काजू का पेड़ एक उष्णकटिबंधीय सदाबहार वृक्ष है. यह तकरीबन 46 फीट तक ऊंचा विकसित हो सकता है. यह अपनी परिपक्वता, उच्च उपज और बाजार में बढ़ती मांग के साथ, हमेशा से कई राज्यों के किसानों के लिए खेती के सबसे पसंदीदा विकल्पों में से एक रहा है. इसकी खेती सबसे पहले भारत के मालाबार तट में की गई थी. विदेशी मुद्रा अर्जित करने की उच्च क्षमता होने की वजह से भारतीय किसानों ने 1920 से इसकी व्यावसायिक रूप से खेती करना शुरू कर दिया था.काजू की खेती के लिए.
आदर्श मिट्टी-
काजू को गहरी, बलुई दोमट अच्छी जल निकास वाली मिट्टी में उगाया जा सकता है. इसके अलावा, काजू की खेती के लिए रेतीली लाल मिट्टी, तटीय रेतीली मिट्टी और लेटराइट मिट्टी भी अच्छी होती है. काजू की खेती के लिए खेत में बाढ़ या पानी के ठहराव को लेकर खेती करने वाले किसानों को सावधान रहना चाहिए. क्योंकि, इससे पौधों की वृद्धि को नुकसान पहुंचता है. इसके साथ ही मिट्टी का पीएच स्तर 8.0 तक होना चाहिए. काजू उगाने के लिए खनिजों से समृद्ध शुद्ध रेतीली मिट्टी को भी चुना जा सकता है.
काजू की खेती के लिए जलवायु-
1000-2000 मिमी की वार्षिक वर्षा और 20 से 30 डिग्री सेल्सियस के बीच तापमान वाले क्षेत्र काजू की खेती के लिए सर्वोत्तम होते हैं. इसकी खेती के सर्वोत्तम परिणामों के लिए इसे कम से कम 4 महीनों के लिए एक अच्छा शुष्क मौसम की स्थिति की आवश्यकता पडती है, जबकि अनिश्चित जलवायु के साथ भारी वर्षा इसके लिए अनुकूल नहीं है. 36 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान विशेष रूप से फूल और फलने की अवधि के दौरान फलों के मानक को बनाए रखने के लिए प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है.
भूमि की तैयारी और रोपण-
भूमि को अच्छी तरह से जोतने की जरूरत होती है, क्योंकि यह पोषण को बढ़ावा देता है और नमी संरक्षण में मदद करता है. इसे मानसून यानी अप्रैल और जून माह से पहले तैयार कर लेना चाहिए. अगर खेत की जमीन में कड़ी परत है, तो गड्ढे के आकार को आवश्यकतानुसार बढ़ाया जा सकता है. गड्ढों को 15 से 20 दिन तक खुला छोड़ने के बाद इसमें 15 किलोग्राम गोबर की खाद या कम्पोस्ट, 2 किलोग्राम राक फॉस्फेट या डीएपी के मिश्रण को गड्ढे की ऊपरी मिट्टी में मिलाकर भर देते हैं. गड्ढों के आसपास ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि वहाँ पानी न रूके. अधिक सघनता से बाग लगाने के लिए पौधों की दूरी 5 x 5 या 4 X 4 मीटर रखते हैं. शेष प्रक्रियाएँ सामान्य ही रहती है.
पौध तैयार करना-
इसकी पौध को साफ्ट वुड ग्राफ्टिंग विधि से तैयार किया जाता है. साथ ही भेट कलम द्वारा भी पौधों को तैयार कर सकते हैं. पौधा तैयार करने का उपयुक्त समय मई से जुलाई का महीना होता है.
पौध रोपण-
इसके पौध की अच्छी उपज के लिए इसे बारिश के मौसम में ही लगाना चाहिए. तैयार गड्ढों में पौधा रोपने के बाद इसमें थाले बना दिये जाते हैं तथा थालों में समय – समय पर निराई-गुड़ाई करते रहते हैं. जल संरक्षण के लिए थालों में सूखी घास का पलवार भी बिछाते हैं.
खाद एवं उर्वरक-
इसमें हर साल पौधों को 10 से 15 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद, के साथ-साथ रासायनिक उर्वरकों की भी उपयुक्त मात्रा देनी चाहिए. पहले साल में 300 ग्राम यूरिया, 200 ग्राम रॉक फास्फेट, 70 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश प्रति पौधा की दर से दी जाती है. उसके बाद दूसरे साल में इसकी मात्रा दुगुनी कर दब जाती है और तीन वर्ष के बाद पौधों को 1 किग्रा यूरिया, 600 ग्राम रॉक फॉस्फेट एवं 200 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश को प्रति साल मई से जून और सितम्बर से अक्टूबर के महीनों में आधा-आधा बांट कर दिया जाता है.
छटाई
इसके पौध की उच्छी उपज के लिए शुरुआत में इसको अच्छा आकार देने की जरुरत पड़ती है. इसलिए पौध की छटाई करके इसको अच्छा आकार देने के साथ-साथ फसल तुड़ाई के बाद सूखी, रोग एवं कीट ग्रसित तथा कैंची शाखाओं को काट दिया जाता है.
तुड़ाई एवं उपज-
इसमें पूरे फल की तुड़ाई नहीं की जाती है, बल्कि गिरे हुए नट को एकत्रित कर लिया जाता है और फिर इसको धूप में सुखाकर बोरे में भर के ऊँचे स्थान पर रख दिया जाता है. वहीं हर पौध से लगभग 8 से 10 किलोग्राम नट हर साल प्राप्त होता है. इस प्रकार एक हेक्टेयर में लगभग 10 से 17 क्विंटल काजू के नट मिलता हैं. जिनसे प्रसंस्करण के बाद खाने योग्य काजू प्राप्त होते है.
उन्नत किस्में-
काजू की प्रमुख किस्में वेगुरला- 4, उल्लाल- 2, उल्लाल- 4, बी पी पी- 1, बी पी पी- 2, टी- 40 आदि हैं.