बिहार में मखाना की खेती ने न सिर्फ सीमांचल के किसानों की तकदीर बदल दी है बल्कि हजारों हेक्टेयर की जलजमाव वाली जमीन को भी उपजाऊ बना दिया है. अब तो निचले स्तर की भूमि मखाना के रूप में सोना उगल रही है. विगत डेढ़ दशक में पूर्णिया, कटिहार और अररिया जिले में मखाना की खेती शुरू की गयी है. किसानों के लिए इसकी खेती वरदान साबित हुई है. मखाना खेती का स्वरूप और मखाना खेती शुरू होने से तैयार होने तक की प्रक्रिया भी अनोखी है. नीचे जमीन में पानी रहने के बाद मखाना का बीज बोया जाता है.
वर्ष 1770 में जब पुर्णिया को जिला का दर्जा मिला उस समय कोसी नदी का मुख्य प्रवाह क्षेत्र पूर्णिया जिला क्षेत्र में था. कोसी नदी के प्रवाह क्षेत्र बदलते रहने की विशेषता के कारण पूरे क्षेत्र का भौगोलिक परिदृशय खास है. इसकी विशेषता यह है कि यहां की जमीन छंची-नीची है. नीची जमीन होने के कारण हैं कि नदियों का मुहाना बदलता रहता है. कोसी नदी के उदगम स्थल से लायी गई फेंक मिट्टी एवं नदी की धारा बदलने से क्षारण के रूप में नीचे जमीन सामने आती है. खास कर इसी नीची जमीन में मखाना की खेती शुरू हुई थी. अब साल भर जलजमाव वाली जमीन में मखाना की खेती होने लगी. खास कर कोसी नदी के क्षारण का यह क्षेत्र वर्तमान पूर्णिया जिला के सभी लागों में माजूद है.
दरंभगा जिला से बंगाल के मालदा जिले तक खेती
मखाना का पौधा पानी के स्तर के साथ ही बढ़ता है. इसके पत्ते पानी के ऊपर फैले रहते हैं और पानी के घटने की प्रक्रिया शुरू होते ही पानी से लबालब भरे खेत की जमीन पर पसर जाते हैं. इसके बाद कुशल और प्रशिक्षित मजदूर द्वारा विशेष प्रक्रिया अपना कर फसल को एकत्रित करके पानी से बाहर निकाला जाता है. इस प्रक्रिया में पानी के नीचे ही बुहारन का इस्तेमाल किया जाता है.
मखाना की खेती की शुरुआत बिहार के दरभंगा जिला से हुई. अब इसका विस्तार क्षेत्र सहरसा, पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज होते हुए पश्चिम बंगाल के मालदा जिले के हरिश्रंद्रपुर तक फैल गया है. पिछले एक दशक से पूर्णिया जिले में मखाना की खेती व्यापक रूप से हो रही है. साल भर जलजमाव वाली जमीन मखाना की खेती के लिए उपयुक्त साबित हो रही है. बड़ी जोत वाले किसान अपनी जमीन को मखाना की खेती के लिए लीज पर दे रहे हैं. इसकी खेती से बेकार पड़ी जमीन से अच्छी वार्षिक आय हो रही है.
सफल किसान
बढ़ती आबादी के बीच तालाबों की घट रही संख्या मखाना उत्पादन को प्रभावित नहीं करेगी. अनुमंडल के प्रसिद्ध किसान झंझारपुर बाजार निवासी बेनाम प्रसाद ने इसे सिद्ध कर दिया है. हालांकि बेनाम प्रसाद ने जो तकनीक अपनाई है, वह पुरानी है लेकिन अगर इस तकनीक का उपयोग किसान करने लगे तो मखाना उत्पादन में रिकार्ड वृद्धि होगी. मखाना उपजाने के लिए आप अपने सामान्य खेत का इस्तेमाल कर सकते हैं. शर्त है कि मखाना की खेती के अवधि के दौरान उक्त खेत में 6 से 9 ईंच तक पानी जमा रहे. इसी तकनीक को अपनाकर तथा मखाना कृषि अनुसंधान केन्द्र दरभंगा के विशेषज्ञों की राय लेकर बेनाम ने अपने पांच कट्ठा खेती योग्य भूमि में इस बार मखाना की खेती की है. मखाना अनुसंधान विभाग दरभंगा के कृषि वैज्ञानिक भी उसके खेत पर गए और मखाना की प्रायोगिक खेती देखी. टीम में शामिल वैज्ञानिकों का कहना था कि इस विधि की खेती परंपरारागत खेती से पचास फीसदी अधिक फसल देती है और एक हेक्टेयर में 28 से 30 क्विंटल की पैदावार साढ़े चार माह में ली जा सकती है.
दरभंगा से पहुंचते हैं मजदूर
मखाना की खेती से तैयार कच्चे माल को स्थानीय भाषा में गोरिया कहा जाता है. इस गोरिया से लावा निकालने के लिए बिहार के दरभंगा जिला से प्रशिक्षित मजदूरों को बुलाया जाता है. गोरिया कच्चा माल निकालने के लिए जुलाई में दरभंगा जिला के बेनीपुर, रूपौल, बिरैली प्रखंड से हजारों की संख्या में प्रशिक्षित मजदूर आते हैं. उन मजदूरों में महिला व बच्चे भी शामिल रहते हैं. ये लोग पूरे परिवार के साथ यहां आकर मखाना तैयार करते हैं. उन लोगों के रहने के लिए छोटे-छोटे बांस की टाटी से घर तैयार किया जाता है. जुलाई से लावा निकलना शुरू हो जाता है और यह काम दिसंबर तक चलता है. फिर वे मजदूर वापस दरभंगा चले जाते हैं. प्रशिक्षित मजदूरों के साथ व्यापारियों का समूह भी पहुंता है और गोरिया तैयार माल लावा खरीद कर ले जाते हैं. तीन किलो कच्च गोरिया में एक किलो मखाना होता है. गोरिया का भाव प्रति क्विंटल लगभग 3500 से 6500 के बीच रहता है.
मखाना की खेती का उत्पादन
मखाना की खेती का उत्पादन प्रति एकड़ 10 से 12 क्विंटल होता है. इसमें प्रति एकड़ 20 से 25 हजार रुपये की लागत आती है जबकि 60 से 80 हजार रुपये की आय होती है. इसकी खेती के लिए कम-से-कम चार फीट पानी की जरूरत होती है. इसमें प्रति एकड़ खाद की खपत 15 से 40 किलोग्राम होती है. मार्च से अगस्त तक का समय मखाना की खेती के लिए उपयुक्त होता है. पूर्णिया जिले के मुख्यत: जानकीनगर, सरसी, श्रीनगर,बैलौरी,लालबालू,कसबा,जलालगढ़ सिटी आदि क्षेत्रों में इसकी खेती की जाती है. इतना ही नहीं मखाना तैयार होने के बाद उसे 200, 500 ग्राम और आठ से दस किलो के पैकेट में पैकिंग कर दूसरे शहरों व महानगरों में भेजा जाता है. मखाने की खेती की विशेषता यह है कि इसकी लागत बहुत कम है. इसकी खेती के लिए तालाब होना चाहिए जिसमें 2 से ढाई फीट तक पानी रहे. पहले सालभर में एक बार ही इसकी खेती होती थी लेकिन अब कुछ नई तकनीकों और नए बीजों के आने से मधुबनी-दरभंगा में कुछ लोग साल में दो बार भी इसकी उपज ले रहे हैं. मखाने की खेती दिसम्बर से जुलाई तक ही होती है. बता दें कि विश्व का 80 से 90 प्रतिशत मखाने का उत्पादन अकेले बिहार में होता है. विदेशी मुद्रा कमाने वाला यह एक अच्छा उत्पाद है. इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि छह साल पहले जहाँ लगभग 1, 000 किसान मखाने की खेती में लगे थे, वहीं आज यह संख्या साढे आठ हजार से ऊपर हो गई है. इससे मखाने का उत्पादन भी बढा है. पहले जहां सिर्फ 5-6 हजार टन मखाने का उत्पादन होता था वहीं आज बिहार में 30 हजार टन से अधिक मखाने का उत्पादन होने लगा है. यहाँ कुछ वर्षों में केवल उत्पादन ही नहीं बढा है बल्कि उत्पादकता भी 250 किलोग्राम प्रति एकड़ की जगह अब 400 किलोग्राम प्रति एकड़ हो गई है.
कई शहरों से भी व्यापारी, तैयार मखाना के लिए आते हैं. पूर्णिया जिले से मखाना कानपुर, दिल्ली, आगरा,ग्वालियर, मुंबई के मंडियों में भेजा जाता है. यहां का मखाना अमृतसर से पाकिस्तान भी भेजा जाता है. मखाना की खपत प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है. मखाना में प्रोटीन, मिनरल और कार्बेाहाइड्रेट प्रचुर मात्रा में पाया जाता है.
अनुपयुक्त जमीन पर मखाना उत्पादन के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने की योजना है, जिससे उनकी समस्या का समाधान संभव होगा और वे आर्थिक रूप से समृद्ध होंगे. मखाना उत्पादन के साथ ही इस प्रस्तावित जगह में मछली उत्पादन भी किया जा सकता है. मखाना उत्पादन से जल कृषक को प्रति हेक्टेयर लगभग 50 से 55 हजार रु पए की लागत आती है. इसे बेचने से 45 से 50 हजार रु पए का मुनाफा होता हैं. इसके अलावा लावा बेचने पर 95 हजार से एक लाख रु पएा प्रति हेक्टेयर का शुद्ध लाभ होता है. मखाना की खेती में एक महत्व पूर्ण बात यह है कि एक बार उत्पादन के बाद वहां दोबारा बीज डालने की जरूरत नहीं होती है.
कृषि जागरण, संदीप कुमार