भारत वर्ष में मुख्य रूप से तीन मौसम सर्दी गर्मी वर्षा होते हैं प्रत्येक मौसम के अनुसार अलग-अलग फसलों की बुवाई की जाती है. राजस्थान की जलवायु दृष्टि को देखते हुए वर्षा कालीन मौसम फसल उत्पादन की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है. यहां का अधिकार क्षेत्र असिंचित होने के कारण इस मौसम में भी अधिकांश बुवाई की जाती है. खरीफ मौसम की फसलों की बुवाई मानसून की वर्षा शुरू होने के साथ साथ की जाती है जिससे वर्षा जल का उपयोग करके कम से कम खर्च में यह फसलें पैदा हो जाती है. अधिकांश काश्तकार इन फसलों के उत्पादन पर विशेष ध्यान नहीं देने के कारण उत्पादन में काफी कमी हो जाती है तथा कीट व रोगों के कारण फसलें नष्ट हो जाती है क्यों कि वर्षा ऋतु में वातावरण में नमी अधिक होने के कारण रोग भी अधिक पनपते हैं.
अधिक उत्पादन के लिए आवश्यक है कि खरीफ फसलों को वैज्ञानिक ढंग से उत्पादित करके अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करें और मृदा की उर्वरता को बढ़ाए, जल संरक्षण के संपूर्ण उपाय अपनाने चाहिए. खरीफ मौसम में मुख्य रूप से बाजरा, गवार, मक्का, मूंग, मूंगफली, सोयाबीन, कपास, तिल, अरहर, अरंडी आदि फसलें उगाई जाती है.
1. अधिक फसलों उत्पादन हेतु मृदा की जांच
खरीफ में अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि मृदा उर्वरता में फसल की उर्वरक मांग के अनुसार उचित मात्रा में खाद व उर्वरक दिया जाए इसके लिए आवश्यक है कि फसलों की बुवाई से एक से डेढ़ माह पूर्व मृदा की जांच करवाकर उचित मात्रा में उर्वरकों का इस्तेमाल करें क्योंकि इनकी मात्रा कम और ज्यादा दोनों ही उपज पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है जांच हेतु नमूना लेने के लिए खेत के ऊपरी ऊपरी परत को हल्का सा हटाकर लगभग 15 CM गहराई तक की मृदा निकाल लेते हैं . एक खेत में कम से कम पांच छह स्थानों से नमूना एकत्र करते हैं 1 किग्रा मृदा नमूने को जांच हेतु भेजना चाहिए, नमूने की पहचान के लिए नमूने पर किसान का नाम, खेत का नाम, गांव का नाम, जिले का नाम तथा पिन कोड लिख लेना चाहिए और कौन सी फसल लेना चाहते हैं आदि के बारे में विस्तृत जानकारी पेंसिल से लिखनी चाहिए. प्राप्त परिणामों के आधार पर ही फसल में खाद, उर्वरक व जिप्सम का प्रयोग करना चाहिए .
2. मृदा सुधार
मृदा परिणाम के अनुसार अगर मृदा में लवणीयता व क्षारीयता अधिक मात्रा में हो तो सुधार के लिए कंपोस्ट सड़ी हुई गोबर की खाद पर्याप्त मात्रा में मिलाकर देनी चाहिए लवणीयता व क्षारीयता सहन करने वाली फसलें बोना चाहिए. इस प्रकार की भूमि में दलहन फसल अच्छी नहीं आती है. इस प्रकार की मृदा में ढेचे की हरी खाद, 50 से 300 किलोग्राम जिप्सम, 250 से 300 सड़ी हुई गोबर की खाद वर्षा ऋतु में प्रति हेक्टेयर की दर से मिलानी चाहिए तथा मृदा सुधार के बाद अगेती रबी फसलों में सरसों, गेहूं, चना, मटर आदि की बुवाई करनी चाहिए.
3. खेत की तैयारी
खरीफ की बुआई के लिए आवश्यक है कि मई माह में मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई की जाए जिससे मृदा में दबे हुए अनेक रोग कारक कीट नष्ट हो जाएंगे. सूर्य की तेज धूप के कारण तथा प्रथम वर्षा का संपूर्ण पानी खेत में अंदर चला जाएगा जिसके परिणामस्वरूप मृदा नमी में सुधार होगा इसके बाद जुताई देशी हल, कल्टीवेटर से करके भुरभुरे खेत में बुवाई कर देनी चाहिए.
4. उर्वरकों का प्रयोग
फसल तथा मृदा में आवश्यकतानुसार फास्फेटिक तथा पोटाशिक उर्वरकों की संपूर्ण मात्रा बुवाई के समय बीजों से दो-तीन सेंटीमीटर गहराई में दे देनी चाहिए. नत्रजन की कुल मात्रा का एक तिहाई भाग बुवाई के समय उर्वरकों के साथ मिलाकर देना चाहिए एक तिहाई भाग बुवाई की 20-25 दिन बाद खड़ी फसल में व शेष तिहाई भाग 40-45 दिन बाद दे देना चाहिए अगर मृदा में सूक्ष्म तत्वों की कमी है तो सूक्ष्म तत्वों के यौगिक मृदा में बुवाई के समय या खड़ी फसल में छिड़काव की विधि द्वारा देनी चाहिए. असिंचित क्षेत्रों में नत्रजन की कुल मात्रा को खड़ी फसल पर छिड़काव विधि द्वारा भी दिया जा सकता है. इसके लिए यूरिया का 600 से 800 ग्राम प्रति लीटर घोल प्रति हेक्टेयर की दर से फसल बुवाई के 35 से 40 दिन बाद खड़ी फसल में छिड़कना चाहिए परंतु यह खाद धन्य वर्ग की फसलों में ही करना चाहिए. बुवाई के समय जैव उर्वरक व दाल वाली फसलों में राइजोबियम कल्चर बीजों में मिलाकर बोना चाहिए जिससे उपज में 10 से 25% तक की वृद्धि होती है.
सारणी–1 खरीफ फसलों में उर्वरकों की मात्रा का विवरण सारणी में दिया गया है
क्रम संख्या |
फसल का नाम |
यूरिया किग्रा प्रति हेक्टेयर |
डी ए पी किग्रा प्रति हेक्टेयर |
म्यूरेट ऑफ पोटाश किग्रा प्रति हेक्टेयर |
जिप्सम की मात्रा किग्रा प्रति हेक्टेयर |
1 |
बाजरा |
70-75 |
65-70 |
30-35 |
250-300 |
2 |
जवार |
65-70 |
60-65 |
25-30 |
मृदा जांच के अनुसार |
3 |
मक्का |
150-175 |
80-85 |
50-60 |
मृदा जांच के अनुसार |
4 |
मूंगफली |
25-30 |
80-90 |
40-60 |
250-300 |
5 |
मोठ |
25-30 |
60-75 |
30-50 |
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6 |
अरहर |
40-50 |
80-90 |
50-60 |
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7 |
सोयाबीन |
30-40 |
80-100 |
75-80 |
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8 |
तिल |
50-60 |
60-75 |
40-50 |
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9 |
अरंडी |
75-80 |
60-70 |
45-50 |
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नोट: यूरिया, डी. ए. पी., म्यूरेट ऑफ पोटाश व जिप्सम की उपयुक्त मात्रा मृदा परीक्षण के बाद में ही पता लग पाती है अतः मृदा की जांच करने के बाद आवश्यकता अनुसार ही उर्वरक देनी चाहिए
बीज दर:
सारणी–2 खरीफ की प्रमुख फसलें व उनकी बीज दर का विवरण सारणी दो में प्रस्तुत है
क्रम संख्या |
फसल का नाम |
बीज दर प्रति हेक्टेयर |
किस्मों के नाम |
1 |
बाजरा |
4-5 किग्रा |
बी.जे-104, बी.के 560, बी.डी-111, एच.एच.बी-67, एच.एच.बी-94, एम.एच-169 पी-334 |
2 |
जवार |
12-15 किग्रा |
सी. एस.एच-1, सी. एस.एच-5, सी.एस.एच-9, एस.पी.वी-946, सी.एस.वी-15, सी.एस.एच-14, सी.एस.एच-16 |
3 3 |
मक्का |
20-22 किग्रा |
गंगासफेद-2, गंगा-5, गंगा-7, कंचन, लक्ष्मी. |
4 |
मूंगफली |
80-100 किग्रा |
आर.बी.एस-87, ज्योति,ए.के12-24,पंजाबनंबर -1, विक्रम |
5 |
मोठ |
12-15 किग्रा |
जड़िया, टाइप-1, बालेश्वर-12, आर.एम.ओ-40 |
6 |
अरहर |
12-15 किग्रा |
प्रभात,यू.पी.ए. एस-120, पूसाअगेती, पूसा 55, शारदा, पारस |
7 |
सोयाबीन |
70-75 किग्रा |
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8 |
तिल |
4-5 किग्रा |
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9 |
अरंडी |
12-15 किग्रा |
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सारणी–3 फसलों अनुसार प्रयोग होने वाले कल्चर
क्रम संख्या |
कल्चर का नाम |
प्रमुख फसलें |
कल्चर की मात्रा |
1 |
एजेक्टोबैक्टर कल्चर |
धान,मक्का, ज्वार, बाजरा, टमाटर |
200 ग्राम के 3-4 पैकेट प्रति हेक्टेयर की दर से |
2 |
फॉस्फेट विलयक जीवाणु खाद |
सभी प्रकार की फसलों में इसका उपयोग कर सकते हैं |
200 ग्राम के 3-4 पैकेट प्रति हेक्टेयर की दर से |
3 |
राइजोबियम कल्चर |
मूंग, लोबिया,सोयाबीन,मूंगफली,अरहर, उड़द |
3 पैकेट प्रति हेक्टेयर की दर से |
नोट.:बीजों को फफूंदनाशक या कीटनाशक दवा से उपचारित करना हो तो पहले फफूंद नाशक फिर कीटनाशक दवा से उपचारित करना चाहिए एवं अंत में जीवाणु खाद से उपचारित करना चाहिए.
5. बीज उपचार:
मृदा में फैलने वाले रोगों तथा मृदा में पाए जाने वाले कीटों की रोकथाम के लिए आवश्यक है कि बीजों को कवकनाशी दवाओं से उपचारित कर के बुवाई करें
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हल्के बीजों निकालने के लिए 2% नमक के घोल में डालकर घोल के ऊपर तैरते हल्के बीजों को निकाल देना चाहिए. पेंदे में पढ़े बीजों को साफ पानी से धोकर सुखा लीजिए.
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बीज बोने से पहले सभी फसलों के बीजों को कबक रोगी, जड़ गलन, तना सड़न, पत्ती धब्बा रोग रहित बाली रोग आदि से बचने के लिए 3 ग्राम कवकनाशी दवा अच्छी प्रकार उपचारित करके बुवाई करनी चाहिए.
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अगर खेत में दीमक का प्रकोप हो तो दीमक की रोकथाम के लिए 100 किलो बीज को 450 मिली लीटर क्लोरोपायरीफॉस बी सी सी या 700 मिली लीटर एंडोसल्फान 35 सी 1 लीटर मात्रा को बुवाई से पूर्व बीजों में अच्छी तरह से मिला देनी चाहिए.
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बाजरा ज्वार मक्का मूंगफली की फसल में सफेद लट के प्रकोप को रोकने के लिए 20 से 25 किलोग्राम फोरेट प्रति हेक्टेयर की दर से मृदा में मिला देनी चाहिए.
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बीजों को अनेक प्रकार के जीवाणु खादों से भी उपचारित करना चाहिए. सामान्यत: तीन प्रकार के कल्चर प्रयोग में लेते हैं . बीज उपचारित करने के लिए 1 लीटर की आवश्यकता अनुसार पानी में 150 ग्राम गुड़ के घोल में कल्चर मिलाकर बीजों के ऊपर छिड़कते हुए हल्के हल्के हाथ से मिला देना चाहिए जिससे कि बीजों पर एक बार इस पर जीवाणु खाद की चढ़ जाए. छायादार स्थान पर सुखाकर शीघ्र बोना चाहिए.
बीजों की बुवाई:
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बीजों की बुवाई समय पर करनी चाहिए आकार के छोटे बीजों को 2-3 सेंटीमीटर तथा मोटे बीज वाली फसलों के बीजों को 4 से 5 सेंटीमीटर गहराई में उचित नमी वाले स्थान पर होना चाहिए बुवाई हमेशा लाइन में करनी चाहिए.
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बीज की मात्रा आवश्यकता के अनुसार ही लेनी चाहिए. बीजों की बुवाई शाम के समय करना ज्यादा अच्छा रहता है. अधिकांश खरीफ फसलों की बुवाई वर्षा शुरू होने के बाद ही की जाती है परंतु जिन स्थानों पर सिंचाई के साधन उपलब्ध हो वहां पलेवा करके जून माह के अंत तक बुवाई करने से फसल की पैदावार अच्छी रहती है.
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बारानी खेत में कम अंकुरण की समस्याओं के कारण बीज दर सामान्य से 10 से 15% ज्यादा रखनी चाहिए तथा पौधों की संख्या 10 से 15% कम रखनी चाहिए.
निराई गुड़ाई व खरपतवार नियंत्रण:
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खेत को सदैव खरपतवार से मुक्त रखने के लिए खरीफ फसलों में 2-3 निराई गुड़ाई खुरपी से करते हैं . गुड़ाई कभी भी 4-5 सेंटीमीटर से गहरी नहीं करनी चाहिए.
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बाजरा, मक्का, ज्वार की फसलों को खरपतवार रहित रखने के लिए एट्राजीन नामक रसायन की 0.25 से 0.50 किलोग्राम को 800 से 1000 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के तुरंत बाद फसल के अंकुरण से पहले इसका छिड़काव एक हेक्टेयर में करना चाहिए मूंग मोठ ग्वार व दाल वाली फसलों में खरपतवार नियंत्रण के लिए बासालिन 1 किलोग्राम को 1000 लीटर पानी में घोलकर बुवाई से पूर्व छिड़काव कर भूमि में चार से पांच सेंटीमीटर गहराई पर अच्छी प्रकार मिट्टी से मिला देना चाहिए.
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मूंगफली फसल में 15 किलोग्राम सक्रिय अवयव का 500 से 600 लीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई के तुरंत बाद छिड़काव करना चाहिए. मूंगफली की फसल में सुईया बनना शुरू होने के बाद कभी भी निराई गुड़ाई या मिट्टी चढ़ाने की क्रिया नहीं करनी चाहिए.
पौध संरक्षण :
खरीफ फसलों में प्रमुख कीट व्याधि की पहचान एवं प्रबंधन उपायों की संक्षिप्त जानकारी
कम्बल कीट
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मानसून के आगमन के साथ ही इस कीट का जीवन चक्र आरम्भ होता है, हल्की रेतिली भूमि वाले क्षेत्रों एवं जंगल से लगे क्षेत्रों में इसका व्यापक प्रकोप होता है. यह कीट सभी फसलों को भारी क्षति पहुंचाता हैं
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वयस्क तितली के अग्र पंख सफेद रंग के होते हैं . जिनके किनारों पर लाल धारी होती हैं. पिछले पंख भी सफेद होते है जिन पर काले रंग के चार धब्बे होते हैं .
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वयस्क का उदर लाल रंग का होता हैं जिस पर काले रंग की बिंदियां पाई जाती हैं. इल्लियों पूर्ण विकसित अवस्था में गहरे भूरे रंग की होती हैं . इनका पूरा शरीर लाल भूरे रंग के बालों से ढका रहता है. इस कीट की यही अवस्था सबसे ज्यादा घातक होती हैं.
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खरीफ की सभी फसलों में इसका प्रकोप होता हैं. अनुकूल परिस्थिति होने पर यह कीट फसल को पूर्णत: नष्ट कर देता हैं.
प्रबंधन
अंडों के समूहों को जो सामान्यत: पलाश, रतनजोत, जैसी झाडिय़ों के पत्तियों की निचली सतह पर होते हैं, नष्ट करें.मानसून आगमन के साथ ही प्रकाश प्रपंच की सहायता से वयस्कों को पकड़कर नष्ट करें. खेत के चारों तरफ मिट्टी पलटने वाले हल की सहायता से तीन चार गहरी (6-8 इंच) नालियां बनाएं, इनमें मिथाइल पैराथियान चूर्ण का भुरकाव करें. प्रपंच फसल के रूप में सनई का 8-10 कतारें मेड़ के पास लगाए . प्रपंच फसलों पर कीट जब आक्रमण करें तब इन फसलों पर उक्त चूर्ण का भुरकाव करें. इस कीट की इल्ली अवस्था हानिकारक हैं एवं इस इल्ली पर रोयें आये इसके पहले कीटनाशक मिथाइल पैराथियान 2 प्रतिशत पूर्ण, 30 कि.ग्रा./हेक्टर का भुरकाव करें.
सफेद लट
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अंग्रेजी के ‘सी’ अक्षर की तरह गोलाई में मुड़ी हुई सफेद मोटी इल्ली जिसका सिर गहरे भूरे रंग का होता हैं . यह इल्ली भी सभी फसलों को क्षतिग्रस्त करती हैं .
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मानसून के साथ जीवन चक्र आरंभ होता हैं, मोटी एवं मांसल जड़ वाली फसलें ज्यादा प्रभावित होती हैं . कच्ची गोबर की खाद का प्रयोग इस कीट की तीव्रता को बढ़ाता हैं .
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इस कीट का वयस्क ताम्बई रंग का रात्रिचर होता है जो फसल सहित अन्य जंगली झाड़ियों की पत्तियों को खाकर पत्ती विहिन कर देता हैं एवं इल्ली अवस्थ फसलों की जड़ों को खाकर फसल को सुखा देता हैं .
प्रबंधन
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वयस्क भृंगों को प्रकाश प्रपंच से आकर्षित कर नष्ट करें. ज्यादा प्रभावित होने वाली फसल जैसे मूंगफली को क्लोरपायरीफास 20 ई.सी. दवा से 25 मिली./कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें .
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कीट ग्रस्त खेतों में आसपास मेंढ पर एवं झाड़ियों पर क्लोरपायरीफॉस 2.5 मि.ली./लीटर पानी का छिड़काव कर वयस्कों को नष्ट करें . खेत में फोरेट 10 प्रतिशत दानेदार दवाई की 20 कि.ग्रा./हेक्टेयर की दर से भूमि में मिलाए .
चक्र भृंग
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इस कीट का वयस्क भृंग 7-10 मि.मी. लम्बा मटमैला भूरे रंग का होता हैं, इसके अग्र पंखों का आधा भाग गहरे हरे रंग का होता हैं.
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श्रृंगिकाएं शरीर की लम्बाई के बराबर या उससे भी लम्बी होती हैं. मुख्य रूप से सोयाबीन फसल को हानि पहुंचाने वाला इस कीट की इल्ली (ग्रब) अवस्था हानिकारक होती हैं .
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मादा वयस्क द्वारा अंडे निरोपण हेतु मुख्य तने पर समानांतर चक्र या गर्डल बनाए जाने पर उस स्थान से इल्ली द्वारा तने के अंदर सुरंग बनाने के कारण क्षति अधिक होती हैं .
प्रबंधन
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ग्रीष्मकालीन गर्मी की गहरी जुताई, मानसून पश्चात् बोनी, एवं खलिहान मेड़ आदि से पुरानी फसल के डंठल भूसा आदि की सफाई अवश्य करें.
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फसल घनी नही बोये, घनी फसल कीट को अनुकूल वातावरण प्रदाय कर प्रकोप को बढ़ाती हैं .फसल में खरपतवार प्रबंधन प्रभावी करें.
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खरपतवार भी इस कीट को प्रश्रय देते हैं.फसल की लगातार निगरानी करें एवं पौधों पर चक्र बनना प्रारंभ होते ही 2-4 दिनों के अंदर ग्रसित पौधों के उन भागों को यथा संभव तोड़कर नष्ट कर देवें .
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रासायनिक प्रबंधन हेतु प्रकोप दिखाई देते ही क्वीनालफास 25 ई.सी. 0.05: या सायपरमेथ्रिन 20 ई.सी. 0.006: या ट्रायजोफास 0.15 प्रतिशत का छिड़काव करें.
इल्ली वर्गीय कीट
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इस समूह के कीटों में प्रमुख हैं चने की इल्ली, तम्बाकू की इल्ली एवं हरी अर्धकुण्डलक इल्ली . ये कीट खरीफ की सभी फसलों पर आक्रमण करते हैं.
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दलहनी फसलें जैसे मूंग, उड़द, अरहर एवं तिलहनी फसलें जैसे सोयाबीन, मूंगफली आदि इन कीटों से ज्यादा प्रभावित होती हैं. इन फसलों के अलावा खरीफ की सब्जियां भी इन कीटों से प्रभावित होती हैं. यह इल्ली वर्गीय कीट सामान्यत: पत्तियों से पर्णहरित को खुरच कर खाते हैं.
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इल्लियों की प्रगत अवस्था में पत्तियों में छेद कर पत्तियों की जालीनुमा बना देती हैं. फसल की प्रगत अवथा में फलियों में छेद कर दानों को खाती हैं. हरी अर्ध कुण्डलक इल्ली सोयाबीन फसल अधिक घनी होने पर फूल वाली अवस्था में कली एवं फूल को भी क्षति पहुंचाती हैं . जिसके कारण फलियों की संख्या में भारी, गिरावट आती हैं. इस तरह के पौधो में सिर्फ शीर्ष पर कुछ फलियां दिखाई देती हैं. उत्पादन में गंभीर क्षति होती हैं.
प्रबंधन
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मृदा परीक्षण प्रतिवेदन के आधार पर संतुलित उर्वरक, प्रजातिनुसार भूमि के प्रकार के अनुसार बीजदर रखकर संतुलित पौध संख्या रखें. इससे कीट प्रकोप कम होगा.
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प्रकाश प्रपंच एवं उक्त तीनों प्रकार की इल्लियॉं के फेरामोन प्रपंच का प्रयोग कर कीटो की निगरानी एवं नियंत्रण दोनों करें.कीट प्रकोप की आरंभिक अवस्था में बिवेरिया बेसियाना 400 ग्राम या तरल स्वरूप में 400 मि.ली. कल्चर के घोल को 200 लीटर पानी में घोल कर. एकड़ में संध्याकालीन समय में छिड़काव करें. अंतिम विकल्प के रूप में आवश्यकतानुसार इमेमेक्टिन बेंजोएट 5 एसजी की 40 ग्राम मात्रा या राइनाक्सीपायर की 30 मि.ली. मात्रा को 200 लीटर पानी में घोलकर एक एकड़ क्षेत्र में छिड़काव करें.
तने की इल्ली
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इस वर्ग के कीट का प्रकोप मुख्य रूप से ज्वार, मक्का एवं घान में होता हैं. कीट का वयस्क घरेलू मक्खी की तरह होता हैं . आकार घरेलू मक्खी से छोटा होता हैं . इसकी इल्ली (मेगट) सफेद रंग की पैर विहीन होती हैं. यही मेगट पौधों की पोंगली से होकर शीर्ष भाग यानी प्रांकुर को क्षतिग्रस्त कर मृतनाड़ा बनाती हैं. प्रकोप देर से होने पर मृत नाड़ा नही बनता हैं एवं पौधे का तना अंदर से खोखला होकर उत्पादन प्रभावित करता हैं.
प्रबंधन
अनाज वाली फसलों की मानसून आने के साथ बोनी करें. बोनी में विलम्ब कीट प्रकोप को बढ़ाता हैं.
कीट ग्रस्त पौधो को नष्ट करें. देर से बोनी होने पर बीज दर 10-15 प्रतिशत बढ़ाकर बोयें.
फसल 30-35 दिन की होने पर कार्बोफ्यूरान दानेदार दवाई 20-25 कि.ग्रा./हेक्टर का प्रयोग करें.
रस चूसक कीट
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असंतुलित पोषक तत्वों खासकर नत्रजन युक्त उर्वरकों के प्रयोग एवं ज्यादा मात्रा में बीजदर के प्रयोग से सभी फसलों में अनुकूल मौसम (अधिक नमी अधिक तापमान) रहने पर रस चूसक कीटों का प्रकोप होता हैं. इन कीटों में सफेद मक्खी, भूरा माहू, काला माहू, एवं जैसिड (हरा मच्छर) प्रमुख हैं . इन रस चूसक कीटों से फसल की बढ़वार रुक जाती हैं .
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दाने भरने की स्थिति में यदि प्रकोप हो तो दाने बारीक पड़ जाते है . रस चूसक कीट माहू सामान्यत: रस चूसने के बाद शहद जैसा चिपचिपा पारदर्शी तत्व स्त्रावित करते हैं . इस स्त्राव पर काले रंग की फफूंद की बढ़वार आती हैं . जिससे प्रकाश संश्लेषण बाधित होता हैं.
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उक्त हानि के अलावा रस चूसक कीट रोगजनक विषाणु के वाहक होते हैं एवं स्वस्थ फसलों में विषाणु जन्य रोगों को फैलाते हैं इन रोगों से फसल कुरूप होकर बांझ हो जाती हैं एवं गंभीर क्षति होती हैं.
प्रबंधन
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नत्रजन युक्त उर्वरकों का संतुलित एवं संयमित प्रयोग करें . बीजदर ज्यादा नहीं रखें, संतुलित पौध संख्या में हवा एवं सूर्य प्रकाश का संचार होता है. जिससे रस चूसक कीटों का प्रयोग घटता हैं .
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सब्जी वाली फसलों में प्रपंच फसल के रूप में बरबटी की 4-5 कतारे लगाए, पीले रंग के स्टीकी ट्रेप (चिपकने वाले प्रपंच) का प्रयोग करें. विषाणु रोग से ग्रस्त पौधे (पीला मोजेक, चुरडा रोग, विकृत एवं छोटी पत्तियां आदि) को उखाड़कर नष्ट करें .
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सब्जी वाली फसलों में नीम तेल (5 मि.ली./लीटर पानी) अन्य फसलों में इमिडाक्लोप्रिड (0.5 मी.ली./लीटर पानी) का घोल बनाकर 250 लीटर प्रति एकड़ की दर से घोल कर छिड़काव करें .
लेखक:
विवेक कुमार त्रिवेदी1 और देवाषीष गोलुई2
1 नर्चर.फार्म, बंगलौर
2भा.कृ.अ.प. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली 110012