Strawberry: भारत में स्ट्रॉबेरी की खेती हाल के वर्षों में अत्यधिक लोकप्रिय हो रही है, क्योंकि यह पारंपरिक फसलों की तुलना में अधिक लाभकारी है. स्ट्रॉबेरी की खेती पॉलीहाउस, हाइड्रोपोनिक्स और खुले खेतों में विभिन्न प्रकार की मिट्टी एवं जलवायु में की जा सकती है. विश्वभर में इसकी लगभग 600 प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें से भारत में केवल कुछ ही किस्में उगाई जाती हैं. स्ट्रॉबेरी एक अत्यधिक नाजुक फल है, जो हल्का खट्टा-मीठा स्वाद लिए होता है. इसकी विशिष्ट लाल रंगत और सुगंध इसे अत्यधिक आकर्षक बनाती है. इसमें एंटीऑक्सिडेंट, विटामिन C, A, K, प्रोटीन, कैल्शियम, मैग्नीशियम, फोलिक एसिड, फॉस्फोरस एवं पोटैशियम जैसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व पाए जाते हैं. ये पोषक तत्व त्वचा की चमक बढ़ाने, आँखों की रोशनी सुधारने और दाँतों की सफेदी बनाए रखने में सहायक होते हैं.
बिहार के औरंगाबाद एवं उसके आसपास के क्षेत्रों में स्ट्रॉबेरी की खेती हाल ही में बहुत प्रचलित हो रही है. परंतु, किसानों को इस फसल में लगने वाले रोगों की समुचित जानकारी नहीं होने के कारण उत्पादन प्रभावित हो रहा है. इस लेख में, हम स्ट्रॉबेरी के प्रमुख रोगों और उनके प्रभावी प्रबंधन की चर्चा करेंगे.
स्ट्रॉबेरी में प्रमुख रोग एवं उनका प्रबंधन
1. पत्ती धब्बा रोग (Leaf Spot Disease)
लक्षण: यह स्ट्रॉबेरी का एक सामान्य रोग है, जो पत्तियों की ऊपरी सतह पर गहरे बैंगनी रंग के छोटे-छोटे धब्बे के रूप में प्रकट होता है. धब्बे धीरे-धीरे 3-6 मिमी तक बढ़ जाते हैं और भूरे या सफेद रंग में परिवर्तित हो सकते हैं. प्रभावित पत्तियाँ सूखकर गिर जाती हैं, जिससे पौधे की वृद्धि प्रभावित होती है.
प्रबंधन: हल्की सिंचाई करें, ताकि अतिरिक्त नमी से बचा जा सके. संक्रमित पत्तियों को हटाकर नष्ट करें. फफूंदनाशक मैंकोजेब, हेक्साकोनाजोल या साफ की 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में मिलाकर 10 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें.
2. ग्रे मोल्ड (Gray Mold)
लक्षण: यह रोग फूलों, फलों और तनों को प्रभावित करता है. संक्रमित फूल और फलों के डंठल मुरझाने लगते हैं. फल भूरे रंग के सड़न के रूप में विकसित होते हैं और उन पर सफेद-भूरे रंग की फफूंदी जम जाती है.
प्रबंधन: प्रभावित भागों को हटाकर खेत से बाहर करें. अधिक नमी और घनी रोपाई से बचें. मैंकोजेब या हेक्साकोनाजोल का छिड़काव करें.
3. रेड स्टेल/रेड कोर रोग (Red Stele / Red Core Disease)
लक्षण: पौधे की जड़ें अंदर से लाल हो जाती हैं, जिससे जल संचरण बाधित होता है. पौधे शुष्क मौसम में मुरझाने लगते हैं और वृद्धि रुक जाती है. संक्रमित पौधे जून-जुलाई तक मर सकते हैं.
प्रबंधन: खेत में जल निकासी की उचित व्यवस्था करें. संक्रमित पौधों को हटा दें.हेक्साकोनाजोल की 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में मिलाकर 10 दिन के अंतराल पर दो छिड़काव करें.
4. विल्ट रोग (Wilt Disease)
लक्षण: पौधे अचानक मुरझाने लगते हैं, विशेषकर गर्मी के मौसम में. प्रभावित पौधों की पत्तियाँ पीली होकर झड़ने लगती हैं. छोटे और कच्चे फल गिरने लगते हैं.
प्रबंधन: खेत में जलभराव न होने दें. कार्बेन्डाजिम या हेक्साकोनाजोल का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर मिट्टी में सिंचाई करें.
5. पाउडरी मिल्ड्यू (Powdery Mildew)
लक्षण: पत्तियों के किनारे ऊपर की ओर मुड़ने लगते हैं. पत्तियों पर बैंगनी रंग के धब्बे बन जाते हैं. प्रभावित फल सफेद रंग के चूर्ण जैसे कवक से ढक जाते हैं.
प्रबंधन: फसल में वायु संचार बढ़ाने के लिए उचित दूरी पर पौधों की रोपाई करें. सल्फर आधारित फफूंदनाशक का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें.
6. अल्टरनेरिया स्पॉट रोग (Alternaria Leaf Spot Disease)
लक्षण: पत्तियों पर गोल, लाल-बैंगनी धब्बे दिखाई देते हैं. पत्तियाँ समय से पहले गिरने लगती हैं, जिससे प्रकाश संश्लेषण प्रभावित होता है.
प्रबंधन: खेत में रोगग्रस्त पत्तियों को नष्ट करें. मैंकोजेब या साफ फफूंदनाशक का छिड़काव करें.
7. एन्थ्रेक्नोज (Anthracnose or Black Spot Disease)
लक्षण: पत्तियों, तनों और फलों पर काले धब्बे बनते हैं. प्रभावित फल धीरे-धीरे गलने लगते हैं. पौधे मुरझाकर गिर सकते हैं.
प्रबंधन: साफ-सुथरी खेती अपनाएँ. हेक्साकोनाजोल या मैंकोजेब का छिड़काव करें.
8. क्राउन रोट (Crown Rot Disease)
लक्षण: पौधे दोपहर में मुरझा जाते हैं और शाम को ठीक हो जाते हैं. जड़ों में लाल-भूरे रंग की सड़ांध दिखाई देती है.
प्रबंधन: जल निकासी सुधारें. हेक्साकोनाजोल का छिड़काव करें.
9. एंगुलर लीफ स्पॉट (Angular Leaf Spot Disease)
लक्षण: पत्तियों की निचली सतह पर छोटे पानी से भरे घाव दिखाई देते हैं. रोग के बढ़ने पर लाल रंग के धब्बे बन जाते हैं.
प्रबंधन: संक्रमित पौधों को हटा दें. जैविक कवकनाशी का उपयोग करें.