खेतों में उर्वरता की कमी आज एक बहुत बड़ी समस्या है. किसान अपने खेत में विभिन्न प्रकार के रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक आदि का उपयोग करते है, जिससे की फसलों की पैदावार में बढ़ोतरी हो, परन्तु इससे खेत की मिट्टी की उर्वरता शक्ति खत्म हो सकती है.
मिट्टी के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुण में गिरावट आने लगती है. ऐसे में किसानों के लिए जैविक खाद का विकल्प एक वरदान के समान है, जिससे फसलों के उत्पादन में बढ़ोतरी के साथ-साथ, मृदा में उर्वरता शक्ति का संरक्षण तथा पोषक तत्वों की पूर्ति कि जा सकती है.
जैविक खाद क्या है
जैविक खाद जैव अपशिष्टों जैसे कि खेत अपशिष्ट खरपतवार, पशुओं के मल मूत्र से बनता है. जैविक खाद एक बहुत ही उत्तम खाद मानी जाती है. इससे खेत को नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, जस्ता, तांबा, मैंगनीज, आयरन तथा सल्फर जैसे पोषक तत्व मिलते हैं. इसमें बहुत सी सुक्ष्म जीवाणु पाये जाते हैं जो मिट्टी के कणों को भूरभूरा करने एवं मिट्टी में वर्तमान प्राप्त तत्वों को पौधों को प्राप्त होने वाली अवस्था में लाते हैं.
जैविक खादों का मृदा गुणों पर प्रभाव:
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पौधों को पोषक तत्व अधिक मात्रा में प्राप्त होते हैं.
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पौधों में कैल्शियम, मैग्नेशियम, मैंगनीज व सुक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ जाती है.
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मृदा में जल सोखने की क्षमता बढ़ती है.
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मृदा में वायुसंचार अच्छा होता है.
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भारी अथवा चिकनी मृदा तथा रेतीली मृदा की संरचना सुधर जाती है.
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पौधों की जड़ो का विकास अच्छा होता है.
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मृदा में लाभदायक जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है.
अच्छे परिणाम के लिए जैविक खाद को फसल लगाने से 55-30 दिन पूर्व ही मिट्टी में मिला देना चाहिए. पूर्णतः सड़े हुए जीवांश का प्रयोग बुआई के समय भी कर सकते हैं. प्रत्येक फसल लगाने से पहले 10-14 टन/हेक्टेयर के दर से जैविक खाद का प्रयोग कर सकते हैं. जैविक खाद अपशिष्ट पदार्थों से बनकर लाभदायक रूप में बदल जाता है. इस तरह जैविक खाद के प्रयोग से फसलों के उत्पादन में बढ़ोतरी के साथ-साथ मृदा के स्वास्थ्य को भी संरक्षित किया जा सकता है.
कम्पोस्ट खाद बनाने की उन्नत विधि:
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गड्ढे का आकार: ३ मीटर लम्बा, १ मीटर चौड़ा और १ मीटर गहरा हो.
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सामग्री के रूप में खरपतवार, कूड़ा-कचरा, फसलों के डंठल, पशुओं के मलमूत्र, जलकुम्भी, थेयर, चकोर की पत्तियाँ आदि इकट्ठा करें.
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प्रत्येक गड्ढे में जोभी सामग्री उपलब्ध हो, एक पतली परत के रूप में (१५ सें. मी. अर्थात् छह इंच) बिछाये.
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गोबार का पतला घोल (५ प्रतिशत) बनाकर एक सतह पर डालें तथा लगभग २०० ग्राम- लकड़ी की राख बिछाये.
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गड्ढे को उसी प्रकार तक भरते रहे ताकि जमीन से ३० सें. मी. ऊँचाई हो जाये.
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बारिक मिट्टी की पतली परत (५ सें. मी.) से गड्ढे को ढंक दे तथा गोबर से सिंचाई कर बन्द कर दें.
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इस प्रकार इस विधि से लगभग ५-६ महीने में कम्पोस्ट खाद बन कर तैयार हो जायेगी.
इनरिच्ड कम्पोस्ट बनाने की विद्धि:
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उपर बताये गए विधि के अनुसार गड्ढा खोदकर, गड्ढे में सभी उपलब्ध सामग्री को मिलाकर उसे पूरी तरह से नम रखें.
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प्रति टन अपशिष्ट में यूरिया के रूप में २. ५ किलोग्राम नेत्रजन, साथ ही १ प्रतिशत स्फूर मसूरी रॉक स्फूर के रूप में डालें.
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पंद्रह दिनों के बाद फफूंद पेनिसिलियम, एसपरजिलस या ट्रायकूरस ५०० ग्राम प्रति टन जैविक पदार्थ की दर से डालें.
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अपशिष्ट की पलटाई 14, 30 तथा 45 दिनों के अंतर पर करें.
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3-4 महीने में खाद तैयार हो जाएगी.
वर्मी कम्पोस्ट (केंचुआ खाद) क्या है?
वर्मी कम्पोस्टिंग, केंचुओं का उपयोग करके खाद बनाने की एक वैज्ञानिक विधि है. केंचुआ के द्वारा जैविक पदार्थो के खाने के बाद उसके पाचन तंत्र से निकलने वाला अवशिष्ट पदार्थ को वर्म कास्ट कहते है I वर्म कास्ट को लोकप्रिय रूप से ‘काला सोना’ कहा जाता है. कास्ट पोषक तत्वों, पौधों में वृद्धि को बढ़ावा देने वाले पदार्थों, मिट्टी के लाभकारी सूक्ष्म जीवो और रोगजनक रोगाणुओं को रोकने के गुणों से भरपूर होते हैं . वर्मीकम्पोस्ट में पानी में घुलनशील पोषक तत्व होते हैं और यह एक उत्कृष्ट और पोषक तत्वों से भरपूर जैविक खाद है. वर्मीकम्पोस्ट, हल्का काला, महीन दानेदार तथा देखने में चाय पत्ती के जैसा होता है, जो मिट्टी के भौतिक रासायनिक और जैविक गुणों में सुधार कर के उसकी गुणवत्ता को समृद्ध करती है I यह पौधे उगाने और फसल उत्पादन के लिए अत्यधिक उपयोगी है। केंचुए की प्रजातियां (या कंपोस्टिंग वर्म्स) सबसे अधिक इस्तेमाल की जाने वाली रेड विग्लर्स (ईसेनिया फेटिडा या ईसेनिया आंद्रेई) हैं, हालांकि यूरोपीय नाइटक्रॉलर (ईसेनिया हॉर्टेंसिस, समानार्थी डेंड्रोबेना वेनेटा) और रेड केंचुआ (लुम्ब्रिकस रूबेलस) का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। अधिकांश, ईसेनिया फेटिडा का इस्तेमाल होता है, क्योंकि उनके पास खाना खाने की इच्छा (भूख) तेज़ होती है और वे बहुत जल्दी प्रजनन करते हैं.
वर्मी कम्पोस्ट बनाने की विधि:
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केंचुआ खाद बनाने क लिए ऐसी जगह चुनें जहां सीधी धूप न हो लेकिन हवा का प्रवाह भरपूर हो। २ मीटर लंबे और १ मीटर चौड़े क्षेत्र के चारों ओर एक मेड़ बनाएं ताकि खाद सामग्री सभी जगह न फैले।
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सबसे पहले, सतह के नीचे आधा सड़ा हुआ गाय का गोबर या वर्मीकम्पोस्ट की ६ इंच की परत छिड़कें, और इसके ऊपर थोड़ी दोमट मिट्टी डालें। केंचुए को दोमट मिट्टी में डाला जाता है, जिसमें केंचुए अपने घर के रूप में रहते है और डाले गए पदार्थो से केंचुओ को प्रारंभिक अवस्था में भोजन मिलता रहता है। इसके बाद १५००-२००० केंचुआ प्रति वर्ग के हिसाब से उसमे डाले I
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उसके बाद घर एवं रसोई घर की सब्जियों के अवशेष आदि का एक पर्त डाले जो लगभग ८-१० इंच मोटा हो जाए I
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दूसरी पर्त को डालने के बाद सूखे पत्तों या कटा हुआ घास / पुआल आदि को आधा सड़ाकर लगभग ५ सेमी तक दूसरे पर्त के ऊपर बिछाया जाता है।
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प्रत्येक पर्त के बाद पानी देकर गड्ढे को नम रखा जाता है।
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पर्त न तो सूखा होना चाहिए और न ही गीला होना चाहिए।
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अंत में ३-४ इंच मोती गोबर की पर्त डालकर ऊपर से ढक दे I गड्ढे को नारियल या खजूर के पत्तों या एक पुराने जूट के थैले से ढका जा सकता है, जिससे केंचुए आसानी से ऊपर निचे घूम सके I केंचुओ का आवागमन प्रकाश की उपस्थिति में प्रतिबंधित हो सकती है, जो खाद तैयार करने के लिए लंबी अवधि का कारण बन सकता है, इसलिए इसे ढंकना आवश्यक है। ढकने से केंचुओ को पक्षियों से भी बचाया जा सकता है I
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गड्ढे को प्लास्टिक से नहीं ढकना चाहिए क्योंकि प्लास्टिक गर्मी को एक जगह सीमित करती है, जिससे तापमान बढ़ जाता है I
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इन सभी जैविक पदार्थो को समय-समय पर कुदाल से पलटा या मिलाया जा सकता है।
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गड्ढों में नमी बनाए रखने के लिए नियमित रूप से पानी देना चाहिए।
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यदि मौसम बहुत शुष्क है, तो इसे समय-समय पर जांचते रहना चाहिए।
कम्पोस्ट ५० से ६० दिनों में तैयार हो जाएगा I यह काला, दानेदार, हल्का और ह्यूमस युक्त होगा। क्यारी के शीर्ष पर केंचुआ कास्टिंग (वर्मीकम्पोस्ट) की उपस्थिति भी एक संकेतक है की वर्मीकम्पोस्ट को निकाला जा सकता है. क्यारियों को खाद से अलग करने में सुविधा के लिए क्यारियों को खाली करने से दो से तीन दिन पहले पानी देना बंद कर दें (८० प्रतिशत केंचुए क्यारी के सबसे निचले सतह में चले जाएँगे)। खाद की ऊपरी परत और उसमें से केंचुए निकाल दें, फिर बची हुई खाद (सबसे निचली परत को छोड़कर) को इकट्ठा करें। केंचुओ को छलनी/जाली का उपयोग करके अलग किया जा सकता है।
वर्मी कम्पोस्ट से लाभ:
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केंचुओ द्वारा तैयार खाद में पोषक तत्वों की मात्रा साधारण कम्पोस्ट की अपेक्षा अधिक होती है I
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मिट्टी की उर्वरता में सुधार होता है I
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पौधों को प्रमुख और सूक्ष्म पोषक तत्व प्रदान करता है I
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पादप रोगजनकों को नियंत्रित करने के लिए कीटनाशकों के उपयोग को कम करता है I
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मिट्टी में वायु का संचार सुचारु रूप से होता है, जिससे जड़ वृद्धि और सूक्ष्मजीवों की संख्या में सुधार होता हैI
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फसल की पैदावार में वृद्धि होती है।
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इस खाद का उपयोग ज्यादातर बागवानी फसलों और किचन गार्डन में फूल और फलों के आकार को बढ़ाने के लिए किया जाता है।
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मिट्टी की बनावट और मिट्टी की जल धारण क्षमता में सुधार करता है I
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मिट्टी की संरचनात्मक स्थिरता में सुधार करता है, जिससे मिट्टी के कटाव को रोका जा सकता है I
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कार्बनिक पदार्थो का विघटन करने वाले एंजाइम भी इसमें काफी मात्रा में रहते है जो की वर्मी कम्पोस्ट का एक बार प्रयोग करने के बाद लम्बे समय तक भूमि में सक्रिय रहते है I
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पोषक तत्वों की उपलब्धता में सुधार करता है और जटिल-उर्वरक कणिकाओं के रूप में कार्य कर सकता है।
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यह रोगजनक रोगाणुओं की आबादी को कम करने में मदद करता है।
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यह कम ऊर्जा की खपत करता है और कम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन करता है।
वर्मिकपोस्ट बनाने में सावधानियाँ:
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अधिक गर्मी से बचने के लिए १५ - २० दिन पुराने गोबर का प्रयोग करना चाहिए।
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वर्मीकम्पोस्ट की तैयारी में प्रयुक्त सामग्री प्लास्टिक, कांच, रसायन, कीटनाशकों, लोहा आदि से मुक्त होनी चाहिए।
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वर्मी कम्पोस्ट खाद बनाते समय यह ध्यान रखे की नमी की कमी न हो I अनुकूलतम नमी स्तर (३० - ४० %) बनाए रखा जाना चाहिए I नमी बनाये रखने के लिए आवश्यकता अनुसार पानी का छिड़काव करें I
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कम्पोस्ट बेड (ढेर) को ढंककर रखे I
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उचित अपघटन के लिए १८-२५ °C तापमान बनाए रखा जाना चाहिए और कभी भी वर्मी कम्पोस्ट बेड का तापमान ३५ °C से ज्यादा नहीं होना चाहिए I
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केंचुओ को चींटी और मेंढक जैसे शत्रु से बचाना चाहिए I
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कीटनाशकों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
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खाद बनाने की सामग्री में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।
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केंचुओं की उचित वृद्धि और गुणन के लिए वायु संचारण को बनाए रखना चाहिए।
वर्मी कम्पोस्टिंग को लोकप्रिय बनाने में बाधाएं
प्रमुख बाधाओं में से एक वर्मी कम्पोस्ट और वर्मीकम्पोस्ट के उपयोग के बारे में जागरूकता और उचित ज्ञान की कमी है। विभिन्न प्रशिक्षण और विस्तार गतिविधियों का आयोजन करके किसानों को वर्मी कम्पोस्ट और वर्मीकम्पोस्ट के उचित उपयोग के बारे में मार्गदर्शन करना आवश्यक है। उन्हें वर्मी कम्पोस्ट बनाने की प्रक्रिया और वर्मीकम्पोस्ट की मात्रा के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए, जिसे कृषि क्षेत्रों में सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त करने के लिए लागू किया जाना चाहिए । सिंथेटिक उर्वरक की तुलना में जैविक खाद की अधिक लागत भी किसानों के लिए बड़े पैमाने पर जैविक खेती अपनाने में एक बाधा है। वर्मीकम्पोस्ट तकनीक से संबंधित नीति कार्यान्वयन की विफलता के कारण वर्मीकम्पोस्ट का व्यापक उपयोग नहीं हो पाता है। जैविक अपशिष्ट, पानी, तापमान और नमी की निरंतर आपूर्ति बनाए रखना वर्मीकम्पोस्टिंग की प्रक्रिया को जटिल बनाने वाली प्रमुख बाधाएं हैं I परिवहन लागत भी प्रक्रिया को और अधिक महंगा बनाती है। इन सभी समस्याओं के संयुक्त प्रभाव ने वर्मीकम्पोस्टिंग की व्यावसायिक पैमाने की लोकप्रियता में बाधा उत्पन्न की है।
इसके लिए अधिक जगह की आवश्यकता होती है क्योंकि वर्मीकम्पोस्ट में इस्तेमाल होने वाले केंचुए अधिकतर सतह पर भोजन करने वाले होते हैं और एक मीटर से अधिक गहराई में सामग्री में काम नहीं करेंगे। यह तापमान, ठंड की स्थिति और सूखे जैसे पर्यावरणीय दबावों के प्रति अधिक संवेदनशील होते है। प्रीकॉम्पोस्टिंग की आवश्यकता होती है। अधिकांश कम्पोस्ट में उपयोग किये जाने वाले पदार्थो को वर्मीकम्पोस्टिंग से पहले आधा सड़ाया जाता है (प्रीकॉम्पोस्टिंग) I शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके लिए अधिक स्टार्ट-अप संसाधनों की आवश्यकता होती है, या तो नकद में (कीड़े खरीदने के लिए) या समय और श्रम में (उन्हें विकसित करने के लिए)।
कुछ मामलों में, अपरिपक्व वर्मीकम्पोस्ट के उपयोग ने बीज के अंकुरण और पौधों की वृद्धि को भी रोका है। यह उस क्षेत्र की मिट्टी के प्रकार और मौसम संबंधी स्थितियों में अंतर के कारण हो सकता है।अपरिपक्व वर्मीकम्पोस्ट की संरचना और इसके अनुप्रयोग की विफलता का अध्ययन करने के लिए और विशिष्ट मिट्टी-जल संयंत्र-सूक्ष्म मौसम विज्ञान व्यवस्थाओं के तहत वर्मीकम्पोस्ट सांद्रता का निर्धारण करने के लिए गहन शोध की आवश्यकता है। इससे जैविक खेती को बढ़ावा देने और पर्यावरण एवं सतत विकास के लिए वर्मी कम्पोस्ट को लोकप्रिय बनाने में मदद मिलेगी।
लेखक
अंशु कुमार तथा ममता कुमारी
पौधा रोग विभाग, बिधान चंद्र कृषि विश्वविद्यालय, मोहनपुर, नदिया, पश्चिम बंगाल
मृदा विज्ञान विभाग, बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर, भागलपुर, बिहार