मटर की खेती पूरे भारत में व्यावसायिक रूप से की जाती है. मटर को सर्दी के मौसम में उगाया जाता है. मटर का सब्जियों में एक खास स्थान है. इसकी खेती हरी फली और दाल प्राप्त करने के लिए की जाती है. मटर की दाल की जरूरत को पूरा करने के लिए पीले मटर की खेती की जाती है. पीले मटर का उपयोग बेसन के रूप में, दाल के रूप में और छोले के रूप में किया जाता है. मटर में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, फास्फोरस, रेशा, पोटाशियम और विटामिन की जैसे मुख्य पोषक तत्व पाए जाते हैं. ये सभी तत्व हमारे शरीर के लिए लाभदायक होती है. आइये जानते हैं कि इस प्रमुख फसल में कौन से रोग लगते हैं और उनसे किस तरह से निजात पाया जा सकता है.
1. चूर्णिल आसिता रोग
यह रोग लगभग हर मटर की खेती में लगता है. प्रस्तावना इस रोग को सबसे पहले साल 1918 में उल्लेखित किया गया था. शीघ्र पकने वाली मटर की प्रजातियो में इससे हानि कम होती है लेकिन पछेती खेती में जब सका प्रकोप ज़्यादा पाया जाता है तब खेत में फलियों की संख्या में 21 से 31 प्रतिशत तक कमी हो जाती है. यह रोग ईरीसाइफी पोलीगोनी जीव की वजह से होता है.
लक्षण
इस रोग से पत्तियां सबसे पहले प्रभावित होती हैं और बाद में तनों और फली पर भी असर होता है. पत्तियों की दोनों सतह पर सफेद चूर्ण ध्ब्बे बनते हैं. पहले धब्बे छोटी-छोटी रंगहीन कलंक या चित्तियों के रूप में बनते हैं लेकिन बाद में इनके चारों ओर चूर्णी समूह फैल जाता है. रोगी पौधों में प्रकाश संश्लेषण की कमी हो जाती है. पौधे छोटे रह जाते हैं और उनपर फलियां भी कम और हल्की लगती हैं. पत्तियों के जिस स्थान पर परजीवी का कवक जाल फैला रहता है, वहां की कोशिकायें ऊतक क्षय की वजह से मर जाती हैं.
प्रबन्धन
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फसल की कटाई के बाद खेत में पड़े रोगी पौधों के अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए.
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रोगमुक्त बीज को थीरम 25 ग्राम प्रति किलो ग्राम दर से शोधित कर बुवाई करें.
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फसल की देर से बुवाई नहीं करनी चाहिए और फलियों के लिए मटर की अगेती किस्म बोनी चाहिए .
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रोग के लक्षण दिखाई देने पर 25 से 30 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से गंधक चूर्ण (200 मेंश) बुरकना चाहिए.
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स्ल्फैक्स 25 ग्राम प्रति लीटर पानी या ट्राईडीमिफोन (0.05%) या डाइनोकोप (0.05%) छिड़काव करें.
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मटर की रोगरोधी ही किस्मों का चयन करें जिनमें टी 10, टी-56, पी-383, पी-6583, एनडीवीपी-4, अर्का अजीत, आजाद पी-4 और पूसा पन्ना शामिल हैं.
2. मृदुरोमिल आसिता रोग
यह रोग नम मौसम और कोहरा वाले समय में लगता है. भारत में यह रोग उन सभी राज्य में होता है जहां मटर की खेती की जाती है. मौसम की अनुकूलता ही इस रोग की व्यापकता का मुख्य कारण है.
लक्षण
इस रोग के लक्षण तरुण पौधों पर उस समय दिखते हैं जब उनमें तीसरी और चौथी पत्तियां निकल आती हैं. सबसे पहले पत्तियों पर पीलापन दिखने लगता है और बाद में भूरे धब्बे बनने लगते हैं. पहले यह धब्बे निचली पत्तियों पर बनते हैं ओर बाद में ऊपर वाली पत्तियों पर फैल जाते हैं. रोग का प्रभाव फलियों पर भी होता है. फलियां कच्ची हरी एवं चपटी होती हैं. फलियों के दोनों सतह पर हल्के हरे दागों के रूप में धब्बे बनते हैं. इन दागों के नीचे फलियों के भीतर उभरे हुए सफेद विक्षत बन जाते हैं. यह रोग पेरोनोस्पोरा पाइसी जीव की वजह से होता है.
प्रबधंन
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खेत में पड़े रोगी पौधों के अवशेष नष्ट कर दें.
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दो-तीन वर्ष का फसल चक्र अपनायें.
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रोगमुक्त प्रमाणित बीजों को थीरम 25 ग्राम प्रति किलो ग्राम दर से शोधित कर बुवाई करें .
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खेत के आस-पास के खरपतवार नष्ट करें .
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मैकोजेब कवकनाशी के 0.25 प्रतिशत घोल का दो बार 12-15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें.
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रोगरोधी किस्मों का ही चुनाव करें जिनमें हंस, डी एम आर-11, पन्त पी-8, पन्त पी-9, पन्त पी-653, एवं जे पी 181 शामिल हैं.
3. किट्ट रोग (रस्ट)
यह रोग नम जलवायु वाले क्षेत्रों में मटर की फसल को बहुत अधिक हानि पहुंचाता है रोग की व्यापकता में मटर के पौधों के तने विक्रत एवं ऊतकक्षयी हो जाते हैं ओर पौधों की मृत्यु हो जाती है.
लक्षण
इस रोग के लक्षण पौधों पर फरवरी-मार्च में दिखाई देते हैं. पत्ती तनों एवं फलियों पर ईसीडियम के रूप में दिखते हैं. पौधों के हरे भागों पर हल्का पीलापन आता है जो धीरे-धीरे भूरा हो जाता है. फसल के पकने पर गहरे भूरे अथवा काले रंग के टेल्यूटोस्फोट पत्तियों एवं तनों पर बनते हैं. पत्तियों पर जाल बनते हैं.
प्रबंधन
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हमेशा प्रमाणित बीज का ही उपयोग करें.
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एक ही खेत में मटर को कम से कम 3 साल तक बोयें.
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बीज को बोने से पहले ऐग्रोसान जीएन या थाएरैम की 25 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें.
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3 किलोग्राम डिकार, 2 किलोग्राम डाईथेन एम-45 या डाईथेन जेड-78 को 700 से 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करें. पहला छिड्काव रोग प्रकट होने पर ओर दूसरा, तीसरा छिड़काव 15 दिनों के अन्तराल पर करें.
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005 प्रतिशत बेलीटोन तथा 0.2 प्रतिशत केलिक्सिन छिड़काव किया जा सकता है.
4. म्लानि या उकठा रोग
यह मटर की फसल का एक प्रमुख विनाशकारी रोग है जो भारत के सभी मटर उगाने वाले राज्यों में सामान्य रूप से पाया जाता है. एक ही खेत से लगातर मटर की फसल लेने से यह रोग लगभग 40-45 प्रतिशत तक पोधों को मार देता है. इस रोग को मुरझान, उंकडा, उक्ठा या उखटा के नाम से जाना जाता है.
लक्षण
इस रोग का संक्रमण फसल की प्रारम्भिक अवस्था में उस समय होता है, जब पौधे 5-6 सप्ताह के होते हैं. रोग का प्रमुख लक्षण प्रौढ़ पौधों का मुरझाना है. पौधे पानी की कमी में मुरझा जाते हैं जबकि खेत में नमी प्रर्याप्त मात्रा में होती है. पत्तियां पीली पड़कर मुरझाने ओर सूखने लगती हैं तथा पौधा सूख जाता है. मुख्य जड़ों ओर तनों के आधार वाले ऊतक काले रंग के दिखाई देते हैं तथा जड़ों पर काले रंग की धारियां बन जाती हैं. यह रोग फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम पाइसी से होता है.
प्रबंधन
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खेतों में छूटी गहरी जड़ों को निकालकर नष्ट करें.
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गर्मियों के दिनो में गहरी जुताई करनी चहिए.
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बीजों को ट्राइकोडर्मा की 4.0 ग्राम प्रति किलोग्राम मात्रा से उपचारित करके ही बोये.
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रोगरोधी किसमों का ही चुनाव करें
5. जीवाणु रोग
यह मटर का एक सामान्य रोग है. भारत में यह रोग मटर उगाने वाले सभी राज्य में पाया जाता है. 1989 में हिमाचल प्रदेश में इस रोग से 80-100 प्रतिशत हानि का आंकलन किया गया है. सामान्य अवस्था में यह रोग 25-30 प्रतिशत तक हानि करता है.
लक्षण
यह एक पर्णीय रोग है और पत्तियों के ऊपर छोटे, गोल, जलमय, पारभासक धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं. यह धब्बे भूरे ओर उभरे हुए होते हैं. जैसे-जैसे रोग बढ़ता है, पत्तियों की सतह सफेद अथवा धूसर रंग की हो जाती है. तने एवं फलन शाखाओं पर गहरे भूरे, काले, रेखीय धंसे हुए धब्बे बनते हैं. रोगी पौधों पर फलियां कम लगती हैं तथा फलियों में दानें भी कम बनते हैं.
प्रबंधन
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रोग मुक्त बीजों का ही चयन करें.
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2-3 वर्ष का फसल चक्र अपनायें व जल निकास का समुचित प्रबन्ध करें.
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खेत के आसपास साफ-सफाई रखें व खरपतवार को खेत के पास उगने न दें.
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रोगरोधी किस्मों का ही चयन करें.
6. मोजेक रोग
लक्षण
विषाणु के कारण पत्तियों में शिरा उद्भासन के साथ शिरा हरिमाहीनता हो जाती है. पत्तियों के किनारों अथवा सिरों पर पीलापन आ जाता है. संक्रमित पोधें के पर्णक किनारे पर से ऊपर की ओर मुड्ना आरम्भ करते हैं. कभी-कभी पत्तियों पर हल्का विकीर्ण चितकब्ररापन भी दिखाई देता है. संक्रमित पौधा सामान्य पौधों की अपेक्षा छोटा रह जाता है. फलियां सख्यां में कम, छोटी, पीले हरे रंग की हो जाती हैं.
प्रबंधन
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खेत से रोग संक्रमित पौधों एवं खरपतवारों को उखाड़कर जला देना चाहिए.
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रोगमुक्त बीजों का ही चयन करें.
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रोग की रोगथाम सफेद मक्खियों से फसल की सुरक्षा करके की जा सकती है. मेंथिल पेराथांयान 0.02 प्रतिशत एवं डाइमेंथोएट 0.05 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए.
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रोगरोधी किस्मों का ही चुनाव करें.
डॉ. सुरेंन्द्र कुमार
सहायक प्रोफेसर
मेंवाड विश्वविद्यालय, गगंरार, चित्तौड़गढ़, राजस्थान
शोध छात्रा
श्वेता जयसवाल
वनस्पति विज्ञान विभाग
बुन्देलखन्ड विश्वविद्यालय, झांसी, उत्तर प्रदेश
चन्द्र शेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कानपुर