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Updated on: 4 November, 2019 2:09 PM IST
Wheat

ज़ीरो टिलेज गेहूं की बुवाई की एक बहुपयोगी और लाभकारी तकनीक है. इस तकनीक के द्वारा धान की कटाई के तुरंत बाद मिट्टी व समुचित नमी रहने पर इस विधि से गेहूं की बुवाई कर देने से फसल अवधी में 15-20 दिन का आतिरिक्त समय मिल जाता है. 

जिसका असर उत्पादन पर पड़ता है. इस तकनीक की सहायता से खेत की तैयारी में होने वाले खर्च में 2500-3000 रूपये प्रति हेक्टेयर बचत होती है. इस विधि से गेहूं की बुवाई करने से खेत में जमने वाले फ्लेरिस माइनर हानिकारक खरपतवार का प्रयोग 25-35% कम होता है. ज़ीरो सीडड्रिल आमतौर पर प्रयोग में लाई जाने वाली सीडड्रिल जैसी है अन्तर सिर्फ इतना है कि समान्य सीडड्रिल में लगने वाले चौड़े फालो की जगह इस में पतले फाल लगे होते है. जोकि बिना जूते हुए खेत में कूड बनाते है. जिसमें गेहूं का बीज एवं उर्वरक साथ-साथ गिरता एवं ढ़कता जाता है.

गेहूं की उन्नत किस्में (Improved varieties of wheat)

सिंचित अवस्था में समय पर बुवाई के लिए 15 नवम्बर से 30 नवम्बर एच. डी. 2733, पी. वी. डब्लू 343, एच. पी. 171, के 9107, एच. पी. 1761, पी. वी. डब्लू 343, पी. वी. डब्लू 443, आरडब्लू 3413 इसमें से कोई बुवाई कर सकते है. विलम्ब से बुवाई के लिए 1 दिसबर से 30 दिसम्बर तक के लिए एच डब्लू 334, पी डब्लू 373, एच पी 1744, एच डी 2285, एवं राज 3765, में किसी किस्म की बुवाई करे.

नव जारी गेहूं की किस्में (Newly released wheat varieties)

डी बी डब्ल्यू – 187 (करण वंदना), एच डी -8777, एच आई -1612, एच डी -2967, के-0307, एच डी -2733, के -1006, डी बी डब्ल्यू – 39 इन  गेहूं की किस्मों की  उत्पादकता 50 से 64.70 कुंतल प्रति हेक्टेयर है . अगर वही हम बात करें, गेहूं में लगने वाले रोगों के बारें में तो गेहूं में कई तरह के रोग लगते है जोकि निम्नवत है -

1. दीमक

दीमक सफेद मटमैले रंग का बहुभक्षी कीट है जो कालोनी बनाकर रहते हैं. श्रमिक कीट पंखहीन छोटे तथा पीले/ सफेद रंग के होते हैं एवं कालोनी के लिए सभी कार्य करते है. बलुई दोमट मृदा, सूखे की स्थिति में दीमक के प्रकोप की सम्भावना रहती है. श्रमिक कीट जम रहे बीजों को व पौधों की जड़ों को खाकर नुकसान पहुंचाते हैं. ये पौधों को रात में जमीन की सतह से भी काटकर हानि पहुंचाती है. प्रभावित पौधे अनियमित आकार में कुतरे हुए दिखाई देते हैं.

रोकथाम

खेत में कच्चे गोबर का प्रयोग नहीं करना चाहिए. फसलों के अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए. नीम की खली 10 कुन्तल प्रति हे0 की दर से बुवाई से पूर्व खेत में मिलाने से दीमक के प्रकोप में कमी आती है. भूमि शोधन हेतु विवेरिया बैसियाना 2.5 किग्रा0 प्रति हे0 की दर से 50-60 किग्रा0 अध सडे गोबर में मिलाकर 8-10 दिन रखने के उपरान्त प्रभावित खेत में प्रयोग करना चाहिए.

खडी फसल में प्रकोप होने पर सिंचाई के पानी के साथ क्लोरपाइरीफास 20 प्रतिशत ई0सी0 2.5 ली0 प्रति हे0 की दर से प्रयोग करें .

2. माहॅू

यह पंखहीन अथवा पंखयुक्त हरे रंग के चुभाने एवं चूसने वाले मुखांग वाले छोटे कीट होते है . कीट के षिषु तथा प्रौढ़ पत्तियों तथा बालियों से रस चूसते हैं तथा मधुश्राव भी करते हैं जिससे काले कवक का प्रकोप हो जाता है तथा प्रकाश संश्लेषण क्रिया बाधित होती है.

रोकथाम

गर्मी में गहरी जुताई करनी चाहिए.

समय से बुवाई करें.

खेत की निगरानी करते रहना चाहिए.

5 गंधपाश(फेरोमैन ट्रैप) प्रति हे0 की दर से प्रयोग करना चाहिए.

रसायनिक नियंत्रण

रसायनिक नियंत्रण हेतु निम्नलिखित कीटनाशकों में से किसी एक का प्रयोग करना चाहिए.

एजाडिरैक्टिन(नीम आयल) 0.15 प्रतिशत ई0सी0 2.5 ली0 प्रति हे0 की दर से 500-600 ली0 पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए.

डाइमेथोएट 30 प्रतिशत ई0सी0 ली0 प्रति हे0 की दर से 500-600 ली0 पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए.

मिथाइल-ओ-डेमेटान 25 प्रतिशत ई0सी0 1 ली0 प्रति हे0 की दर से 500-600 ली0 पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए.

मोनोक्रोटोफास 36 एस0एल0 750 मिली0 प्रति हे0 की दर से से 500-600 ली0 पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए.

1. पत्ती धब्बा रोग


इस रोग की प्रारम्भिक अवस्था में पीले व भूरापन लिये हुए अण्डाकार धब्बे नीचे की पत्तियो पर दिखाई देते है बाद में धब्बो का किनारा कत्थई रंग का तथा बीच में हल्के भूरे रंग का हो जाता है.

रोकथाम

रोग के नियंत्रण हेतु थायोफिनेट मिथाइल 70 प्रतिशत डब्लू0पी0 700 ग्राम अथवा जीरम 80 प्रतिशत डब्लू0पी0 की 2.0 किग्रा0 अथवा मैंकोजेब 75 प्रतिशत डब्लू0पी0 की 2.0 किग्रा0 अथवा जिनेब 75 प्रतिशत डब्लू0पी0 की 2.0 किग्रा0 प्रति हे0 लगभग 750 ली0 पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए.

2. करनाल बन्ट

इस रोग में दाने आंशिक रूप से काले चूर्ण में बदल जाते है यह रोग संक्रमित /दूषित बीज तथा भूमि द्वारा फैलता है.

रोकथाम

बायोपेस्टीसाइड, ट्राइकोडरमा 2.5 किग्रा0 प्रति हे0 60-75 किग्रा0 सडी हुई गोबर की खाद मिलाकर हल्के पानी का छिटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरान्त बुवाई से पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिलाकर भूमिशोधन करना चाहिए.

इस रोग के नियंत्रण हेतु थिरम 75 प्रतिशत डी0एस0/डब्लू0एस0 की 2.5 ग्राम अथवा कार्बेण्डाजिम 50 प्रतिशत डब्लू0पी0 की 2.5 ग्राम अथवा कार्बाक्सिन 75 प्रतिशत डब्लू0पी0 की 2.0 ग्राम अथवा टेबूकोनाजोल 2.0 प्रतिशत डी0एस0 की 1.0 ग्राम प्रति किग्रा0 बीज की दर से बीजशोधन कर बुवाई करना चाहिए.

खडी फसल में नियंत्रण हेतु प्रोपिकोनाजोल 25 प्रतिशत ई0सी0 की 500 मिली0 प्रति हे0 लगभग 750 ली0 पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए.

3. ईयर कोकल (सेहू रोग)

इस रोग में बीमार पौधों की पत्तियाँ मुड कर सिकुड जाती है . प्रकोपित पौधे बौने रह जाते है तथा उनमें स्वस्थ पौधे की अपेक्षा अधिक शाखायें निकलती है. रोग ग्रस्त बालियाँ छोटी एवं फैली हुई होती है और इनमें अनाज की जगह भूरे या काली रंग की गॅाठे बन जाती है जिनमें सूत्रकृमि पाये जाते है.

रोकथाम

इस रोग के नियंत्रण हेतु बीज को कुछ समय के लिए 2.0 प्रतिशत नमक के घोल में डूबोये (200 ग्राम नमक को 10 ली0 पानी में घोले) जिससे सेहूँ ग्रसित बीज हल्का होने के बाद तैरने लगता है. ऐसे बीजों को निकालकर नष्ट कर देने चाहिए. नमक के घोल मे डुबोये हुए बीजो को बाद में साफ पानी से 2-3 बार धोकर सूखा लेने के पश्चात बोने के काम में लाना चाहिए.

सूत्रकृमि के नियंत्रण हेतु कार्बोफ्यूरान 3 जी0 10-15 किग्रा0 प्रति हे0 की दर से बुरकाव करना चाहिए.

5.अनावृत्त कण्डुआ रोग

इस रोग में बालियों में दाने के स्थान पर काला चूर्ण बन जाता है बाद में रोग जनक के असंख्य बीजाणु हवा द्वारा फैलते है और स्वस्थ बालियों में फूल आते समय उनका संक्रमण करते है.

रोकथाम

बायोपेस्टीसाइड, ट्राइकोडरमा 2.5 किग्रा0 प्रति हे0 60-75 किग्रा0 सडी हुई गोबर की खाद मिलाकर हल्के पानी का छिटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरान्त बुवाई से पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिलाकर भूमिशोधन करना चाहिए.

इस रोग के नियंत्रण हेतु थिरम 75 प्रतिशत डी0एस0/डब्लू0एस0 की 2.5 ग्राम अथवा कार्बेण्डाजिम 50 प्रतिशत डब्लू0पी0 की 2.5 ग्राम अथवा कार्बाक्सिन 75 प्रतिशत डब्लू0पी0 की 2.0 ग्राम अथवा टेबूकोनाजोल 2.0 प्रतिशत डी0एस0 की 1.0 ग्राम प्रति किग्रा0 बीज की दर से बीजशोधन कर बुवाई करना चाहिए.

4. गेरूई या रतुआ रोग


गेरूई भूरे, पीले अथवा काले रंग की होती है. फॅफूदी के फफोले पत्तियों पर पड़ जाते है जो बाद में बिखर कर अन्य पत्तियों को ग्रसित कर देते है.

रोकथाम

बुवाई समय से करें.

क्षेत्र में अनुमोदित प्रजातियाँ ही उगायें.

खेतों का निरीक्षण करें तथा वृक्षों के आस-पास उगायी गयी फसल पर अधिक ध्यान दें.

फसल पर इस रोग के लक्षण दिखायी देने पर छिडकाव करें यह स्थिति प्रायः जनवरी के अन्त या फरवरी मध्य में आती है.

रसायनिक नियंत्रण

गेरूई की रोकथाम हेतु निम्नलिखित रसायनों में से किसी एक रसायन की मात्रा को 600-800 ली0 पानी में घोलकर प्रति हे0 की दर से छिडकाव करना चाहिए

पीली गेरूई-प्रोपिकोनाजोल 25 प्रतिशत ई0सी0 500 मिली0.

भूरी गेरूई-प्रोपिकोनाजोल 25 प्रतिशत ई0सी0 500 मिली0 अथवा मैंकेाजेब 75 प्रतिशत डब्लू0पी0 2किग्रा0 अथवा जिनेब 75 प्रतिशत डब्लू0पी0 2 किग्रा0.

काली गेरूई-थायोफिनेट मिथाइल 70 प्रतिशत डब्लू0पी0 700 ग्राम अथवा मैंकेाजेब 75 प्रतिशत डब्लू0पी0 2 किग्रा0 अथवा जिनेब 75 प्रतिशत डब्लू0पी0 2 किग्रा0.

मोनोक्रोटोफास 36 एस0एल0 750 मिली0 प्रति हे0 की दर से से 500-600 ली0 पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए.

English Summary: new variety benefits of wheat, diseases and methods of prevention and crop protection
Published on: 04 November 2019, 02:19 PM IST

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