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Updated on: 3 April, 2020 1:19 PM IST

मेंथा की खेती सामान्यतया सुगंधित तेलों के लिए की जाती है! तेल एवं इसमें विद्यमान सुगंधित रासायनिक तत्वों का औषधि सामग्री और मिष्ठान उद्योग में उपयोग किया जाता है इसके अतिरिक्त इसके तेल की मांग विदेशों में भी लगातार बढ़ती जा रही है! भारत में खेती की अच्छी संभावनाओं के  कारण इसके अंतर्गत क्षेत्रफल लगातार बढ़ता जा रहा है! आज मेंथा की खेती मात्र कृषि व्यवसाय ही न रहकर विदेशी मुद्रा अर्जन तथा छोटे बड़े किसानों की आय एवं ग्रामीण रोजगार  का प्रमुख साधन बन गया है अब शिक्षित किसान ही नहीं बल्कि अशिक्षित किसान भी मेंथा की खेती को एक बड़े व्यवसाय के रूप में अपनाने को आगे आ रहे हैं लेकिन अच्छी पैदावार तभी संभव है जब हम उपयुक्त प्रजाति का चयन करें और सभी कृषि विधियों को समय से करें तभी हम अच्छी पैदावार ले सकते हैं!

आज हम मेंथा की खेती के विषय में चारों तरफ काफी चर्चा सुनते हैं लेकिन इसकी अच्छी पैदावार लेने के लिए और व्यवसाय के स्तर पर खेती करने के लिए जापानी मेंथा या पिपरमिंट आज से लगभग 40 वर्ष पहले क्षेत्रीय अनुसंधानशाला तथा केंद्रीय औषधीय एवं सगंध पौध संस्थान के द्वारा विकसित की गई थी!

वर्तमान समय में जापानी पुदीने की खेती काफी क्षेत्रफल में की जा रही है अंतरराष्ट्रीय मांग को देखते हुए यह आवश्यक हो गया की मेंथा के तेल का उत्पादन अधिक मात्रा में बढ़ाया जाए और यह तभी संभव है जब इसकी खेती में उन्नत कृषि विधियों को अपनाकर समय से खेती की जाए!

भूमि एवं जलवायु (Land and Climate)

मेंथा की खेती दोमट से लेकर चिकनी मिट्टी में जिसमें कार्बनिक पदार्थ की बहुतायत मात्रा हो जमीन की जल धारण करने की क्षमता हो तथा जमीन का पीएच मान 6.8 से 7.5  हो, में अच्छी तरह से की जा सकती है भूमि जिसमें पानी का जमाव ज्यादा समय तक रहता है इसकी खेती के लिए अच्छी नहीं होती !

मेंथा मिंट या पिपर मिंट की खेती समशीतोष्ण जलवायु में आसानी से की जा सकती है बशर्ते यहां पर सिंचाई की समुचित व्यवस्था हो पिपरमेंट की खेती के लिए शीतोष्ण जलवायु अधिक उपयोगी मानी जाती है कश्मीर और उत्तर प्रदेश की पहाड़ियों के मैदानी भाग तथा हिमाचल प्रदेश के अलावा मैदानी क्षेत्रों में भी इसकी खेती आसानी से की जा सकती है

कैसे करें भूमि का चुनाव (How to select land)

मेंथा की खेती बलुई दोमट से लेकर मटियार दोमट भूमि में की जा सकती है जिसमें जल निकास का उचित प्रबंध हो तथा जीवांश की भरपूर मात्रा हो भूमि का चुनाव करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि सिंचाई व जल निकास का समुचित प्रबंध हो भूमि का अम्लीय एवं क्षारीय होना मेंथा की खेती के लिए हानिकारक होता है इसकी खेती के लिए जमीन की तैयारी की अधिक आवश्यकता होती है खरीफ की फसल काटने के बाद एक या दो बार मिट्टी पलटने वाले हल से या हैरो से क्रॉस जुताई करते हैं इसके बाद आवश्यकतानुसार एक या दो बार हल्की जुताई करते हैं अंतिम जुताई के बाद पटेला चलाकर जमीन को भुरभुरी कर लिया जाता है अंतिम जुताई के समय जमीन में फिप्रोनिल या कारटेप हाइड्रोक्लोराइड को 5kg/acre की दर से बिखेर दिया जाता है! जिससे दीमक तथा भूमिगत कीड़ों का नियंत्रण हो जाता है यदि आसानी से उपलब्ध हो तो माईकोरिज़ा को भी खेत में अंतिम जुताई के समय बिखेरा जा सकता है!

बीज व बुवाई (Seeds and Sowing)

मेंथा की बुवाई भूमिगत सकर से एवं दूसरी प्रजातियों की बुवाई भूमिगत जड़ों रनर तथा शाकीय भाग से की जाती है!

बुवाई के लिए नई खेत में नर्सरी अगस्त से सितंबर में लगा देते हैं नर्सरी तैयार करने हेतु पिछली फसल की कटाई के पश्चात शाकीय भाग या पूरा पौधा निकालकर प्रयोग में लाया जाता है

मेंथा की बुवाई का उपयुक्त समय 15 जनवरी से 15 फरवरी होता है जबकि अन्य प्रजातियों को बोने का समय दिसंबर और जनवरी होता है कुछ क्षेत्रों में मेंथा की रोपाई मार्च-अप्रैल में  लाही या गेहूं के बाद करते हैं इसके लिए पौधा अलग से जनवरी और फरवरी में तैयार करना शुरू कर दिया जाता है!

मेंथा की बुवाई में कतार से कतार की दूरी बहुत ही महत्व रखती है जो भूमि की उपजाऊ शक्ति जलवायु उन्नत प्रजातियां बुवाई का समय तथा निराई गुड़ाई के यंत्रों की उपलब्धता पर निर्भर करती है गर्म मौसम तथा उन्नत प्रजातियों को देखते हुए व्यवसायिक तौर पर कतार से कतार की दूरी 775 सेंटीमीटर तक रखते हैं जब मेंथा की रोपाई मार्च -अप्रैल में करते हैं उस समय 45 से 50 सेंटीमीटर की दूरी उपयुक्त होती है एक हेक्टेयर क्षेत्र में बुवाई के लिए 4 से 5 कुंटल सकर, रनर्स की आवश्यकता होती है. बुवाई के तुरंत बाद सिंचाई करना अति आवश्यक है जनवरी में बोया गया मेंथा तीन से चार तथा फरवरी में बोया गया मेंथा उगने में 2 से 3 सप्ताह समय ले लेता है!

कितना डाले उर्वरक (How much quantity of fertilizer)

शाकीय फसल होने के कारण मेंथा की बढ़वार के लिए नत्रजन की प्रचुर मात्रा की आवश्यकता पड़ती है खाद की मात्रा मेंथा की उन्नत प्रजाति  की किस्म तथा सिंचाई की सुविधा पर निर्भर करती है खाद की मात्रा मृदा परीक्षण के आधार पर करनी चाहिए खरीफ में दलहनी फसल ली गई हो तो नाइट्रोजन की मात्रा में कमी कर सकते हैं नत्रजन की कमी से पौधों की बढ़वार रुक जाती है जापानी पोदीना में इसे 150 से 160 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तथा अन्य प्रजातियों में 125 से 140 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नत्रजन की आवश्यकता होती है नत्रजन की एक तिहाई मात्रा बुवाई के समय, दूसरी मात्रा 80 दिन के बाद तथा अंतिम एक तिहाई भाग दूसरी कटाई के समय डालते हैं उर्वरक डालते समय खेत में  मात्रा 3 की जगह 4 बार बराबर भाग में डालना फसल के लिए लाभकारी होता है फास्फोरस भी एक महत्वपूर्ण तत्व है इसकी कमी से पौधा बौना तथा पत्तियों का आकार और नंबर प्रति पौधा कम हो जाता है इसलिए बुवाई से पहले खेत में फास्फोरस की मात्रा 50 से 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 3 से 5 सेंटीमीटर की गहराई पर डाल देना चाहिए जिन क्षेत्रों में जिंक की कमी हो वहां पर 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से आखिरी जुताई के समय जिंक सल्फेट खेत में मिला देना चाहिए!

कितनी करें सिंचाई (How much should irrigation)

मेंथा की अच्छी उपज के लिए सिंचाई का विशेष महत्व है सिंचाई की संख्या मृदा की किस्म तथा जाड़े की वर्षा पर निर्भर करती है एक शाकीय फसल होने के कारण मेंथा को पानी की आवश्यकता अधिक होती है प्रारंभ में सिंचाई 15 से 20 दिन के अंतराल पर की जाती है और उसके बादजब गर्मी बढ़ती जाती है सिंचाई का अंतराल घटता जाता है परीक्षण के दौरान पाया गया है कि मेंथा की 10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करने से उसकी पैदावार में अच्छी बढ़ोतरी होती है दोमट भूमि 12 से 15 दिन के बाद सिंचाई की जरूरत पड़ती है खड़ी फसल में मृदा की नमी 50% आने परतुरंत पानी दे देना चाहिए इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि खेत में पानी का जमाव ना हो ऐसी अवस्था में पौधों की जड़ों में वायु संचार कम हो जाने के कारण पौधों का विकास रुक जाता है फसल की दूसरी कटाई से वर्षा अनियमित होने पर दो से तीन सिंचाई की आवश्यकता होती है!

कैसे करें खरपतवार नियंत्रण (How to control weed)

इस फसल के विकास पर निराई और गुड़ाई का विशेष और सीधा प्रभाव रहता है खरपतवार का समय पर नियंत्रण न होने पर फसल की पैदावार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और प्रति हेक्टेयर तेल के उत्पादन में 60 से 80% तक की कमी हो सकती है अतः मेंथा की फसल को विशेषकर बुवाई से 30 से 75 दिनों के बीच की अवस्था काल और दूसरी कटाई में 15 से 45 दिन की अवस्था काल में खरपतवार रहित होना आवश्यक है पहली निराई होने के 25 से 30 दिन बाद दो से तीन निराई इस फसल के लिए पर्याप्त होती हैं जापानी मेंथा के किल्ले निकलने के 25 से 30 दिन बाद निराई तथा गुड़ाई करके पंक्तियों के मध्य में 5 सेंटीमीटर मोटी परत कर देने से खेत में खरपतवार का बढ़ना रुक जाता है तथा फसल काफी अच्छी होती है!

परीक्षणों से यह पाया गया है कि यदि मेंथा शकर की बुवाई के लिए पलेवा करके पर्याप्त नमी की जाए तो तुरंत सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है जिस कारण खरपतवार कम तथा काफी दिनों के बाद आते हैं मेंथा को पेंट से ढक देने से किल्ले जल्दी तथा बराबर निकल आते हैं और जमीन कड़ी होने से बच कर पौधों की बढ़वार में मददगार साबित होती है बाजार में आसानी से उपलब्ध बाशालिन शार्कनासी रसायन का 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर करने से खरपतवार का नियंत्रण काफी हद तक कम हो जाता है इसका प्रयोग शकर की बुवाई और सिंचाई के दो या तीन दिन बाद की अवस्था में किया जाता है पहली फसल की कटाई के बाद ब्युटाइल Point 25 किलोग्राम प्रति हैक्टर का छिड़काव करने से खरपतवार को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है निराई गुड़ाई करके यदि खरपतवार का नियंत्रण किया जाए तो अच्छा उत्पादन देखा गया है!

फसल चक्र अपनाएं (Adopt crop circle)

एक ही खेत से 1 साल में एक से अधिक फसल लगाकर अधिक धन अर्जित करना आज के समय की मांग है इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए व्यवसायिक फसलों के साथ-साथ मेंथा की खेती करके ज्यादा धन अर्जित किया जा सकता है फसल चक्र बनाते समय ध्यान रखना चाहिए कि मृदा की उपजाऊ शक्ति में अधिक नुकसान ना होने पाए इसलिए फसल चक्र में दलहनी फसलों का प्रयोग करना बहुत जरूरी होता है कुछ फसल चक्र व्यवसायिक तौर पर प्रयोग किए जाते हैं जो कि निम्नलिखित हैं!

1. अगेती धान–सरसों- मेंथा
2. मक्का-आलू-मेंथा
3. अगेती धान-आलू-मेंथा
4. अरहर-मेंथा

कब और कैसे करें कटाई (When and how to harvest)

मेंथा की फसल की दो बार कटाई की जाती है कटाई के समय का चुनाव इसके तेल के उत्पादन तथा गुणवत्ता पर निर्भर करता है इसकी पहली कटाई पौधे पर फूल आने पर की जाती है जो की उन्नत प्रजाति में 100 से 120 दिन की अवस्था में आते हैं देर से काटने पर पौधे की निचली पत्तियां पीली पड़कर झड़ने लगती हैं जिससे तेल के उत्पादन में कमी आ जाती है पुदीना में फूल ना आने के कारण उसकी कटाई की अवस्था को मापना कठिन हो जाता है इसलिए जब इसके पौधों की बढ़वार रुक जाती है तभी इसको काट देना चाहिए गेहूं कटाई करने के उपरांत इसकी दूसरी कटाई 60 से 75 दिन के बाद की जाती है पहली कटाई के 10 दिन पहले फसल में पानी देना बंद कर देना चाहिए, दूसरी कटाई जब आकाश बिल्कुल साफ हो या वर्षा की संभावना ना हो तब करनी चाहिए पौधों की कटाई जमीन से 4 या 5 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर करना अच्छा माना गया है कटाई के पश्चात फसल को एक दिन खेत में ही पड़े रहना देना चाहिए अच्छी सुविधा होने पर कटी फसल को छाया में या 2 दिन तक सुखा लेना चाहिए इसके करीब 5% तेल के नुकसान होने को रोका जा सकता है!

शाक कैसे करे भंडारण (How to store)

शाक आसवन समय पर ना होने के कारण तेल की मात्रा में कमी आ जाती है

यदि फसल को 1 दिन रखने के उपरांत आसवन करते हैं तो उसके तेल में बढ़ोतरी देखी गई है और उसकी गुणवत्ता भी अच्छी होती है!

मेंथा की प्रजातियों को 1 दिन से लेकर 3 दिन तक कटने के बाद छाया में रख सकते हैं इनके तेल की मात्रा और गुणवत्ता में ज्यादा अंतर नहीं पाया गया है कोशिश करनी चाहिए कि 1 दिन छाया में रखने के बाद उसका तेल निकाल लेना चाहिए जिसकी बाजार में कीमत अच्छी मिलती है!

डॉ. आर एस सेंगर, प्रोफेसर
सरदार वल्लभ भाई पटेल एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, मेरठ
मोबाइल नंबर - 7906045253
ईमेल आईडी: sengarbiotech7@gmail.com

English Summary: know how to become rich with mentha cultivation
Published on: 03 April 2020, 01:27 PM IST

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