.
यही वजह है कि हमारे संगठन की पहुंच दिन-ब-दिन बढ़ रही है.
वर्ष 2005 में भारत सरकार के कृषि मंत्रालय ने हमारे समूह को देश का सबसे बड़ा जैविक किसानों का समूह घोषित किया था. उस समय हमारे साथ 16 राज्यों के किसान थे. आज हमारे साथ 25 राज्यों के किसान जुड़ चुके हैं. हमारे सदस्य किसान लाभदायक खेती कर रहे हैं, जैसे: मसालों, औषधीय पौधों (Medicinal Plants), एरोमेटिक प्लांट्स, इमारती लकड़ी और अन्य जैविक फसलें की खेती करते हैं.
हर किसान अपनी व्यक्तिगत क्षमता और संसाधनों के आधार पर खेती करता है, लेकिन चाहे मार्केटिंग स्वयं करे या हमारे समूह के माध्यम से, हम हर तरह से सहयोग देते हैं.
और जहां तक बात काली मिर्च की खेती की है - यदि कोई किसान इसे लगाना चाहता है, तो हम न केवल पौधे प्रदान करते हैं, बल्कि उसे लगाने से लेकर, देखभाल और बाज़ार तक पहुंचाने में हर संभव सहयोग भी करते हैं.
सवाल: आप अपने अनुभव के आधार पर कृषि जागरण के दर्शकों एवं पाठकों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
जवाब: मैं यही कहना चाहूंगा कि हमें परंपरागत खेती के साथ-साथ नवाचार और आधुनिक पद्धतियों की ओर भी बढ़ना होगा. ऐसी फसलें, जो जल्दी खराब हो जाती हैं, उन्हें तभी उगाएं जब आपके पास उनके लिए बाज़ार पास में हो. काली मिर्च एक ऐसा मसाला है जो चार से पांच साल तक खराब नहीं होती. इसलिए जब भी खेती करें, तो हर पहलू को ध्यान में रखकर करें.
जिस तरह हमारा एक संगठन है, उसी तरह आप भी किसी विश्वसनीय किसान समूह या संगठन से जुड़कर खेती करें. क्योंकि किसान खेतों में नहीं हारता, वह बाजार में हारता है. अगर किसान को बाज़ार में जीतना है, तो उसे समूह बनाकर आगे आना होगा.
मैं यह भी कहना चाहूंगा कि प्रायः किसान अपनी सफलता का रहस्य दूसरों से साझा नहीं करते,
लेकिन मैं हमेशा कहता हूं कि आप हमारे फार्म पर आइए, हमारे गोदाम पर आइए, चीज़ों को नज़दीक से देखें, समझें और महसूस करें. सिर्फ़ पढ़कर या वीडियो देखकर निर्णय मत लीजिए. ख़ुद आएं, देखे-परखे और फिर समझदारी से आगे बढ़ें.
मेरा दृढ़ विश्वास है कि आने वाला समय खेती का समय है. सफलता की राह खेतों से होकर ही गुजरेगी. भारत के उत्थान की राह खेतों के बीच से निकलती है, और भारत को 'विश्वगुरु' बनाने का रास्ता भी खेती से होकर ही जाता है.