आज के बदलते वातावरण एवं जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए भरपूर फसल उत्पादन हेतु क्रांतिक अवस्थाओं में पौधों को पानी की अधिक आवश्यकता होती है. यदि इन अवस्थाओं में पानी उपलब्ध न हो तो फसल की पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. ये अवस्थाएं फसल में अलग-अलग समय पर आती है. इस प्रकार यदि किसान भाई बताई गई बातों का ध्यान रखते हुए रबी फसलों में सिंचाई की व्यवस्था करेंगे तो निश्चित ही भरपूर उत्पादन ले पायेगे.
किसान इस लेख के माध्यम से आपको रबी फसलों की आवश्यकता के अनुसार सिंचाई की सही समय पर पौधों की आवश्यकता को बताया गया है जिससे पानी की सही मात्रा में पौधे उपयोग कर भरपूर उत्पादन दे सके और सिंचाई जल का सदुपयोग भी हो सके.
फसलों की क्रांतिक अवस्था: क्रांतिक अवस्थाओं में पौधों को पानी की अधिक आवश्यकता होती है. जिससे कि फसलों की वृद्विकाल में जब जल की कमी के प्रति पौधे अत्यंत संवेदनशील होते है इस अवस्था को क्रांतिक अवस्था कहते हैं. रबी की फसलों की विभिन्न क्रांतिक अवस्था इस प्रकार है:-
1. गेहूं- गेहूं के पूरे जीवन काल में पांच अवस्थाओं को अति महत्वपूर्ण माना गया है इन अवस्थाओं में पानी की कमी होने पर उत्पादन प्रभावित होता है.
द्वितीयक जडे़ या क्राउन रूट बनना शुरू होने पर - यह अवस्था गेहूं की बुवाई के 20 से 25 दिन बाद आती है. इस अवस्था में भूमि के नीचे ऊपरी सतह पर फसल की द्वितीयक जड़े निकलना प्रारम्भ हो जाती हैं तथा भूमि से पोशक तत्व लेना षुरू कर देती है. इस अवस्था पर पौधों को पानी मिलना अति आवष्यक होता है नही तो नई एवं छोटी जड़े पूर्णतया विकसित नहीं हो पाती हैं तथा पौधों की वृद्वि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.
कल्ले निकलते समय - गेहॅू में यह अवस्था बुवाई के 40 से 45 दिन बाद षुरू होती है . इस समय पौधों में कल्ले निकलते है इस अवस्था पर सिंचाई करने पर कल्लों की संख्या में बढोतरी होती है.
तनों में गॉठ बनने की अवस्था - यह अवस्था बुवाई के 60 से 65 दिन बाद आती है इस अवस्था में सिंचाई करने से पौधे की बढ़वार व दानों की संख्या का निर्धारण होता है.
फूल आने पर - गेहूं की फसल में बुवाई के 85 से 90 दिन बाद फूल बनने शुरू होते है इस अवस्था में सिंचाई करने से बालियों की संख्या व लम्बाई में बढ़ोत्तरी होती है.
दानों की दूधिया अवस्था पर - फसल की यह अवस्था 110 से 115 दिन बाद षुरू होती हैं इस समय सिंचाई करने पर दानों के भराव पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है जिससे दाना पूर्णतया विकसित हो जाता है. अतः सिंचाई की व्यवस्था करना अति आवश्यक होता है.
सिंचाई की संख्या पानी की उपलब्धता पर निर्भर करती है. अगर सिंचाई की पूर्ण सुविधा नहीं है तो पहले बताई गयी सभी अवस्थाओं पर सिंचाई न होने पर उपलब्धता के हिसाब से सिंचाई की जा सकती हैं .
अगर एक सिंचाई का पानी उपलब्ध हो तो - बुवाई के 30-35 दिन
दो सिंचाई- (1) क्राउन रूट या द्वितीयक जडे निकलते समय (2) फूल आने पर
तीन सिंचाई- (1) क्राउन रूट या द्वितीयक जडे निकलते समय (2) तनों में गांठ बनते समय (3) फूल आने पर
चार सिंचाई- (1) क्राउन रूट या द्वितीयक जडे निकालते समय (2) कल्ले निकलने की अन्तिम अवस्था पर (3) तनों में गांठ बनते समय (4) फूल आने पर.
2. जौ - जौ की फसल में गेहूं की अपेक्षा कम सिंचाई की आवश्यकता होती है. जौ में अपेक्षाकृत अधिक सूखा सहन करने की क्षमता होती है. जौ की खेती अधिकतर उपजाऊ फसल के रूप में की जाती है. जौ की फसल हेतु सामान्यतः तीन सिंचाई की आवश्यकता होती हैं
पहली बोने के 30 दिन बाद, दूसरी 60 से 75 दिन बाद तथा तीसरी सिंचाई दूधिया अवस्था पर देना पर्याप्त रहता है. लम्बी बढ़ने वाली किस्मों में दो सिंचाई बोने के 30 से 35 दिन बाद तथा दूसरी सिंचाई दूधिया अवस्था में करना लाभप्रद होता है. रबी मौसम में यदि वर्षा हो जाये तो उसके अनुसार सिंचाई कम कर देनी चाहिए. अगर एक सिंचाई का पानी उपलब्ध हो तो इसे सक्रिय फुटान बोने के 30 से 35 दिन बाद देना चाहिए.
3. चना - सामान्यतः चना फसल की खेती वर्षा आधारित क्षेत्रों में की जाती है. चना फसल में दो सिंचाई की अनुशंसा की गई है. प्रथम सिंचाई बुवाई के 40-50 दिन बाद (पौधे में फूल की कली बनते समय) तथा द्वितीय सिंचाई बुवाई के 70-75 दिन बाद (फली में दाने बनते समय) सिंचाई करने से अच्छी उपज प्राप्त होती है.
- मसूर - मसूर की खेती साधारणतया असिंचित क्षेत्रों में की जाती है फिर भी यदि पानी की उपलब्धता है तो बुवाई के 45 से 50 दिन बाद फूल आने से पहले व 60 से 65 दिन बाद फली बनने पर सिंचाई करना अधिक लाभदायक होता है. यदि एक सिंचाई उपलब्ध हो तो 60 से 65 दिन पर सिंचाई करना चाहिए. मसूर को बहुत ही कम पानी की आवश्यकता होती है. अतः हमेशा हल्की सिंचाई करनी चाहिए अन्यथा पौधों की वानस्पतिक वृद्धि अधिक हो जाती है जिसके चलते उत्पादन कम हो जाता है.
- मटर - मटर की फसल को देशी व उन्नत किस्मों में दो सिंचाई की आवश्यकता होती है. पहली सिंचाई फूल बनने की अवस्था में एवं दूसरी सिंचाई फली बनने की अवस्था में करनी चाहिए. सिंचाई हमेशा हल्की करनी चाहिए. जिससे पानी का भराव व ठहराव न हो अन्यथा फसल के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है.
- सरसों व तोरिया- सामान्यतया सरसों व तोरिया को भी सिंचित नमी में ही उगाया जाता है अच्छी पैदावार के लिए सरसों की फसल में दो सिंचाई की आवश्यकता होती है . पहली सिंचाई फूल आने से पहले व दूसरी सिंचाई फली में दाने बनते समय करनी चाहिए. यदि पर्याप्त मात्रा में जल उपलब्ध हो तो एक अतिरिक्त सिंचाई वानस्पतिक वृद्धि की अवस्था में करने से उत्पादन अच्छा होता है.
सिंचाई जल की मात्रा- सिंचाई जल का समुचित प्रयोग तभी हो सकता है जब सिंचाई के लिए उतने ही पानी का प्रयोग किया जाये जितना आवष्यक हो अन्यथा फसल पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है. प्रथम सिंचाई हल्की ही करनी चाहिए जिससे कि भूमि की ऊपरी सतह नम हो व अंकुरण आसानी से हो सके इसके बाद प्रत्येक सिंचाई 5 से 6 सेमी0 से अधिक नहीं करनी चाहिए क्यों कि अत्यधिक पानी रिस कर भूमि में चला जाता है व वायु संचार को प्रभावित करता है.
- सावधानियां- सिंचाई करते समय ध्यान रहे कि हर क्यारी में समान पानी लगे.
- फसल दूधिया अवस्था में है तो हल्की सिंचाई करें.
- सिंचाई षान्त वातावरण में ही करें हवा चलने पर पौधे गिरने का डर रहता है.
- भारी मृदा में जल धारण क्षमता अधिक होने से पानी अधिक समय तक रहता है.ऐसी अवस्था में कम सिंचाई करें.
- रेतीली मृदा में बार-बार सिंचाई की आवश्यकता होती है.
- अधिक रेतीली मृदा में फुहार विधि द्वारा सिंचाई करे ताकि लिंचिंग द्वारा पानी कम नष्ट हो.
इस प्रकार यदि किसान के द्वारा बताई गई बातों का ध्यान रखते हुए रबी फसलों में सिंचाई की व्यवस्था करेंगे तो निश्चित ही भरपूर उत्पादन ले पायेगे. इसके अतिरिक्त जल का अनावश्यक प्रयोग रोककर वे पर्यावरण संरक्षण में भी भागीदार बनेंगे.
लेखक:
मेदनी प्रताप सिंह, संजय कुमार सिंह एवं शुभम सिंह कृषि विज्ञान केन्द्र, भा.कृ अनु.प.-केन्द्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान, नबीबाग बैरसिया रोड, भोपाल भोपाल