मोती वैसे तो साज- श्रृंगार के काम में ही आता है लेकिन बाजार में इसकी मांग हमेशा बनी रहती है. भारत समेत दुनिया के प्रायः सभी महिलाएं सुंदर दिखने के लिए श्रृंगार करती हैं. इसके लिए वे जो आभूषण धारण करती हैं उनमें कहीं न कहीं मोती का भी योगदान होता है. किसान भी मोती की खेती से अच्छी खासी आय कर अपनी किस्मत संवार सकते हैं. इसलिए कि मोती की खेती में कम लागत आती है और मुनफा ज्यादा होता है. किसान आस-पास के तालाब, जलाशय और अपने घर की खाली पड़ी जमीन में भी छोटा तालाब खोद कर मोती की खेती की शुरूआत कर सकतते हैं. हम यहां वैज्ञानिक तरीके से मोती की खेती पर विस्तार से प्रकाश डाल रहे हैं ताकि इसकी खेती के इच्छुक किसानों को जानकारी प्राप्त हो सके.
खेती करने की विधिः मोती की खेती के लिए कम से कम 10 x10 फीट या इससे कुछ बड़े आकार के तालाब की जरूरत पड़ती है. इसकी खेती के लिए अनुकूल मौसम अक्टूबर से दिसंबर तक होता है यानी शरद ऋतु में मोती की खेती अच्छी होती है. व्यावसायिक रूप से मोती संवर्धन के लिए 0.4 हेक्टेयर या इससे कुछ बड़े आकार के तालाब में अधिकतम 25000 सीप से उत्पादन शुरू किया जा सकता है. इसके लिए किसान को तटवर्ती क्षेत्रों तथा तालाब, नदी और जलाशयों से सीप एकत्रित करने होंगे. समुद्री इलाकों से सीपों को सस्ते दर में खरीदा भी जा सकता है. प्रत्येक सीप में शल्य क्रिया के जरिए इसके अंदर चार से छह मिमी. व्यास वाले साधारण या डिजायनदार बीड जैसे गणेश, बुद्ध, पुष्प आदि आकृतियां डाली जाती हैं. बाहर से इन आकृतियों का डालने के बाद सीप को पूरी तरह बंद कर दिया जाता है. इन सीपों को नायलॉन के बैग में 10 दिनों तक एंटी-बायोटिक और प्राकृतिक चारे पर रखा जाता है. रोजाना इनका निरीक्षण किया जाता है और मृत सीपों को हटा लिया जाता है. इसके बाद इन सीपों को तालाबों या जलाशयों में डाल दिया जाता है. इन सीपों को नायलॉन बैगों में रखकर बांस या बोतल के सहारे लटका दिया जाता है और तालाब में एक मीटर की गहराई पर छोड़ दिया जाता है. कुछ दिनों में देखेंगे कि अन्दर से निकलने वाला पदार्थ बीड के चारों ओर जमने लगता है और अन्त में मोती का रूप लेता है. 8-10 माह बाद सीप को चीर कर मोती निकाल लिया जाता है. प्रति हेक्टेयर में 20 हजार से 30 हजार सीप को लेकर व्यवसायिक रूप से मोती की खेती की जा सकती है. किसान कम लागत में अपनी खाली पड़ी जमीन में तालाब खोदकर छोटे स्तर पर भी मोती की खेती की शुरूआत कर सकते हैं.
मुनाफाः किसान यदि समुद्री इलाकों या अन्य तालाबों- जलाशयों से सीप संग्रह करते हैं तो उनका नुनाफा अधिक होगा. लेकिन हजारों की संख्या में सीप एकत्रित करना संभव नहीं है. इसलिए किसान समुद्री इलाकों में 20- 30 रुपए प्रति सीप की दर से इसे खरीद सकते हैं. वहीं उत्पादन के बाद बाजार में एक मिमी से 20 मिमी सीप के मोती की कीमत करीब 300 रूपये से लेकर 1500 रूपये तक आंकी जाती है. अगर मोतियों को थोड़ा डिजायन कर दिया जाए तो बाजार में उसकी कीमत और बढ़ जाती है. स्थानीय बाजार की अपेक्षा निर्यातक एजेंसियों को बिक्री कर और अधिक आय की जा सकती है. मोती तैयार होने के बाद खाली पड़ी सीप को भी बाजार में बिक्री कर अतिरिक्त पैसा उठाना संभव है. कई सजावट के सामान में सीप का इस्तेमाल किया जाता है. कन्नौज में तो सीपों से इत्र का तेल निकालने का काम भी होता है. मोती की खेती पर्यावरण के लिए भी अनुकूल है. इसलिए कि सीपों से नदीं और तालाबों के जल का शुद्धिकरण होता रहता है. इससे जल प्रदूषण की समस्या से हम निजात पा सकते हैं.
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प्रशिक्षणः सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेश वॉटर एक्वाकल्चर, भुवनेश्वर (ओड़ीसा) में मोती की खेती करने का प्रशिक्षण दिया जाता है. संस्थान ग्रामीण नवयुवकों, किसानों एवं छात्र-छात्राओँ को मोती उत्पादन पर तकनीकी व वैज्ञानिक प्रशिक्षण प्रदान करता है. किसान हेल्प भी किसानों और छात्र-छात्राओँ को इस बारे में तकनीकी जानकारी उपलब्ध कराता है. संस्था हापुड़ में मोती की खेती के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाती है. चित्रकूट जिले के कृषि विज्ञान केन्द्र, गनिवां में भी मोती की खेती के लिए स्थानीय किसानों को प्रशिक्षण दिया जाता है. देश के विभिन कृषि विज्ञान केन्द्र से भी मोती की खेती की वैज्ञानिक जानकारी हासिस की जा सकती है.किसी किसी प्रशिक्षण केंद्र में तो कृतिम रूप से सीपी तैयार करने की भी जानकरियां उपलब्ध कराई जा रही है.
महत्वः व्यावसायिक रूप से मोती तैयार करने में चीन विश्व का सबसे बड़ा उत्पादक देश है. भारत में आभूषण व्यवसाय में इस्तेमाल होने वाले मोती को चीन और जापान से आयात करना पड़ता है. लेकिन भारत में भी तैयार उच्च गुणवत्ता वाले मोती की मांग अब विदेशों में बढ़ने लगी है. देश में हैदराबाद तो मोतियों का शहर के नाम से ही जाना जाता है. आंध्र प्रदेश के तटवर्ती क्षेत्रों में उच्च गुणवत्ता वाले मोती का व्यापक पैमाने पर उत्पादन होता है और इसका इतिहास 400 वर्षों पुराना है. दक्षिण भारत के तमिलनाडू, गुजरात के कच्छ, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और ओड़िशा आदि राज्यों में भी उच्च गुणवत्ता वाले मोती का व्यवसायिक उत्पादन होता है. भारत सरकार का सेंट्रल मेरिन फिसरिज रिसर्च इंस्टीच्यूट ने केरल के तिरुवनंतपुरम में व्यवसायिक रूप से मोती के उत्पादन का बड़ा केंद्र स्थापित किया है. मत्स्य पालन, मुर्गी पालन और पशु पालन की तरह किसान यदि मोती की खेती में दिलचस्पी बढाते हैं तो इसकी आयात पर देश की निर्भरता कम होगी और आर्थिक समृद्धि भी बढ़ेंगी.