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Updated on: 4 July, 2022 3:47 PM IST
Diseases in Tur Gram

भारत के महत्वपूर्ण दलहनी फसलों में से एक फसल अरहर है, जिसका भारत सबसे बड़ा उत्पादक देश है. यह मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की एक फसल है,जिसकी खेती भारत के अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में की जाती है.

अरहर का भोजन एवं पोषण सुरक्षा में प्रमुख भूमिकI  है, क्योंकि यह प्रोटीन, खनिज और विटामिन के समृद्ध स्रोतों में से एक है. यह एक विलक्षण गुण सम्पन्न फसल है. अरहर के दाल में लोहा, आयोडीन, आवश्यक अमीनो एसिड जैसे कि लाइसिन, थ्रेऑनिन, सिस्टीन और अर्जिनिन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है.इसका उपयोग अन्य दलहनी फसलों की तुलना में दाल के रूप में सर्वाधिक किया जाता है. इसके अतिरिक्त हरी फलियां सब्जी के लिये, खली चूरी, हरी पत्ती पशुओं के चारा के लिये तथा तना ईंधन, झोपड़ी और टोकरी बनाने के काम में लिया जाता है. इसके पौधों पर लाख के कीट का पालन करके अतिरिक्त लाभ भी कमाया जाता है.

मांस की तुलना में इसमें प्रोटीन (21-26%) अधिक मात्रा में पाई जाती है. विश्व स्तर पर, यह दुनिया के लगभग 72 देशों में 5 लाख हेक्टेयर पर उगाया जाता है. हमारे देश में अरहर की फसल विभिन्न पद्धतियों से उत्पादित की जाती है, जिसके तहत उत्तरी एवं पूर्वी प्रांतो में यह लम्बी अवधि की फसल है,जबकि मध्य एवं दक्षिणी प्रांतो में मध्यम अवधि की फसल है. इसकी प्रथम उत्पत्ति का केंद्र भारत तथा द्वितीय केंद्र पूर्वी अफ्रीका को माना जाता है.

अरहर के पौधे स्वपरागित या परपरागित हो सकते है. यह एक मूसला जड़ों वाला पौधा है, जिससे मृदा की रासायनिक और जैविक दशाओं में सुधार आता है एवं उसकी उर्वरा शक्ति सुधारने और बनाये रखने में काफी मददगार साबित होता है. चूँकि यह एक दलहनी फसल है, इसकी अपनी नत्रजन की आवशयकता तो सहजीवी विधि से पूरी होती ही है साथ ही साथ यह नत्रजन लगभग ४० कि.ग्रा./ हे. कि दर से मिट्टी में भी जमा करती है. इसकी पत्तियाँ भी मिट्टी में झड़कर सम्मिलित हो जाती है, जिसके बाद यह मृदा में कार्बनिक पदार्थों कि भी मात्रा में वृद्धि लाती हैं. अरहर कि फसल में उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज 10 - 12 किलोग्राम प्रति एकड़ लगती है. इसके फसल कि बुआई  प्रायः बीजोपचार करने के बाद ही की जाती है.

अरहर की फसल में रोग प्रबंधन :- अरहर की फसल में रोगों के कारण बहुत क्षति होती है और कभी-कभी इनके प्रकोप से उत्पादन में 50-60 % तक की कमी हो जाती है. इसके उत्पादन में कोई कमी न हो इसलिए अरहर के रोगों की पहचान और रोकथाम निहायत ही ज़रूरी है. अरहर की प्रमुख रोग एवं उनके प्रबंध इस प्रकार है :

फ्यूजेरियम विल्ट या उकठा रोग:-

यह रोग अरहर की फसल की सबसे महत्वपूर्ण रोग है, जिसका प्रकोप भारत के उत्तरी पूर्वी मैदानी क्षेत्र, मध्य क्षेत्र एवं दक्षिणी क्षेत्रों में होता है.

कारक जीव :-

यह रोग फ्यूजेरियम ओक्सीस्पोरम फ. सप. उडम नामक मृदाजनित कवक से होता है,जिसका संक्रमण पौधों की जड़ों से होते हुए तने में ऊपर की ओर बढ़ता है.

लक्षण :-

इस रोग का संक्रमण पौधों में किसी भी अवस्था में हो सकता है और प्रायः ये रोग देर से पकने वाली प्रजातियों में अत्यधिक होता है. प्रारंभिक अवस्था में  इस रोग के कारण पौधों की पत्तियाँ पीला होकर मुरझाने लगती है, और संक्रमित पौधों को दूर से ही पहचाना जा सकता है.यह रोग पौधों में पानी व खाद्य पदार्थों के संचार को बाधित कर देता है, जिससे पौधे पूर्ण रूप से सूखकर मर जाते हैं. संक्रमित पौधे के जड़ एवं तने को फाड़ने पर उनके बीच में काली या भूरी रंग की धारियाँ नज़र आती हैं. तने के नीचे के भाग जमीन की सतह के पास के ऊतक एक तरफ से काले दिखने पड़ जाते हैं. इस कवक का प्रमुख कार्य दारु ऊतक (जाइलेम) की वहिनिओं को बाधित करना है जिससे पौधा सूख जाता है.

प्रबंधन :- 

  • चूँकि यह एक मृदा जनित रोग है इससे पौधों को बचाने के लिए३-४ वर्षों का फसल चक्र दलहनी फसलों को छोड़ कर अन्य फसलों के साथ करना चाहिए.

  • खेतों में पुराने अरहर की फसलों के अवशेषों को हटा देना चाहिए.

  • रोग रोधी प्रजातियां जैसे की बी .डी. एन -1, बी. डी. एन -2, बी.एस.एम.आर.- 743, आशा आदि को बोना चाहिए.

  • गर्मी के मौसम में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए एवं अरहर के साथ ज्वार की अन्तर्वतीय फसल लेनी चाहिए, जिससे इस रोग का संक्रमण कम होता है.

  • अरहर की फसल बोने से पहले हमे शाबी जो उपचार ज़रूर करना चाहिए.

  • ट्राइ को डर्माहार जिएनम और ट्राइ को डर्माविरिडी से 4ग्रा/ किग्रा की दर के साथ बीजों की लेप करना चाहिए.

बाँझपन मोज़ेक रोग :-

यह रोग अरहर के सभी रोगों में आर्थिक दृष्टि में  सबसे महत्वपूर्ण है, और इसके कारण देश में प्रतिवर्ष उत्पादन में  काफी नुकसान होता है. इस रोग को सबसे पहले बिहार की पूसा नामक स्थान में  1961 को देखा गया था. अब इसका प्रकोप देश के सभी अरहर उत्पादन करने वाले क्षेत्रों में  पाया जाता है.

कारक जीव :-

बाँझपन मोज़ेक रोग या स्टेरिलिटी मोज़ेक रोग एक विषाणु  की  वजह से होता है, जिसका नाम अरहर बंध्यता मोज़ेक (स्टेरिलिटी मोज़ेक वायरस) विषाणु है, जो खेतों में  एक अतिसूक्ष्म कीट इरीयोफीड माइट द्वारा संचारित किया जाता है, जिसका वैज्ञानिक नाम एसेरिया केजेनी है.

लक्षण :-

इसके प्रमुख लक्षण हैं पौधे के ऊपरी शाखाओं में पत्तियों का छोटा होना तथा हलके रंग का होना. संक्रमित पौधों में  शाखाएं स्वस्थ पौधों की तुलना में  अधिक आती हैं और वह लम्बाई में  भी छोटी रह जाती हैं. संक्रमित पौधों में  फूल एवं फलियाँ नहीं लगती हैं, जिसके कारण ही इस रोग का नाम पड़ा है. इस रोग के कारण पौधों में  शत -प्रतिशत नुकसान होता है.

प्रबंधन :- 

  • इसकी रोक थाम हेतु रोग रोधी किस्मों को लगाना चाहिये.

  • खेत में उग आये बेमौसम अरहर के पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये.साथ ही साथ उन पौधों को भी नष्ट कर देना चाहिए,जिसमें संक्रमण के आसार दिखाई दें.

  • रोग की प्रारंभिक अवस्था में दिखाए देने पर प्रोपरगाइट ०.1% और फेनाजाकिन ०.1% का छिड़काव करना चाहिए.

फाइटोप्थोरा अंगमारी :-

कारक जीव :-

फायटोपथोरा ड्रेचस्लेरी एफ.एसपी कजानी

लक्षण :-

यह एक मृदाजनित रोग है, जिसके कारण प्रारम्भिक अवस्था में  पत्तियों पर अनियमित आकार के जल सिक्त धब्बे बन जाते हैं, जो बाद में  पौधे के तने एवं शाखाओं पर काले रंग के धब्बों के रूप में  दिखाई देते हैं . रोग्रसित पौधा पीला होकर सूख जाता है और इस रोग से 4-10% की हानि होती है.

प्रबंधन :-

  • इसकी रोक थाम हेतु 3 ग्राम मे टालेक्सिल फफूंदनाशक दवा प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें.

  • ग्रीष्म ऋतु में गहरी जुताई.

  • निचले इलाकों वाले क्षेत्रों में बुआई से बचना चाहिए, जिसमें पानी में प्रवेश होने की संभावना ज्यादा हो .

सर्कोस्पोरा पर्ण चित्ती रोग:-

कारक जीव :-

यह बीमारी  सर्कोस्पोरा कजानी  नामक कवक से होती है.

लक्षण :-

पत्तियों पर  पीले रंग के छोटे-छोटे चकत्ते बन जाते हैं, जो बाद में आपस में जुड़कर बड़े चकत्ते बन जाते हैं और पत्तियां मुड़कर गिर जाती हैं. फली और बीज का आकार कम होता है, इसलिए उपज काफी कम हो जाती है. यह बीमारी  उत्तर प्रदेश, बिहार और दक्षिण भारत के कई स्थानों में मौजूद है.

प्रबंधन :-

  • बुवाई के पहले थिरम 2 ग्राम/ किग्रा बीज़ का शोधन करना चाहिये.

  • बोर्डो मिश्रण के छिड़काव से लाभ पहुँचता है.

  • इसकी रोक थाम के लिए ग्रसित पत्तियों को जलाकर नष्ट कर देना चाहिए.

आल्टरनेरिया झुलसा रोग (आल्टरनेरिया ब्लाइट) :-

कारक जीव :-

आल्टरनेरिया आल्टरनाटा

लक्षण :-

पत्तियों और फली पर हल्के काले भूरे रंग के छोटे- छोटे नेक्रोटिक स्पॉट्स दिखाई देते हैं जो बाद में आपस में जुड़कर बड़े चकत्ते (कन्सेंट्रिक रिंग्स) बना लेते हैं.यह रोग मुख्य रूप से पुराने पत्तियों तक ही सीमित रहता  है लेकिन बारिश के मौसम के बाद  नई पत्तियों को  भी संक्रमित कर सकता है.

प्रबंधन :-

  • मैंकोज़ेब१किग्रा/ हेक्टेयर के छिड़काव से लाभ पहुँचता है.

  • अरहर की खेती उचित जल निकासी प्रणाली के साथ मेड़ पर लगावें.

  • फसल की बुवाई समय पर करनी चाहिए.

पीला चितेरी रोग (येलो मोज़ेक रोग) :-

कारक जीव :-

मूंगबीन पिली चितेरी विषाणु इसका कारक जीव है, जो एक कीट सफेद मक्खी यानि बेमेसिआ टेबसाई से फैलता है.

लक्षण :-

इस रोग से पत्तियों पर पीले चितकबरे धब्बे बन जाते हैं और अनुकूल परिस्थिति मिलने पर ये धब्बे आपस में  मिलकर तेजी से फैल जाते है.अतः संक्रमित पौधों में  पत्तियाँ पूर्ण रूप से पीली हो जाती है.

प्रबंधन :-

  • रोग ग्रसित पौधों को खेत से उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए.

  • खेत को खरपतवार मुक्त रखना चाहिए.

  • सफेद मक्खी को नियंत्रित करने के लिए मेंटासिस्टोक्स ०.1% का 2-3 बार छिड़काव करना चाहिए.

चना एक परिचय :-

चना को दालों का राजा कहा जाता है, जो विश्व में  दलहनी फसलों में  एक महत्वपूर्ण फसल है. यह सबसे पहले मध्य-पूर्वी एशिया में  उगाया गया था.भारत में  ये शाकाहारी मनुष्यों के भोजन में  प्रोटीन प्रदान करने वाला एक प्रमुख स्रोत है.इसका उपयोग कई तरह से किया जाता है जैसे कि इसकी पत्तियाँ एवं कोमल शाखाओं को हरी सब्ज़ी के रूप में खाया जाता है, कच्चे बीजों को भी खाया जाता है और पके हुए बीजों से दाल, सत्तू और भून कर खाया जाता है.इसकी पत्तियाँ, तना और चारा पशुओं के लिए भी फायदेमंद है.पोषक मान की दृष्टि से चने के १०० ग्राम दाने में औसतन ११ ग्राम पानी, २१.१ ग्राम प्रोटीन, ४.५ ग्रा. वसा, ६१.५ ग्रा. कार्बोहाइड्रेट, १४९ मिग्रा. कैल्सियम, ७.२ मिग्रा. लोहा, ०.१४ मिग्रा. राइबोफ्लेविन तथा २.३ मिग्रा. नियासिन पाया जाता है. भारत में सबसे अधिक चने का क्षेत्रफल एवं उत्पादन वाला राज्य मध्यप्रदेश है तथा छत्तीसगढ़ प्रान्त के मैदानी जिलों में चने की खेती असिंचित अवस्था में की जाती है. अरहर की तरह यह भी एक मूसला जड़ वाला पौधा है जिससे मृदा की रासायनिक और जैविक दशाओं में सुधार आता है एवं उसकी उर्वरा शक्ति सुधारने और बनाये रखने में काफी मददगार साबित होता है.

चने की फसल में रोग प्रबंधन :-

चने की फसल की उत्पादकता को प्रभावित करने वाले जैविक कारणों में  रोग सबसे प्रमुख कारण है जो कि चने की फसल को काफी क्षति पहुँचiते हैं . चने की फसल के प्रमुख रोग इस प्रकार हैं:-

उकठा रोग (विल्ट रोग) :-

कारक जीव :-

फ्यूजेरियम  ओक्सिस्पोरियम एफ. एसपी  सिसेरिस

लक्षण :-

विभाजित जड़ में भूरी काली धारियाँ दिखाई देती हैं.पौधों का झुककर मुरझाना, उकठा के लक्षण हैं.

प्रबंधन :-

  • उकठारोगरोधीजातियाँलगाऐंजैसे- जे.जी. 315, जे.जी. 322, जे.जी. 74, जे.जी. 130|

  • 50 किलो ग्राम की गोबर की खाद के साथ ट्राई कोडर्मा 5 किलोग्राम/ हैक्टेयर मिलाकर खेत में डालें .

  • इस बीमारी से बचने के लिये 3-4 वर्षों तक फसल का चक्रीकरण करें.

शुष्क जड़ विगलन (ड्राइ रूट रॉट)

कारक जीव/राइजोक्टोनिया बटाटीकोला

लक्षण :-

इस रोग के लक्षण संपूर्ण भाग पर ही दिखाई देते हैं लेकिन जड़ अधिक संक्रमित होती है और गलने लगती है. इस रोग से संक्रमित जड़ को देखने पर इनमें भूरे रंग के कवक जाल दिखाई देते हैं .

प्रबंधन :-

  • कार्बेन्डाजिम 500 ग्राम प्रति हैक्टेयर का छिड़काव करना चाहिए.

  • रोग रोधी किस्में जैसे जी.एन.जी.-1571, जी.एन.जी.-1946, बी.जी. 209 एवं बी.जी. 203 का चयन बुवाई हेतु करना चाहिए.

  • बीजों को बुवाई से पूर्व थाइरम एवं कैप्टॉन 2.5ग्राम/किग्रा. बीज को उपचारित करना चाहिए.

एस्कोकाइटा अंगमारी/ चाँदनी रोग (एस्कोकाइटा ब्लाइट) :-

कारक जीव :-

यह रोग एस्कोकाइटा रैबिआई नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता है.

लक्षण :-

इस रोग में पत्तियों पर चक्कतें बनते हैं जो भीतर से पीले एवं जिनके चारों तरफ भूरे रंग का घेरा होता है.  सामान्यत: रोग के लक्षण का समय फूल आने तथा फली भरने की अवस्था में होता है. अनुकूल वातावरण मिलने पर ये धब्बे आकार व संख्या में बढ़कर आपस में मिल जाते हैं और पौधे झुलसे हुये दिखाई देते हैं.

प्रबंधन :-

  • बीजों को बुवाई से पूर्व2-2.5 ग्राम प्रतिकिलों की दर से थाइरमया कार्बेन्डाजिमना मकदवा से उपचारित करना चाहिये.

  • मेंकोजेब (2ग्राम प्रति लीटर) का छिड़काव करना चाहिए.

  • रोग रोधी किस्में जैसे. जी.एन.जी.-663, जी.एन.जी.-1579, जी.एन.जी.-1947, सी-234, पंत जी-114 गौरव, पी-1453 एवं आई.ई.सी.-26434 को बुवाई हेतु प्रयोग करना चाहिए.

स्केलेरोटीनिया अंगमारी रोग :-

कारक जीव/स्केलेरोटिनिया स्केलेरोशियम

लक्षण :-

इस रोग में मृदा में उपस्थित उतरजीवी कठंकपक (स्केलेरोशियम) अंकुरित होकर सफेद कवक जाल बनाते है. इस रोग के प्रभाव से रोगी पौधे पहले पीले पड़ जाते हैं फिर भूरे होकर मुरझा जाते हैं और अंतत: सूख जाते हैं. इस रोग से ग्रसित खेतों में चने के उत्पादन में 5-70 % की कमी हो सकती है.

प्रबंधन :-

  • खड़ी फसल में कार्बेन्ड़ाजिम, कार्बेन्ड़ाजिम और मैंकोजेब के ०.2% के घोल का छिड़काव करें.

  • गर्मी के मौसम में खेत की गहरी जुताई करने से स्कलेरोसिया अधिक तापमान के कारण मर जाते हैं या अंकुरित नहीं हो पाते हैं.

  • रोग रोधी किस्में जैसे जी-543, गौरव, पूसा 361,पूसा 256 को रोग ग्रसित क्षेत्रों में उगाना चाहिए.

धूसर फफूंद रोग (बोट्राइटिस ग्रे मोल्ड) :-

कारक जीव :-

यह रोग ब्रोट्राइटिस साइनेरिया नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता है.

लक्षण :-

यह एक मृदाजनित रोग है तथा अधिक नमी इस रोग के लिये अनुकूल होती है.इस रोग के लक्षण पर्णवृन्तों, शाखाओं पत्तियों व फूलों पर भूरे या गहरे रंग के मृत धब्बों के रूप में उत्पन्न होते हैं . अनुकूल वातावरण होने पर यह रोग सामान्यत: पौधों में फूल आने एवं फसल की पूर्णरूप से विकसित होने पर फैलता है. फलियों में दाने नहीं बनते हैं, एवं बनते भी है तो सिकुड़े हुए होते हैं.

प्रबंधन :-

  • फसल की बुवाई देरी से करनी चाहिए अर्था नवंबर के पहले पखवाड़ा में करना चाहिए.

  • रोग रोधी प्रतिरोधी किस्में जैसे–आई.सी.सी. 1069, आई.सी.सी. 5039 का उपयोग करना चाहिए.

  • 0.2% का र्बेंडा जिम के साथ फसल को छिड़काव करना चाहिए.

लेखक

राहुल कुमार, पी एच.डी. विद्वान

तुलसी कोर्रा, पी एच.डी. पंडित

माइकोलॉजी और प्लांट पैथोलॉजी विभाग

कृषि विज्ञान संस्थान

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय

वाराणसी-221005 इंडिया

ई-मेल- rkmppbhu@gmail.com

मोबाइल नं 7905164402, 8090753970

English Summary: Major diseases and management of tur and gram
Published on: 04 July 2022, 04:07 PM IST

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