धान भारत में उगाई जाने वाली महत्वपूर्ण खाद्य फसल है। विश्व में 2.7 % लोग अपने भरण पोषण के लिए धान पर ही निर्भर होते हैं। धान की खेती छत्तीसगढ़ में बहुतायत रूप से की जाती है। यहां शुद्ध बोये जाने वाले क्षेत्र के लगभग 70 % क्षेत्र में धान की खेती की जाती है जिसकी वजह से छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा के नाम से भी जाना जाता है। छत्तीसगढ़ के 3880.28 हजार हेकटेयर क्षेत्रफल में धान खेती की जाती है। जिससे 5749.07 मिलियन टन उत्पादन तथा उत्पादकता 1482 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर है। छत्तीसगढ़ में धान की उत्पादकता राष्ट्रीय औसत उत्पादकता से कम है क्योंकि धान में विभिन्न प्रकार के कवक एंव जीवाणु जनित रोगों का आक्रमण होता है जो उत्पादकता में कमी के प्रमुख कारण है। धान में लगने वाले प्रमुख कवक जनित रोगों में धान का भूरा धब्बा, झुलसा, पर्णच्छद झुलसा, तना सड़न तथा जीवाणु जनित रोग में जीवाणु जनित झुलसा प्रमुख हैं।
भूरा धब्बा रोग (ब्राउन स्पाट)
लक्षण
यह एक बीजजनित रोग है जिसका रोगजनक कवक हेल्मिन्थोस्पोरियम ओराइजी है। इस रोग के कारण पत्तियों पर भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। जिसका आकार गोलाकार या अण्डाकार होता है जो कि पत्तियों की उपरी सतह पर समान रुप से फैला हुआ होता है। रोग द्वारा उत्पन्न धब्बे का आकार छोटे बिन्दी से लेकर गोल आकार का होता है। ये धब्बे सामान्यतः पीले रंग के वृत्त से घिरा होता है जो इस रोग की विशेष पहचान है। रोग के द्वारा उत्पन्न लक्षण पत्तियों से लेकर धान के बीज तक होता है जो कि बीज पर भी छोटे&छोटे गहरे भूरे व काले रंग के धब्बे पाये जाते हैं। जो इस रोग को बीजजनित बनाता है। रोग के अधिक उग्रता की अवस्था में पौधे के अधिकांश भाग धब्बे से भर जाते हैं ये धब्बे आपस में मिल जाते हैं जिसकी वजह से पत्तियांW सूख जाती हैं। रोग का अधिक प्रकोप उच्च भूमि के कम उर्वरता वाले जगहों में मई से सितंबर माह के बीच में अधिक होता है जहां किसान भाई खेतों में उचित प्रबंधन नहीं कर पाते हैं। इस रोग द्वारा सर्वाधिक नुकसान बीज के अंकुरण के समय बीज के सड़ जाने के वजह से अधिक होता है।
समन्वित रोग प्रबंधन
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रोगी पौधे के अवशेषों को जला देना चाहिए।
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बीज के चुनाव के लिए नमक के घोल का प्रयोग करना चाहिए।
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बीज को बुवाई से पहले कवकनाशक से उपचारित करना चाहिए जैसे- बेविस्टीन 2 ग्राम व कैप्टान 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से।
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नाइट्रोजन के उचित मात्रा का प्रयोग करना चाहिए अतिरिक्त मात्रा का प्रयोग न करें।
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रोग सहनशील व रोगरोधी किस्मों का चयन बुवाई के लिए किया जाना चाहिए जैसे- इंदिरा राजेश्वरी, बम्लेश्वरी, इंदिरा सुगंधित धान-1।
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फसल के दौरान खेत में जल की कमी न होने पाये।
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रोग के अधिक आने की अवस्था में मैन्कोजेब 2.5 ग्राम/ली. या नाटीवो 4 ग्राम/ली. का छिड़काव रोग के प्रबंधन में कारगार है।
झुलसा रोग (ब्लास्ट)
लक्षण
यह रोग रोगजनक कवक पाइरीकुलेरिया ग्रीसिया के द्वारा फैलता है। यह रोग अत्यन्त विनशकारी होता है। इस रोग के द्वारा पत्तियों के ऊपर छोटे धब्बे बनते हैं जो बाद में आकार में बढ़ते हैं और नाव के आकार का हो जाते हैं। रोग के लक्षण पहले पत्तियों पर दिखाई देते हैं जो बाद में पर्णच्छद तथा गाठों व दानों के छिलकों पर भी दिखाई देते हैं। धब्बों के बीच का रंग हल्के भूरे रंग का तथा किनारे का रंग गहरे कत्थई का होता है। इस रोग का आक्रमण तनों के गठानों पर भी होता है। जिससे उसका कुछ भाग काला पड़ जाता है तथा संक्रमित पौधे गठानों से टूट जाते हैं। रोगी पौधों के बालियां में दाने नहीं बनते हैं तथा बालियां सड़े हुए भागों से टूटकर गिर जाते हैं। रोग को अनुकुल वातावरण मिलने पर कई धब्बे आपस में मिल जाते हैं जिसके कारण पत्तियां झुलसकर सूख जाती हैं।
समन्वित रोग प्रबंधन
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बीज को बुवाई से पहले कवकनाशक से उपचारित करना चाहिए जैसे- बेविस्टीन 2 ग्राम व कैप्टान 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से।
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उचित समय पर बुवाई करनी चाहिए।
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उर्वरक की संतुलित मात्रा का प्रयोग करना चाहिए।
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नाइट्रोजन के उचित मात्रा का प्रयोग थोड़ी-थोड़ी करके कई बार किया जाना चाहिए।
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रोगरोधी किस्मों का चयन बुवाई के लिए किया जाना चाहिए जैसे- आइ आर-36 व आइ आर-64।
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रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखाई देने पर ट्राइसाइक्लाजोल 0.7 ग्राम/ली. या नाटीवो 75 डब्लू. जी. 4 ग्राम/ली. की दर से किसी एक कवकनाशी का प्रयोग 12-15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए।
पर्णच्छद झुलसा (शीथ ब्लाइट)
लक्षण
यह रोग रोगजनक कवक राइजोक्टोनिया सोलेनी के द्वारा फैलता है। रोगी पौधे में रोग के लक्षण पर्णच्छद व पत्तियों पर दिखाई देता है। इस रोग का प्रकोप कंसे निकलने की अवस्था से लेकर गभोट की अवस्था तक देखा जाता है। इस रोग का प्रकोप खेत में पानी की सतह से लेकर पर्णच्छद के ऊपर की ओर फैलता हुआ दिखाई देता है। सर्वप्रथम पर्णच्छद के ऊपर 2-3 से.मी. लम्बे व 0.5 से.मी. चैड़े भूरे व बदरंगे धब्बे दिखाई देते हैं। प्रारम्भ में धब्बे हल्के व तांबे के रंग के होते हैं जो बाद में धूसर सांप के चमड़ी की तरह दिखाई देते हैं। जबकि धब्बों के किनारे गहरे भूरे रंग का होते हैं। इस रोग को स्क्लेरोशियल ब्लाइट या बेन्डेट ब्लाइट के नाम से भी जाना जाता है। उग्रावस्था में रोग आवरण के ऊपर की पत्तियों पर भी धब्बे बनते हैं। जिससे सभी पत्तियां संक्रमित हो जाती हैं तथा पौधा झुलसा हुआ दिखाई देता है। जिससे पौधों से बालियाW नहीं निकल पाती हैं व दाने भी बदरंगे हो जाते हैं। अधिक आर्द्रता व तापमान की स्थिती में कवकजाल का फैलाव अधिक होता है साथ ही मसूर के दाने के समान स्क्लेरोशिया पौधों पर दिखाई देता है। इस रोग की वजह से फसल में 50 तक की हानी हो सकती है।
समन्वित रोग प्रबंधन
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रोगी पौधे के अवशेषों को जला देना चाहिए।
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उर्वरक की संतुलित मात्रा का प्रयोग करना चाहिए।
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पौधों की रोपाई पास-पास नहीं करनी चाहिए।
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ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई करना चाहिए जिससे कवक के स्क्लेरोशिया गर्मी में नष्ट हो जाते हैं।
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रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखाई देने पर थाइफ्लूजामाइड 1.5 एम.एल./ली., प्रोपीकोनाजोल 1 एम.एल./ली. या हेक्साकोनाजोल 2 एम.एल./ली. की दर से किसी एक कवकनाशी का प्रयोग 12-15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए।
तना सड़न (शीथ राWट)
लक्षण
यह एक बीजजनित रोग है, जो रोगजनक कवक सारोक्लेडियम ओराइजी के द्वारा फैलता है। इस रोग के प्रारंम्भिक लक्षण गभोट वाली अवस्था में दिखाई देते हैं। गभोट के निचले जगह पर हल्के भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। धब्बों का कोई निश्चित आकार नहीं होता है साथ ही ये धब्बे गहरे भूरे रंग के परिधि से घिरे होते हैं। रोग के अधिक प्रकोप की अवस्था में बालियाW गभोट के बाहर नहीं आ पाती है। केवल बाली का कुछ भाग ही बाहर निकला दिखाई पड़ता है। रोग से ग्रसित बालियों में दाने नहीं बन पाते हैं, जिसके कारण ग्रसित बालियां खड़ी दिखाई देती हैं। रोग के अधिक प्रकोप से पोचे दाने की संख्या बढ़ जाती है, जिससे धान के उत्पादन में भारी कमी आ जाती है।
समन्वित रोग प्रबंधन
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बीज के चुनाव के लिए नमक के घोल का प्रयोग करना चाहिए।
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बीज को बुवाई से पहले कवकनाशक से उपचारित करना चाहिए जैसे- कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करने पर रोग के प्रसार को कम करने में सहायता मिलती है।
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रोगी पौधे के अवशेषों को जला देना चाहिए।
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उर्वरक की संतुलित मात्रा का प्रयोग करना चाहिए।
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रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखाई देने पर थाइफ्लूजामाइड 24 एस.सी. 1.5 एम.एल./ली., कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम/ली. या हेक्साकोनाजोल 2 एम.एल./ली. की दर से किसी एक कवकनाशी का प्रयोग करना चाहिए।
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रोग सहनशील किस्म दन्तेश्वरी का प्रयोग बुवाई के लिए करना चाहिए।
जीवाणु जनित झुलसा (बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट)
लक्षण
यह रोग रोगजनक जीवाणु जैन्थोमोनास ओराएजी के द्वारा फैलता है। इस रोग के प्रारंम्भिक लक्षण रोपाई या बोवाई के 20-25 दिन बाद पत्तियों पर दिखाई देते हैं। यह रोग दो अवस्थाओं में होता है- पर्ण झुलसा अवस्था व क्रेसेक अवस्था। प्रारम्भ में रोग पत्तियों के ऊपरी सिरे पर हरे-पीले जल धारित धब्बों के रुप में दिखाई देते हैं। पत्तियों पर पीला व पुआल जैसा लहरदार धारियां किनारे से सिरे की ओर बढ़ता हुआ दिखाई देता है। ये धब्बे पत्तियों के किनारे के समानान्तर धारी के रुप में बढ़ता है। धीरे-धीरे पूरी पत्तियां पुआल जैसा दिखाई देने लगती हैं, ये पत्तियों की धारियों से घिरे रहती है तथा पीली नारंगी व कत्थई रंग की हो जाती है। मोती की तरह पीले रंग की जीवाणु पदार्थ पत्तियों पर दिखाई देता है। जिससे पत्तियां समय से पहले ही सूख जाती हैं। रोग का सर्वाधिक खतरनाक अवस्था क्रेसेक है जिसमें पूरा पौधा सूख जाता है। रोग के समय नाइट्रोजन की अधिक मात्रा का प्रयोग करने से रोग तीव्र गती से बढ़ता है।
समन्वित रोग प्रबंधन
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रोगी पौधे के अवशेषों को जला देना चाहिए।
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स्वस्थ्य प्रमाणित बीजों का प्रयोग करें।
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आक्रांत खेत के पानी को दूसरे खेत में न जाने दें।
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रोपाई के समय पौधे के बीच की दूरी 15 से.मी. अवश्य रखें।
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रोग होने के दशा में पोटाश 25 कि.ग्रा./हे. की दर से उपयोग लाभकारी है।
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उर्वरक की संतुलित मात्रा का प्रयोग करना चाहिए। रोग के लक्षण प्रकट होने पर नाइट्रोजन का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
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रोग रोधी किस्मों का प्रयोग बुवाई के लिए करना चाहिए जैसे- आई.आर.-20, उन्नत साWवामासुरी व बम्लेश्वरी।
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कोई रासायनिक उपचार इस रोग के लिए प्रभावकारी नहीं है।
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लेखक-
अमित, आशालता, डॉ. सुमित, संतोष कुमार लहरे (वैज्ञानिक)
पी.एच.डी. (स्कॉलर) पौध रोग विज्ञान विभाग
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (सीजी)