उत्तर पश्चिम भारत के मैदानी क्षेत्र कम वर्षा व सूखा क्षेत्र होने के कारण परम्परागत तौर पर धान उत्पादक क्षेत्र नहीं है. जहां वर्ष 1960 तक, धान की खेती आमतौर पर नदियों के खादर व डाबर (निचले) क्षेत्रों तक सीमित थी जहां वर्षा ऋतु में जल भराव रहता है. उस समय, धान की खेती दूसरी फसलों की तरह रोपाई से नहीं, बल्कि सीधी बुआई/बिजाई से की जाती थी (यानि खेत तैयार करके बीज बिखेरना आदि). लेकिन हरित क्रांति दौर में, धान के खेती के लिए रोपाई तकनीक अपनाने व खाद्य सुरक्षा बनाए रखने के लिए सरकार द्वारा दिये गये बहुत बड़े प्रोत्साहन के कारण, पिछले पाँच दशकों में इन सूखे प्रदेशों में भूज़ल के दोहन के सहारे, ख़रीफ़ मौसम में धान का क्षेत्रफल कई गुना बढ़ गया है.
जिसके प्रभाव से ये क्षेत्र की आज केंद्रीय अनाज भंडारण व उच्च गुणवत्ता वाले बासमती चावल निर्यात में मुख्य भागीदारी बनी हुई है और जो किसानों व प्रदेश सरकार की कृषि आय का मुख्य स्त्रोत है. लेकिन हरित क्रांति दौर से खड़े पानी वाली रोपाई धान तकनीक अपनाने से (जो एक किलो धान पैदा करने में 3000-5000 लीटर पानी बर्बाद करती है) इन क्षेत्रों के भूजल व पर्यावरण को बहुत नुक़सान हुआ है जिसके प्रभाव से बहुतायत क्षेत्रों में अब जीवों के लिए ज़रूरी पीने का भूजल संकट की स्थिति में पहुँच गया है. जबकि वैज्ञानिक तौर पर, खड़े पानी वाली रोपाई धान तकनीक के सिवाय खरपतवार रोकने के धान की पैदावार से कोई सीधा संबंध नहीं है.
दुनिया में आमतौर पर, खड़े पानी वाली रोपाई धान तकनीक ज़्यादा वर्षा वाले व समुन्दर किनारों के द्वीप क्षेत्रों के लिए उपयुक्त मानी जाती है. तब भूजल बर्बादी वाली रोपाई धान तकनीक को इन सूखे क्षेत्रों जैसे में सरकारी प्रोत्साहन से लागू करना देश के नीति निर्माताओं की बड़ी अदूरदर्शीता मानना चाहिए. जो सत्ता के अहंकार में, बिना तथ्यों व वैज्ञानिक ज्ञान को समझे, अपनी अव्यवहारिक योजनाओं को किसानों पर ज़बर्दस्ती थोप कर किसानों, देश व पर्यावरण का नुक़सान करते रहते हैं. जैसा कि हाल में लागू किए किसान विरोधी काले कृषि क़ानून, ज़ीरो बजट फसल योजना व ज़बर्दस्ती थोपी गयी फसल बीमा योजना आदि, सरकार की अदूरदर्शीता के ताज़ा उदाहरण हैं.
धान ही बोयें किसान
हरियाणा सरकार द्वारा पिछले चार साल से धान नहीं बोयें किसान व मक्का फसल बोयें जैसी अव्यवहारिक योजना पर हज़ारों करोड़ रुपये बर्बाद करने के बाद भी, किसान मक्का फसल की खेती में रुचि नहीं ले रहे हैं, क्योंकि प्रदेश का दो तिहाई क्षेत्र वर्षा ऋतु में जल भराव प्रभावित रहता है. जबकि मक्का फसल जल भराव को कुछ घंटे भी बर्दास्त नहीं कर सकती और वैसे भी खुले बाज़ार में मक्का 700-1200 रुपये प्रति क्विंटल बिकती है जो कभी भी धान फसल के बराबर फ़ायदा किसान को नहीं दे सकती है. दूसरी तरफ़, धान फसल मशीनीकरण की सुविधा व एम.एस.पी पर ख़रीद की वजह से किसान हितैषी साबित हुई है.
अब सवाल ये है की, क्या भूजल की बर्बादी के बाऊजूद, किसानों को धान के खेती करनी चाहिए ? सरकार ने धान फसल में भूजल बर्बादी रोकने के लिये, 15 जून से पहले धान की रोपाई पर क़ानूनी प्रतिबंध लगाएं और कृषि वैज्ञानिकों व विभाग ने रोपाई धान छोड़कर एक तिहाई भूजल बचत वाली सीधी बिजाई धान तकनीक अपनाने की सलाह दी. जो सूखे खेत व जून के दूसरे पखवाड़े में धान की बुआई करने जैसी तकनीकी त्रुटिपूर्ण सिफ़ारिशो व खरपतवार की बहुतायत के कारण, किसानों में ज़्यादा लोकप्रिय नहीं हो पायी. पिछलें पाँच वर्षों में मैंने, इन तकनीकी त्रुटियों को सुधार कर, सीधी बिजाई धान तकनीक को कामयाब कर दिखाया है. जिससे प्रेरित होकर, किसानों ने वर्ष-2020 में सीधी बिजाई धान तकनीक से पंजाब में 16 लाख एकड़ व हरियाणा में 5.5 लाख एकड़ क्षेत्र में धान की खेती की जो आमतौर पर कामयाब रही.
सीधी बिजाई धान में रोपाई धान के बराबर ही पैदावार मिली व फसल झंडा रोग से पूर्णता मुक्त रही और श्रम, लागत व भूजल की लगभग एक तिहाई बचत हुई. इसलिए सरकार को चाहिए कि भूजल बचत के लिए ‘धान छोड़े किसान’ अव्यावहारिक योजनाए छोड़कर, सरकारी प्रोत्साहन से सीधी बिजाई धान को 7000 रूपये प्रति एकड़ प्रोत्साहन से बढ़ावा दें. जिससे इन सूखे प्रदेशों में भूजल का संरक्षण होगा और साथ में सरकार को बिजली व डीज़ल आदि कृषि सब्सिडी पर भारी बचत होगी. इच्छुक किसान निम्नलिखित विधि से डॉ. लाठर सीधी बिजाई धान तकनीक को अपनाकर फ़ायदा उठाएं.
1. धान की सभी क़िस्में कामयाब, लेकिन जल्दी पकने वाली किस्म को प्राथमिकता दें.
2. बुआई के पहले 40 दिन फसल रंगत अच्छी नजर नहीं आती इसलिए हौसला बनाये रखें.
3. बुआई 15 म्ई से 5 जून तक करें, क्योंकि बुआई के बाद 10-15 दिन वर्षा रहित सुखे चाहिए.
4. बुआई गेंहू फसल की तरह पलेवा/रौनी सिंचाई के बाद तर-वत्तर में करें.
5. बीज की मात्रा 8 किलो प्रति एकड़ रखें और बीज को 2 ग्राम बाविस्टिन प्रति किलो बीज उपचार ज़रूर करें.
6. बुआई शाम के समय बीज मशीन य़ा छिडकाव विधि से करें और बुआई में बीज की गहराई मात्र 3 से.मी. रखें, नहीं तो पौधे भूमि से बहार नहीं आयेंगे. छिड़काव विधि से बुआई करने के बाद, हल्का पाटा/ सुहागा ज़रूर लगाएं.
7. खरपतवार रोकने को, बुआई के तुरंत बाद (यानि शाम को ही) 2 लीटर पेंडामेथेलीन (स्टोंप) और 80 ग्राम साथी 300 लीटर पानी प्रति एकड़ छिडकाव जरूर करें.
8. अगर बुआई के पहले 7 दिनों में, बेमौसम बारिश हो जाए तो भूमि की सख्त परत तोड़ने के लिए सिंचाई करें और पर्याप्त नमी की स्थिति में, प्रेटिलाक्लोर 500 मिली लीटर बालू रेत में मिला कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.
9. बुआई के बाद पहली सिंचाई 15-20 दिन के बाद भूमि आधारित करें और खड़े पानी में एक लीटर बुटाकलोर प्रति एकड़ रेत में मिलाकर छिड़काव करें. अगर फिर भी खतपरवार समस्या आए, तो एक महीने की फसल में 100 मि.ली. नोमिन्नी गोल्ड 100 लीटर पानी प्रति एकड़ का छिड़काव गीले खेत में करें.
10. बाद की सिंचाई 10 दिन के अन्तराल पर वर्षा आधारित करें और बाली आने से फसल पकने तक खेत समुचित नमी बनाए रखें.
11. खाद और दवाई अनुमोदित मात्रा और विधि से डाले; बुआई के समय 45 किलो डी ए पी या न पी के या सुपर फस्फेट और 10 किलो फेरस प्रति एकड़ डालें. 20 दिन की फसल में 30 किलो यूरिया, 10 किलो जिंक और 25 किलो पोटाश डालें, बाद में 40 दिन के फसल में 40 किलो यूरिया और फिर 60 दिन की फसल में 40 किलो यूरिया डालें.
12. तने की सूँडी (गोभ का कीड़े) के लिए; 35-40 दिन की फसल अवस्था में 7 किलो कार टेप प्रति एकड़ ज़रूर डालें.
13. पत्ता लपेट व तना छेदक के लिए: मोनोक्रोटोफॉस या क्लोरोपाइरीफास 200 मिलीलीटर या क्विनालफॉस 400 मिली लीटर प्रति एकड़ छिड़काव करें.
14. बाली निकलने के समय, हल्दी रोग या ब्लास्ट से बचाव के लिए, 120 मिली लीटर बीम या सिविल या 200 ग्राम कार्बेन्डाजिम (बाविस्टिन) या प्रोपिकोनाजोल 200 लीटर पानी में प्रति एकड़ छिड़काव करें.
15. सीथबलाईट के लिए: 400 मिलीलीटर वैलिड माईसिन ( अमिसटार / लस्टर) प्रति एकड़
16. धान की बलिया निसरने पर, 2% यूरिया और 1 % पोटाश या इफको का एक किलो 13:0:45 का छिड़काव सीधी बिजाई धान में बहुत फ़ायदेमन्द पाया गया है.
17. फसल में दीमक की शिकायत होने पर, सिंचाई के साथ एक लीटर क्लोरोपायरिफ़ास प्रति एकड़ चलाये.
पिछले साल की धान फसल के गिरे हुए बीज व खरपतवार बीजों को ख़त्म करने के लिए, रबी फसल की कटाई के बाद मूँग, ग्वार, या ढैंचा को हरी खाद फसल के रूप में लें.
लेखक: डॉ. वीरेंद्र सिंह लाठर, पूर्व प्रधान वैज्ञानिक, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नयी दिल्ली
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