हल्दी का मसाले के रूप में एक विशेष महत्व है. हल्दी से विभिन्न प्रकार के भोज्य पदार्थों को रंगा जाता है. सौन्दर्य प्रसाधन में उपयोगी है तथा इससे मिलने वाले स्वाद का अन्य कोई विकल्प नहीं है. अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में भारतीय मसालों की काफी मांग है. यहाँ महाराष्ट्र. उड़ीसा, तमिलनाडु व बिहार में हल्दी की खेती की जाती है परन्तु आन्ध्र प्रदेश में प्रमुख रूप से इसका उत्पादन किया जाता है. भारतीय मसालों का निर्यात मुख्य रूप से ईरान लीबिया, जापान, सयुक्त अरब गणराज्य, इंग्लैण्ड, अमेरिका तथा सऊदी अरब को किया जाता है.
प्रकृति ने अनेक तीखे स्वाद वाले चटपटे मसाले हमको दिये हैं उनमें हल्दी का मसाला फसल के रूप में एक अलग स्थान है. इसके अतिरिक्त प्राचीनकाल से औषधि के रूप में इसकी भूमिगत गाठों का प्रयोग होता चला आ रहा है मसालों से घरेलू आयुवेर्दिक औषधियां भी बनाई जाती है. मनुष्य के अतिरिक्त पशुओं के भी अनेक रोगों में अचूक औषधि का काम करती है.
हल्दी की उन्नतशील प्रजातियां (Advanced species of turmeric)
पन्त पीतभ, वल्लभ प्रिया, आजाद हल्दी-1, आजाद हल्दी-2, मेडुकर, कोठा-पेठा, रगा, रश्मि, रोमा, सुवर्णा, पडरौना सी. ए., आई-69. सी.ए.-73., सी.एल.आई- 317 इत्यादि.
जलवायु (Climate)
हल्दी की खेती के लिए गर्म व तर जलवायु उपयुक्त होती है. कश्मीर से केरल तक हल्दी की सफल खेती होती है इसे छायादार स्थानों में भी उगाया जाता है. अच्छी फसल के लिए बुवाई तथा जमाव के समय कम वर्षा, वानस्पतिक वृद्धि तथा हल्की वर्षा परन्तु पकने के समय शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है. समुद्र तल से लगभग 1500 मीटर की उँचाई पर इसकी सफल खेती की जाती है. हल्दी की सफल खेती के लिए 1500 मिली- वार्षिक वर्षा तथा 20-300 सेन्टीग्रेट औसत तापमान की आवश्यकता होती है.
भूमि एवं खेत की तैयारी (Preparation of land and farm )
हल्दी के लिए अच्छे जल निकास वाली उपजाऊ जीवांशयुक्त दोमट या बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है. जबकि क्षारीय मिट्टी में अच्छी उपज नहीं मिलती है मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करके 4-5 जुताइयाँ देशी हल से करनी चाहिए. इसके बाद पाटा लगातार खेत को भली भाँति तैयार कर लेना चाहिए. सम्पूर्ण खेत का 3 मी- लम्बी व 3 मी- चौड़ी क्यारियों में बांट कर 30-30 सेमी की दूरी पर 20 सेमी उँची मेडे़ बनानी चाहिए.
बुवाई का समय एवं विधि (Sowing time and method)
हल्दी का बुवाई का उपयुक्त समय मार्च से अप्रैल तक है. पर्वतीय क्षेत्रों में अप्रैल मैदानी क्षेत्रों में मई के प्रथम सप्ताह तक इसकी बुवाई की जा सकती है. विलम्ब से बुवाई करने पर पैदावार प्रभावित होती हैं. बोई जाने वाली प्रत्येक गाँठ में एक या दो आँख अवश्य होनी चाहिऐ. बुवाई से पहले एगलाल या सेरेशान के 0-25 प्रतिशत के घोल से उपचारित करके रोग से बचाव किया जा सकता है लगभग 12 सेमी की दूरी पर मेड़ों के ऊपर बुवाई करके घास-फूस या गोबर की सड़ी खाद द्वारा ढकने से प्रकन्द प्राकृतिक प्रतिकूलता से सुरक्षित बने रहेगे. हल्दी के लिए 10 से 20 कु- प्रति है- प्रकन्दों की आवश्यकता होती है. यद्यपि बीज दर गाँठों के आकार पर निर्भर रहती है. उचित आकार के लिए गाँठों को 3-5 सेमी- के टुकड़ों में काट लेना चाहिए.
खाद एवं उर्वरक (Manure and fertilizer)
अन्तिम जुताई के समय 25&30 टन गोबर की सड़ी खाद पूरे खेत में फेलाकर भली-भाँति मिलानी चाहिए. इसके अतिरिक्त 100 किग्रा नत्रजन. 80 किग्रा फास्फोरस तथा 80 किग्रा पोटाश की आवश्यकता होती है अतः अन्तिम जुताई के समय नत्रजन की एक तिहाई मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा कूडों में डालनी चाहिए. नत्रजन की शेष मात्रा बुवाई के 40 दिन बाद दो बार देनी चाहिए.
निराई - गुड़ाई तथा मिट्टी चढ़ाना (Weeding - hoeing and plowing)
पौधों की अच्छी वानस्पतिक वृद्धि के लिए तथा जडों तक उचित वायु संचार बनाए रखने के लिए समय समय पर अन्तः क्रियायें करनी चाहिए. जिससे पौधों को विकसित होने के लियें सभी अनुकूलतायें मिल सकें. इसके लिए 2x3 निराई-गुड़ाई के साथ मिट्टी भी चढानी चाहिए. बरसात शुरू होने के पहले एक निराई कर देनी चाहिए.
सिंचाई (Irrigation)
उचित नमी बनाए रखने के लिए मौसम के अनुसार बरसात के पहले दो या तीन सिंचाई आवश्यक होती है. बरसात के अभाव में प्रत्येक पखवारे में सिंचाई कर दें. जबकि पर्याप्त बरसात होना आवश्यक है. अन्यथा प्रकन्द विगलन रोग से प्रभावित हो सकते हैं.
खुदाई व उपज (Digging and yield)
हल्दी की फसल 270 से 300 दिन में पक जाती है. पौधों की पत्तियां जब पीली होकर मुरझाने लगें वही खुदाई का उचित समय होता है. खुदाई करते समय ध्यान रखना चाहिए कि गाँठे कटने न पाएं. सभी अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध रहने की दशा में लगभग 200 से 250 कु प्रति है- कच्ची गांठ पैदा होती है. सूखने के बाद पैदावार का लगभग 15वाँ भाग सूखी हल्दी के रूप में प्राप्त होता है.
हल्दी पकाना (Baking turmeric)
अगली फसल के लिए कन्दों को सुरक्षित रख लेना चाहिए इसके अतिरिक्त विक्रय हेतु कन्दों का उपचारित करना. रंगना या पकाना अति आवश्यक है. जिसके लिए निम्न लिखित तकनीक अपनाना चाहिए.
1- उबालना (To boil)- सर्वप्रथम पुरानी गांठों सें नई को अलग कर लेना चाहिए. इन गांठों को ही खाने/उबालने की क्रिया को क्योरिंग कहते है इसके लिए गांठों को 0-1 प्रतिशत सोडियम बाई कार्बोनेट या कपड़ा धोने के सोडे के साथ तब तक उबालना चाहिए जब तक कि कन्द मुलायम न पड जायें और उससे एक विशेष प्रकार की गन्ध वातावरण में आने लगे तो समझना चाहिए कि हल्दी उबालने की प्रक्रिया पूरी हो गई है. इस क्षारीय घोल में उबालने से हल्दी के रंग में निखार आता है. यह कार्य खुदाई होने के एक सप्ताह तक कर लेना चाहिए और गांठों को धूप में सुखाना चाहिए.
2- सुखाना (To dry)- उबाली गई हल्दी को चटाई या सीमेन्ट के फर्श पर धूप में सुखाना चाहिए. गांठों की पर्त 5 से 7 सेमी मोटी रखनी चाहिए. पहली पर्त की गांठे शीध्र ही सूख जाती है. किन्तु इनका रंग अच्छा नही रहता है. रात में गांठों को ढक देना चाहिए. लगभग 10 से 15 दिन में गांठे पूर्ण रूप से सूख जाती है. यदि कृत्रिम रूप से सुखाना है तो 600 सेन्टीग्रेड तापमान पर सुखा लेना चाहिए.
3- चमकाना (To shine)- सूखकर तैयार हल्दी बदरंग होती है. बाजार में आकर्षक दिखाने के लिए इन गांठों को बोरियों में बन्द करके रगडते है या किसी खुरदुरे पदार्थ पर हाथों से ही रगडकर चमकाते है. नई तकनीक के अनुसार विद्युत चालित धूमने वाले ड्रम में गांठे डालकर भी रगडा जाता है.
4- रंगना (To paint)- हल्दी में आकर्षक उत्पन्न करने के लिए गांठों की बाहरी सतह को सूखी या गीली विधि से रंगा जाता है. इसके लिए चमकाने की प्रक्रिया के अन्त में एक कुन्तल सूखी गांठों का रंगने के लिए 2 कि-ग्रा- पिसी हल्दी. 50 ग्राम सोडियम बाई कार्बोनेट तथा 50 मिली- हाइड्रोक्लोरिक अम्ल के धोल में मिलाकर रगड़ना चाहिए. जब गांठों में पूरी तरह से रंग चढ़ जाता है तो उन्हें पुनः से सुखाना चाहिए.
डॉ. आर एस सेंगर, प्रोफेसर
सरदार वल्लभ भाई पटेल एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, मेरठ
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