हमारे देश की सबसे प्रमुख धान्य फसल धान है. जो दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी का मुख्य आहार है. इसमें प्रचुर मात्रा में फाइबर होता है. इसी के साथ इसमें विटामिन, कैल्शियम, आयरन, थायमिन और मिनरल्स जैसे पोषक तत्व पाए जाते है. जिन लोगो को आसानी से रोटी नहीं पचती है वो रोज खाने में चावल खाना ज्यादा पसंद करते हैं. धान की फसल में अनेक तरह के रोग या बीमारियाँ आती हैं तथा इन रोगों के रोगकारक जीव की प्रकृति में विभिन्नता होने के कारण इनकी रोकथाम के उपाय भी भिन्न-भिन्न होते हैं. अतएव, रोगों का निदान एवं उसके प्रबन्धन के विषय में जानकारी अत्यावश्यक है. सबसे पहले हमें स्वस्थ बीज की बात करनी चाहिए क्योंकि अगर किसान भाइयों के पास स्वस्थ बीज उपलब्ध हो तो आधी समस्याएँ स्वतः समाप्त हो जाती हैं. अगर आपके पास स्वस्थ बीज की उपलब्धता नहीं है तो आप बीजोपचार करके आधी से अधिक समस्याओं से निदान पा सकते हैं. आज आवश्यकता इस बात की है की हम प्रमुख धान्य फसलों के रोग प्रबंधन पर ध्यान दें. इसके लिए हम किसान भाइयों को धान के कुछ प्रमुख रोगों की विस्तृत जानकारी से अवगत करा रहे हैं.
धान का ब्लास्ट रोग
धान का ब्लास्ट रोग पाइरिकुलेरिया ओराइजी नामक कवक के कारण होता है यह रोग अत्यंत विनाशकारी होता है. मुख्यत: इस रोग का प्रकोप बासमती एवं सुगन्धित धान की प्रजातियों मे पाया जाता है.
लक्षण:
यह फफूँदजनित रोग है. असिंचित धान में इस रोग का प्रकोप सामान्यतः अधिक देखा जाता है इस रोग के लक्षण सर्वप्रथम पौधों की पत्तियों पर, तना पर, गांठो पर और बलियो पर दिखाई देता है मुख्यत: लीफ ब्लास्ट, नोडल ब्लास्ट, कालर ब्लास्ट, और पेनिकल ब्लास्ट के रूप मे इस रोग को देखते हैं. झोंका ब्लास्ट रोग में पौधों की पत्तियों पर भूरे रंग के आँख या नाव जैसे धब्बे बनते हैं जो बीच में राख के रंग के तथा किनारो किनारो पर गहरे भूरे रंग के होते है जो बढ़कर कई सेन्टीमीटर तक बड़े हो जाते हैं परिणामस्वरुप पत्तियां झुलस कर सूख जाती है. तनों की गाँठों तथा पेनिकल पर कवक के आक्रमण से भूरे धब्बे बनते है, जो गाँठ तथा पेनिफल के कुछ भाग या पूर्णतया भाग को चारो ओर से घेर लेते हैं. बाद में यह भूरे धब्बे काले पड़ जाते हैं ओर तना, पेनिकल टूटकर जमीन पर गिर जाता है जिससे धान की उपज पर काफी प्रभाव देखने को मिलता है.
रोकथाम
- खेत में रोग के लक्षण दिखायी देने पर नाइट्रोजन उर्वरक का प्रयोग नहीं करना चाहिए.
- बीज को बोने से पहले कैप्टान 2.5 ग्राम या बेविस्टीन 2 ग्राम या स्थूडोमोनास फ्लोरेसेन्स 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बुआई करनी चाहिए.
- खड़ी फसल मे 250 ग्राम बेविस्टीन +1.25 किलाग्राम इण्डोफिल एम-45 को 1000 लीटर पानी मे घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.
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आभासी कंड रोग
धान का फाल्स स्मट या आभासी कंड रोग, जिसको हल्दी रोग भी कहा जाता हैं यह रोग अस्टीलेजीनोइडिया वायरेंस नामक कवक के कारण होता है. दक्षिणी भारत के कुछ हिस्सों में इसे "लक्ष्मी" रोग के रूप में जाना जाता है
लक्षण:
इस रोग के लक्षण बालियों के निकलने के बाद दिखते है. रोगग्रस्त बाली पहले संतरे रंग की, बाद के हरे-काले रंग की हो जाती है जो आकार में धान के सामान्य दाने से दोगुणा बड़ा होता है. यह पतवारों के बी च में देखा जाता है और पुष्प भागों को घेरता है. एक पुष्पगुच्छ में केवल कुछ दाने ही आमतौर पर संक्रमित होते हैं और बाकी सामान्य होते हैं. यह हवा द्वारा वितरित होकर स्वस्थ स्पाइकलेट (पुष्पों) पर पहुंचते हैं और उन्हे संक्रमित करते हैं. यह रोग उच्च आर्द्रता (>90%), 25-35 डिग्री सेल्सियस के बीच तापमान और मध्यम वर्षा, रोग के विकास के लिए अनुकूल है. कवक क्लैमाइडोस्पोर और स्क्लेरोटिया बनाता है जो मिट्टी में गिर जाता है और सर्दियों में खेत की परिस्थितियों में कम से कम 4 महीने तक जीवित रहता है. स्क्लेरोटिया धान के पौधे में संक्रमण का प्राथमिक स्रोत हैं, जबकि क्लैमाइडोस्पोर संक्रमण का एक द्वितीयक स्रोत हैं
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रोकथाम
- कटाई के समय रोगग्रस्त पौधों की बालियां को सावधानी से निकालकर जला देना चाहिए, ताकि स्क्लेरोटिया खेत में न गिरे. इससे अगली फसल के लिए प्राथमिक इनोकुलम कम हो जाएगा.
- बीजों को 52 डिग्री सेल्सियस पर 10 मिनट के लिए उपचारित करें.
- बुवाई से पहले स्यूडोमोना सफ्लोरोसेंस 10 ग्राम / किलोग्राम या ट्राइकोडर्मा 4 ग्राम / किलोग्राम बीज से बीजोपचार करें या कार्बेन्डाजिम 2.0 ग्राम/किलोग्राम बीज से बीजोपचार करें.
- रोपाई के बाद या फूल आने से पहले 15-20 दिनों के अंतराल पर स्यूडोमोनासफ्लोरेसेंस / ट्राइकोडर्मा 5 ग्राम / लीटर पानी के साथ पर्ण स्प्रे.
- जुताई और फूल आने से पहले के चरणों में हेक्साकोनाज़ोल या प्रोपिकोनाज़ोल या टेबुकोनाज़ोल का 1 मिली/ लीटर या कार्बेन्डाजिम + मैनकोज़ेब 2 ग्राम/ लीटर का छिड़काव करें.
- फंगल संक्रमण को रोकने के लिए कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 5 ग्राम / लीटर, 50 प्रतिशत बालियां आने पर या बूट लीफ और मिल्की स्टेज पर स्प्रे करें.
शीथ ब्लाइट
यह रोग मृदाजनित है जो राइजोक्टोनिया सोलेनी नामक कवक द्वारा होता है. जिसे हम थेनेटीफोरस कुकुमेरिस के नाम से भी जानते है.
लक्षण:
प्रारंभिक लक्षण जल स्तर के पास पत्ती के आवरण पर देखे जाते हैं. पत्ती के म्यान पर अण्डाकार या अनियमित हरे-भूरे रंग के धब्बे बनते हैं. जैसे-जैसे धब्बे बढ़ते हैं, केंद्र एक अनियमित काले-भूरे रंग की सीमा के साथ भूरा-सफेद हो जाता है. पौधों के ऊपरी हिस्सों पर धब्बे तेजी से एक दूसरे के साथ मिलकर पानी की सतह से पूरे टिलर को कवर कर लेते हैं. एक पत्ती की म्यान पर कई बड़े धब्बों की उपस्थिति आमतौर पर पूरी पत्ती की मृत्यु का कारण बनती है, और गंभीर मामलों में एक पौधे की सभी पत्तियां इस तरह से झुलस सकती हैं.
रोकथाम
- धान के बीज को स्थूडोमोनास फ्लोरेसेन्स की 10 ग्राम अथवा ट्राइकोडर्मा 4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बुआई करें.
- बीजों को कैप्टन या थिरम या कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन) 50 डब्ल्यू पी या कार्बोक्सिन या ट्राईसाइक्लाज़ोल से 2 ग्राम/किलोग्राम से उपचारित करें.
- रोपाई के 30 दिनों के बाद 2.5 किग्रा/हेक्टेयर की दर से स्थूडोमोनास फ्लोरेसेन्स को मिट्टी में डालें
- इण्डोफिल एम-45 की 2.5 किलोग्राम मात्रा को 1000 लीटर पानी मे घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.
भूरे धब्बे
यह रोग हेल्मिन्थोस्पोरियम ओराइजी नामक एक कवक से होता है. यह रोग 1943 के बंगाल के अकाल का प्रमुख कारण था, जहां फसल की उपज 40-90% तक गिर गई थी और 20 लाख लोगों की मृत्यु हो गई थी
लक्षण:
इस रोग मे धान की पत्तियों पर गोलाकार भूरे रंग के धब्बें बन जाते है. उग्रावस्था मे पौधों के नीचे से ऊपर पत्तियों के अधिकांश भाग धब्बों से भर जाते है. ये धब्बें आपस मे मिलकर बड़े हो जाते हैए और पत्तियों को सुखा देते है. इस रोग से पौधों की बढ़वार कम होती है. दाने भी प्रभावित हो जाते हैए जिससे उनकी अंकुरण क्षमता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है.
रोकथाम
- स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस @ 10 ग्राम या बेविस्टीन 2 ग्राम या थीरम/कैप्टान 2.5 ग्राम / किग्रा बीज के साथ बीज उपचार करना चाहिए.
- रोग दिखाई देने पर मैन्कोजैव के 0.25 प्रतिशत घोल के 2-3 छिड़काव 10-12 दिनों के अन्तराल पर करना चाहिए.
- खड़ी फसल में इण्डोफिल एम-45 की 2.5 किलोग्राम मात्रा को 1000 लीटर पानी मे घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव 15 दिनों के अन्तर पर करें.
बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट
यह रोग जैन्थोमोनास ओराइजी पी.वी.ओराइजी नामक जीवाणु से होता है.
लक्षण:
मुख्य रूप से यह पत्तियों का रोग है. यह रोग मुख्यतः दो अवस्थाओं में प्रकट होता है. पर्ण झुलसा अवस्था और क्रेसेक अवस्था. पर्ण झुलसा अवस्था मे पत्तियों के उपरी सिरो पर हरे-पीले जलधारित धब्बों के रूप मे रोग उभरता है. पत्तियों पर पीले या पुआल रंग की लहरदार धारियाँ होती है जो पत्तियों के एक या दोनो किनारों के सिरे से प्रारंभ होकर नीचे की ओर समानान्तर बढ़ती है क्रेसेक अवस्था रोग की सबसे हानिकारक अवस्था है इसका संक्रमण पौधशाला अथवा पौध रोपाई के 3-4 सप्ताह के अन्दर प्रकट होने लगते है. इस अवस्था मे ग्रसित पौधो की पत्तियाँ लम्बाई मे अन्दर की ओर सिकुड़कर मुड़ जाती है. और उनका रंग पीला या भूरा हो जाता है जिसके फलस्वरूप पूरी पत्ती मुरझा जाती है, जो बाद मे सूख कर मर जाती है. रोग की उग्र स्थिति में पौधे मर जाते हैं.
रोकथाम
- नीम के तेल का 3% या NSKE 5% का छिड़काव करें
- बीजो को जैविक पदार्थों जैसे-स्थूडोमोनास फ्लोरेसेन्स 10 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करके बुआई करनी चाहिए.
- 10 लिटर पानी में 5 ग्राम स्ट्रेप्टोसायक्लिन तथा 2.5 ग्राम कॉपर ऑक्सीक्लोराइड घोलकर बीजो को बुआई से पहले 12 घंटे के भिगो दें.
- रोग के लक्षण प्रकट होने पर 100 ग्राम स्ट्रेप्टोसायक्लिन और 500 ग्राम कॉपर ऑक्सीक्लोराइड का 500 लीटर जल में घोल बनाकर प्रति हैक्टर छिड़काव करें. 10 से 12 दिन के अन्तर पर आवश्यकतानुसार दूसरा एवं तीसरा छिड़काव करें.
राइस टुंग्रो वायरस
राइस टुंग्रो रोग दो विषाणुओं (राइस टुंग्रो बेसिलीफॉर्म वायरस और राइस टुंग्रो गोलाकार वायरस) के संयोजन के कारण उत्पन्न होता है, जो लीफहॉपर द्वारा संचरित होते हैं.
लक्षण:
टुंग्रो वायरस से प्रभावित पौधे की पत्तियां पीली या नारंगी-पीली हो जाती हैं, उनमें जंग के रंग के धब्बे भी हो सकते हैं. टुंग्रो-संक्रमित पौधों में भी बौनेपन, देर से फूल आने के लक्षण दिखाई देते हैं जो परिपक्वता में देरी कर सकते हैं, अधिकांश पुष्पगुच्छ निष्फल या आंशिक रूप से भरे हुए दाने होते हैं
रोकथाम
- लीफ हॉपर वैक्टर को आकर्षित करने और नियंत्रित करने के लिए लाइट ट्रैप स्थापित किए जाने चाहिए. प्रात:काल लाइट ट्रैप के पास उतरते हुए लीफहॉपर की आबादी को कीटनाशकों के छिड़काव/धूल से मार देना चाहिए. इसका अभ्यास प्रतिदिन करना चाहिए.
- 5 ग्राम प्रति लीटर की दर से मैनकोजेब के साथ मिश्रित 2% यूरिया का छिड़काव करके पत्ती के पीलेपन को कम किया जा सकता है.
- निम्नलिखित कीटनाशकों में से किसी एक का दो बार छिड़काव करें: मोनोक्रोटोफॉस 36 डब्ल्यूएससी (40 मिली/हे.) या फेन्थियन 100 ईसी (40 मिली/हेक्टेयर) का छिड़काव रोपाई के 15 और 30 दिन बाद किया जा सकता है.
- नर्सरी में 2.5 सेमी पानी बनाए रखें और निम्नलिखित में से किसी एक का दो बार छिड़काव करें: कार्बोफुरन 3 जी 3.5 किग्रा (या) फोरेट 10 जी 1.0 किग्रा का छिड़काव करें.
खैरा रोग
धान की फसल में रोपाई के एक से दो सप्ताह बाद पौधों में खैरा रोग का प्रकोप होने लगता है. यह रोग पौधों में जिंक नाम के पोषक तत्व की कमी होने के कारण होता है. डॉ. वाई. एल. नेने ने पहली बार वर्ष 1966 में भारत के यूपी के तराई में क्षेत्र में धान के खैरा रोग की खोज की थी.
लक्षण:
इस रोग का सर्वप्रथम लक्षण पौधशाला में या धान की रोपाई के 14 से 21 दिन के बाद खेतों में दिखाई पडते हैं. इसमे पत्तियो पर हल्के पीले रंग के धब्बे बनते जो बाद मे कत्थई रंग के हो जाते है| प्रभावित पौधो की जडे भी कत्थई रंग की हो जाती है| रोग की तीव्र अवस्था में रोग ग्रसित पत्तियां सूखने लगती हैं. कल्ले कम निकलते हैं पौधों की वृद्धि रुक जाती है अर्थात पौधा बौना रह जाता है और उपज 25-30% कम हो जाती है.
रोकथाम
- यह समस्या न हो इसके लिए 25-30 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हैक्टेयर की दर से रोपाई से पहले ही खेत की तैयारी के समय डालना चाहिए.
- सीड प्राइमिंग: यानी बीज को खेत में बोने से पहले ZnO के घोल में डुबाना चाहिए.
- लक्षण दिखने के बाद इसकी रोकथाम के लिए 5 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट तथा 2.5 कि.ग्रा. बुझा हुआ चूना 600-700 लिटर पानी में घोलकर एक हैक्टेयर में छिड़काव करना चाहिए. अगर रोकथाम न हो तो 10 दिन बाद पुनः छिड़काव करना चाहिए.
- अगर बुझा हुआ चूना उपलब्ध न हो तब 2 प्रतिशत यूरिया तथा जिक सल्फेट का छिड़काव करना चाहिए.
लेखक-
1शिवम कुमार, 2एस के विश्वास और 1प्रभा सिद्धार्थ
1पादप रोगविज्ञान, चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, 208002, कानपुर (उत्तर प्रदेश)
2प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, पादप रोगविज्ञान, चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, 208002, कानपुर (उत्तर प्रदेश)