मिलेट फसलें मतलब बाजरा वर्गीय फसलें जिनको हम सब किसान भाई मिलेट अनाज वाली फसलों के रूप में जानते हैं। मिलेट अनाज वाली फसलों से तात्पर्य है कि इन फसलों को उगाने एवं उपज लेने के लिए हम सब किसान भाइयों को ज्यादा मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ता। सभी मिलेट फसलों का उत्पादन सुगमता से लिया जा सकता है। जैसे कि हम सभी किसान भाई जानते हैं कि सभी मिलेट फसलों को उपजाऊ भूमि या बंजर भूमि में भी उगा कर आसान तरीके से उत्पादन ले सकते हैं। मिलेट फसलों के उत्पादन हेतु पानी की आवकयकता होती है। उर्वरक का प्रयोग मिलेट फसलों में ना के बराबर होता है जिससे किसान भाइयों को अधिक लागत से राहत मिलती है।
जैसे कि हम सभी जानते हैं कि हरित क्रांति से पहले हमारे देश में पैदा होने वाले खाद्यान्न में मिलेट फसलों की प्रमुख भूमिका थी परंतु हरित क्रांति के पश्चात इसकी जगह धीरे-धीरे गेहूं और धान ने ले लिया और मिलेट फसलें जो हमारी प्रमुख खाद्यान्न हुआ करती था वह हमारी भोजन की थाली से बाहर हो गईं।
हमारा देश भारत आज भी मिलेट फसलों के उत्पादन में दुनिया में सबसे अग्रणी है। जिसमें महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, झारखंड, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में किसान भाई बड़े स्तर पर मोटे अनाज की खेती करते हैं। वहीं असम और बिहार में मोटे अनाज की सर्वाधिक खपत है। दानों के आकार के अनुसार मिलेट फसलों को प्रमुखता से दो भांगो में बांटा गया है। प्रथम वर्गीकरण में मुख्य मोटे अनाज जैसे ज्वार और बाजरा आते हैं तथा दूसरे वर्गीकरण में छोटे दाने वाले मिलेट अनाज जैसे रागी, सावा, कोदो, चीना, कुटुकी और कुकुम आते हैं। इन छोटे दाने वाले, मिलेट अनाजों को साधारणतया कदन्न अनाज भी कहा जाता है।
चर्चा का विषय: जैसा कि हम सभी जानते है कि वर्ष 2023 को “अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष” के रूप में मनाया जा रहा है जो कि भारत के ही प्रयास स्वरुप पर यूएनओ ने वर्ष 2023 को मिलेट वर्ष के रूप में घोषित किया है। भारत सरकार ने मिलेट फसलों की विशेषता और महत्व को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2018 को “राष्ट्रीय मिलेट वर्ष” के रूप में मनाया है। भारत सरकार ने 16 नवम्बर को “राष्ट्रीय बाजरा दिवस” के रूप में मनाने का फैसला लिया है।
सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयास: भारत सरकार द्वारा मिलेट फसलों की महत्व को ध्यान में रखते हुए किसान भाइयों को मिलेट की खेती के लिए बढ़ावा दिया जा रहा है। मिलेट फसलों के उचित मूल्य के लिए सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि की जा रही है। ताकि किसान भाइयों को इसका अच्छा लाभ मिल सके। भारत सरकार और राज्य सरकारों द्वारा मिलेट फसलों के क्षेत्रफल और उत्पादन में वृद्धि हेतु विभिन्न सरकारी योजनाएं शुरू की जा रही हैं जिससे किसान भाई सुगमता से उतपादन का लाभ ले सके। सरकारों द्वारा मिलेट फसलों के पोषण और स्वस्थ लाभों को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण और शहरी लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाने का भी प्रयास किये जा रहे हैं। जलवायु परिवर्तन ने भी देश में गेहूं और धान के उत्पादन को काफ़ी प्रभावित किया है जिस वजह से सरकार द्वारा मोटे अनाज की तरफ ध्यान केन्द्रित करवाने के प्रयास किये जा रहे हैं।
पोषक तत्वों की भरपूरता: मिलेट फसलें पोषक तत्वों के नजरिए से पारंपरिक खाद्यान गेहूं और चावल से अधिक समृद्ध हैं मिलेट फसलों में पोषक तत्त्व की प्रचुर मात्रा होने के कारण इन्हें “पोषक अनाज” भी कहा जाता है। इनमें काफी मात्रा में प्रोटीन, फाइबर, विटामिन-E पाया जाता है तथा आयरन कैल्शियम, मैग्नीशियम, कैल्शियम एवं पोटैशियम भी समुचित मात्रा में उपलब्ध होता है। मिलेट फसलों के बीज में फैटो नुत्त्रिएन्ट पाया जाता है जिसमे फीटल अम्ल होता है जो कोलेस्ट्राल को कम रखने में सहयोगी है। इन अनाजों के निमयित उपभोग करने वालों में हृदय रोग, कर्क रोग, अल्सर, कोलेस्ट्राल और कब्ज जैसे समस्याओं को कम देखा गया है।
विभिन्न मिलेट फसलों का संक्षिप्त परिचय:
ज्वार: ज्वार खेती भारत में प्राचीन काल से होती चली आयी है। भारत में ज्वार की खेती मोटे दाने वाली अनाज फसल एवं हरे चारे दोनों के रूप में की जाती है। ज्वार की खेती सामान्य वर्षा वाले क्षेत्रों में बिना सिंचाई के हो रही है। इसके लिए उपजाऊ जलोड़ अथवा चिकिनी मिट्टी काफी उपयुक्त रहती है। ज्वार की फसल भारत में अधिकतर खरीफ ऋतु में बोई जाती है। जिसकी वृद्धि के लिए 25 डिग्री सेल्सियस से 30 डिग्री सेल्सियस तक तापमान उचित होता है। ज्वार की फसल प्रमुखता महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडू में की जाती है। ज्वार की फसल बुआई के पश्चयात 90 से 120 दिनों में पककर कटाई के लिए तैयार हो जाती है। ज्वार की फसल से 10 से 20 क्विंटल दाने और 100 से 150 क्विंटल हरा चारा प्रति एकड़ की पैदावार है। ज्वार में आयरन, जिंक, सोडियम, पोटैशियम व फास्पोरस की प्रचुर मात्रा पाई जाती है। ज्वार का मुख्य रूप से दलिया, डोसा, इडली, उपमा आदि में प्रयोग किया जाता है।
बाजरा: बाजरा मोटे अनाज की प्रमुख और लाभकारी फसल है जो विपरीत स्थितियों में और सीमित वर्षा वाले क्षेत्रों में तथा बहुत कम उर्वरक की मात्रा के साथ अच्छा उत्पादन देती है जहां दूसरी फसल नहीं रह सकती है। बाजरा मुख्यता खरीफ़ की फसल है। बाजरा के लिए 20 से 28 डिग्री सेल्सियस तापमान उप्क्युक्त रहता है। बाजरे की खेती के लिए जल निकास की उचित सुविधा के साथ-साथ काली दोमट और लाल मिट्टी उपयुक्त हैं। बाजरे की फसल से 30 से 35 क्विंटल दाना और 100 क्विंटल सुखा चारा प्रति हेक्टेयर का उत्पादन मिलता है। बाजरे की खेती मुख्यता राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात और हरियाणा में की जाती है। बाजरे में मुख्य रूप से कैल्शियम, मैग्नीशियम, कॉपर, जिंक, विटामिन-ई तथा विटामिन-बी काम्प्लेक्स की प्रचुर मात्रा पाई जाती है। बाजरा का प्रयोग मुख्य रूप से भारत में बाजरा बेसन लड्डू और बाजरा हलवा के रूप में किया जाता है।
रागी (मंडुआ): मुख्यता रागी का प्राथमिक विकास अफ्रीका के एकोपिया क्षेत्र में हुआ है। भारत में रागी की खेती लगभग 3000 साल से की जा रही है। रागी को देश के अलग-अलग भागों में अलग-अलग मौसम में उगाया जाता है। वर्षा आधारित फसल के रूप में जून में इसकी बुआई की जाती है। यह मुख्यता तमिलनाडू, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बिहार आदि में उगाई जाने वाली फसल है। रागी में मुख्यता प्रोटीन और कैल्शियम अधिक मात्रा में होता है। यह चावल और गेहूं से 10 गुना अधिक कैल्शियम व लौह का स्त्रोत है जिस वजह से बच्चों हेतु प्रमुख खाद्य फसल हैं। रागी से मुख्य रूप से रागी बालूसाही, रागी चीका, रागी चकली आदि पकवान बनाये जाते हैं।
कोदों: भारत में कोदों लगभग 3000 साल पहले से उपलब्ध था। भारत में कोदों को अन्य अनाज की तरह ही उगाया जाता हैं। कवक संक्रमण की वजह से कोदों बारिश के बाद जहरीला हो जाता है। स्वस्थ अनाज स्वास्थ के लिए लाभकारी होता है। इसकी खेती ज्यदातर ख़राब पर्यावरण के अधीन जनजातीय क्षेत्रों में सीमित है। इस अनाज में प्रोटीन, वसा तथा सबसे अधिक रेसा की मात्रा पाई जाती है। यह ग्लूटन एलजरी वाले लोगो के उपयोग के लिए उपयुक्त है। इसका मुख्य प्रयोग भारत में कोदो पुलाव, और कोदो अंडे जैसे पकवान बनाने हेतु किया जाता है।
सांवा: करीब 4000 साल पहले इसकी खेती जापान में की जाती है। इसकी खेती सामान्यता सम शीतोष्ण क्षेत्रों में की जाती है। भारत में सावा दाना व चारा दोनों के उत्पादन हेतु प्रयोग किया जाता है। यह मुख्य रूप से बिहार, तमिलनाडू, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में उगाया जाता है। सांवा मुख्य फैटी एसिड, प्रोटीन, एमिलेज की प्रचुरता को दर्शाता है। सांवा रक्त सर्करा और लिपिक स्तर को कम करने के लिए काफी प्रभावी है। आज काल मधुमेह के बढ़ते हुए परिदृश्य में सांवा मिलेट एक आदर्श आहार बन सकता है। सांवा का प्रयोग मुख्य रूप से संवरबड़ी, सांवापुलाव व सांवाकलाकंद के रूप में किया जाता है।
चीना: चीना मिलेट की एक प्राचीन फसल है। यह संभवता मध्य व पूर्वी एशिया में पाई जाती है। इसकी खेती यूरोप में नव पाषाण काल में की जाती थी। यह मुख्यता शीतोष्ण क्षेत्रों में उगाई जाने वाली फसल है। भारत में यह दक्षिण में तमिलनाडु और उत्तर में हिमालय के चिटपुट क्षेत्रों में उगाई जाती है। यह जल्दी परिपक होकर तैयार होने वाली फसल (60-65 दिन) है। इसके सेवन से इतनी ऊर्जा प्राप्त होती है कि व्यक्ति बिना थकान महसूस किये सुबह से शाम तक काम कर सकते हैं जो कि चावल और गेहूं से संभव नहीं है। इसमे प्रोटीन, रेशा, खनिज जैसे कैल्शियम काफी मात्रा में पाया जाता है। यह स्वास्थ लाभ के गुणों से भरपूर है। इसका प्रयोग मुख्यता चीना खाजा, चीना रवा एडल, चीना खीर आदि के रूप में किया जाता है।
कुटकी: कुटकी भारत में एक सीमित दायरे में उगाई जाने वाली फसल है। यह उत्तरी भारत और दक्षिणी पूर्वी एशिया में जंगली फसलों के रूप में पाई जाती है। प्रतिकूल मौसम में चारा तथा अनाज के लिए यह उपयोगी फसल है। इस फसल को अंतवर्ती फसल के रूप में उगाया जाता है। कुटकी में 37-38% तक पाचक रेशा होता है जिसे पौष्टिक औषधीय पदार्थ और अन्य अनाज से अधिक उच्चतम माना जाता है। इसे मुख्य रूप से चावल के रूप में खाया जाता हैं। कुटकी हलवा, कुटकी दही चावल आदि इसके प्रमुख पकवान हैं।
सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टिकोण: जैसे हम सभी किसान भाई जानते हैं कि मिलेट फसलों को सुखा प्रतिरोधी फसलें कहा जाता हैं जो कि शुष्क एवं अर्ध शुष्क जलवायु जैसी कठोर परिस्थितियों में भी आसानी से उगाई जा सकती हैं, मिलेट फसलों में मुख्यता पानी और उर्वरको की आवश्यकता कम होती हैं जिन्हें हम कम उपजाऊ भूमि में भी आसानी से उगा सकते हैं। जिस वजह से मिलेट फसलों को “चमत्कारी अनाज” या “भविष्य की फसल” भी कहा जाता है। मिलेट फसलों में पोषक तत्वों की प्रचुर मात्रा पाई जाती है। मिलेट अनाज लाखों लोगों तथा लघु और सीमांत किसानों को खाद्य और आजीविका की सुरक्षा प्रदान करता है। मिलेट फसलों की खेती मुख्यता मानव हेतु अनाज और पशुओं हेतु चारों की दोहरी उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए किया जाता है। जो कम वर्षा आधारित वाले क्षेत्रों में किसी वरदान से कम नहीं है।
महत्व एवं उपयोगिता: मिलेट फसलें मुख्या रूप से कम वर्षा वाले क्षेत्र में रोजगार सृजन में सहयक हैं जहां अन्य वैकल्पिक फसलों का उपयोग कम तथा मिलेट फसलों की अधिक उपयोगिता रहती है। मिलेट फसले मानव उपभोग हेतु भोजन (अनाज) पशुओं हेतु चारा और ईधन और औधोगिक उपयोग हेतु प्रयोग की जाती हैं। मिलेट अनाज पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं जो कुपोषण एवं बीमारियों से लड़ने में उत्कृष्ट योगदान निभाते हैं। मिलेट फसलें खाद्य प्रसंसकरण उद्योग में और एक आशाजनक निर्यात में योग्य वास्तु के रूप में अच्छी संभवनएं प्रदान करती हैं।
अजय सिंह1, श्रद्धा सिंह2, सौरभ सिंह3
1कृषि अर्थशास्त्र विभाग, बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झाँसी (उत्तर प्रदेश)
2कृषि विभाग, प्रतापगढ़
3फसल कार्यकी विभाग
आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या (उत्तर प्रदेश) भारत